Friday, October 11, 2024
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राजेन्द्र शर्मा की दो कविताएँ

समर्पण
मेरी ख़ामोशी उन्हें इसतरहा नागवार गुज़री कि
वो वफ़ा और जफ़ा में फ़र्क़ करना ही भूल गये।
मेरा इरादा तो फ़क़त इतना ही था
कोई उँगली उस तरफ़ न उठे
वर्ना सरेराह बदनाम हो जाना
इतना भी मुश्किल तो न था।
वफ़ा-ए-मोहब्बत हम निभा न सके
ये तनिक भी सच न था
वर्ना इलज़ाम ये कुबूल कर लेना
इतना भी मुश्किल तो न था।
सदमा-ए-मौत वो सह न सकेंगे
यकीन-ए-अहसास अभी भी रखते हैं
वर्ना सरेआम महफ़िल से उठ जाना
इतना भी मुश्किल तो न था।
सुकून-ए-ज़न्नत उनका नसीब बने
हर सांस में दुआ यही की है
वर्ना तमन्ना-ए-ज़िन्दगी उनके नाम लिख देना
इतना भी आसान तो न था।
मेरी ख़ामोशी उन्हें इसतरहा न गवार गुज़री कि
वो वफ़ा और जफ़ा में फ़र्क़ करना ही भूल गये।।
शरारत
आपकी शरारत को
आपका हुनर कहूँ या आपकी अदा
ये दिल चुराने का अंदाज़ आपका अच्छा है
कभी वक़्त मिले तो बताना
ये चोरी करना आपने कहाँ से सीखा है।
आपकी शरारत को – – –
हम मिले थे तेरी महफ़िल में इक अज़नबी की तरहा
तेरी मेहमान नवाज़ी का असर तो देखिए
अब हर शाम तुझी को ढूंढते हैं।
तेरी मेहमान नवाज़ी का अंदाज़ ज़ुदा है – – –
पता है तू इस जमीं की नहीं पर दिल लगी तुझी से है
तेरी क़ातिल निगाहों का असर तो देखिए
अब हर निगाह में तुझी को ढूंढते हैं।
तेरी निगह बानी का अंदाज़ अच्छा है – – –
वो महज़ इक खेल था हमारे बीच जब शुरू हुआ
तेरी हर जीत के जश्न का असर तो देखिए
अब हर मात में तुझी को ढूंढते हैं।
तेरी शातिराना चालों का अंदाज़ नया है – – –
कभी तो ख़त्म होगा वो तेरा इंतज़ार आज भी है
तेरी बे-बाक बात का असर तो देखिए
अब हर राह में तुझी को ढूंढते हैं
तेरी बातों की बे-बाकी का अंदाज़ भला है – – –
अब शिकायत करूं भी तो क्या जब ये दर्द मीठा हैं
ये चोरी करना आपने कहाँ से सीखा है
आपकी शरारत को – – –
आपका हुनर कहूँ या आपकी अदा
ये दिल चुराने का अंदाज़ आपका अच्छा है
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