बचपन से जुड़ी कुछ यादें हमेशा गुदगुदा जाती हैं। उन यादों में जिंदगी के कुछ अनमोल पल बसेरा डाले रहते हैं, जो हमें खुद को दुबारा पलट कर देख लेने, टटोल लेने और जी लेने को ललचाते हैं। इनमें जिंदगी के बहुत से फ़लसफ़े भी छुपे होते हैं। आज जिंदगी की डायरी के पन्ने पलटते हुए ऐसे ही एक बीते हुए किस्से पर नजर ठिठक गई। जैसे-जैसे इसे कुरेदता गया हंसी रह-रहकर होठों पर तैरती रही। 
      दरअसल बात उन दिनों की है जब मैं छठीं या सातवीं कक्षा में पढ़ता था। पिता जी उन दिनों रोज़गार की तलाश में दिल्ली चले गये थे। मेरे तीन चाचाओं में से दो चाचा विवाह की उम्र के हो गये थे। एक की उम्र तेईस बरस तो दूसरे की उन्नीस बरस थी। सबसे छोटे चाचा तो लगभग मेरे ही हमउम्र थे। मुझसे मात्र दो बरस बड़े, मेरी ही कक्षा में पढ़ते थे। दोनों बड़े चाचा आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ चुके थे और खेती-बाड़ी में दादा जी का हाथ बंटाते थे। उन दोनों की शादी समय से हो ये मेरे दादा-दादी की अनन्य इच्छा थी। पर चाहते हुए भी उनके अनुसार इसमें कुछ विलम्ब हो रहा था। इनमें बड़े चाचा की उम्र के एक-दो लड़के तो बाप बन चुके थे, सो चिंता और भी बड़ी हो गई थी।
     तो इस याद का संबंध हर साल सर्दियों के मौसम में आने वाले कोल्हार के दिनों से भी है। कोल्हार….यानी वह जगह जहाँ गन्ना पेराई का कोल्हू लगा होता था और गुड़ बनाने के लिए जरूरी तामझाम की अस्थाई व्यवस्था होती थी। इसमें छप्पर के नीचे गन्ने के रस का पाग पकाने के लिए खुदे चूल्हेनुमा बड़े गड्ढे और उन पर रखे बड़े कड़ाहे भी शामिल थे। पाग जब पक कर तैयार हो जाती तब उसे कड़ाहे से पलटकर पास में रखे मिट्टी के एक बड़े बर्तन में डाल दिया जाता। इस मिट्टी के सपाट और उथले बर्तन को चाक कहा जाता था। हालाँकि यह कुम्हार के चाक से बिल्कुल अलग होता था। पाग उतारते ही शुरू हो जाता उसको हल्का ठंडा करके रगड़ने और भुरभुरा बनाकर हथेलियों से बाँधने का काम। गोल-गोल बंधे गुड़ को भेली कहा जाता। गुड़ बनाने का काम अक्सर शाम से शुरू होकर देर रात या पूरी रात चलता।
दिन में कभी-कभी ही ये काम किया जाता था। नहीं तो अमूमन गन्ने की कटाई-ढुलाई, खोई को सुखाने, इकट्ठा करने का काम ही दिन में होता था। हम बच्चे भी गर्म भेली पाने के लालच में खोई फैलाने और इकट्ठा करने में जुट रहते थे। हमें इससे कम ही मतलब होता था कि ये काम किसके घर का है। वानरी सेना जुटती तो काम झट हो जाता। चूल्हेनुमा गड्ढे जिन्हें गूला कहा जाता था, शाम होते-होते आग से दीप्तिमान हो जाते थे। फिर कोल्हार में रात भर रौनक होती थी। खैर….मुझे तो कुछ और बताना है आपको।
      सर्दियों में दिन को अपना लाव-लश्कर समेट कर जाने की जल्दी होती ही है। उस दिन भी शाम पाँच बजते-बजते चिड़ियां-पंछी अपने-अपने ठिकानों की ओर उड़ चले थे और साँझ के आने की मुनादी कर रहे थे। कोल्हार में रोजमर्रा का काम शुरू हो गया था और एक रौनक सी जमने लगी थी। गूलों में आग सुबह के सूरज की तरह लाल-लाल पसरने लगा था जिसे धधकने में बस कुछ ही पल लगने थे। तो हुआ यूँ कि पड़ोस के चिन्ने चाचा एक अधबुढ़ आदमी को लिए हमारे कोल्हार में दाखिल हुए। उन्होंने बताया कि ‘ऐं बियाह जोग बर के बारे में पूछत रहे इहीं से इहाँ लेइ आयेन। एन्हें अपने दुइ बिटियन खातिर दुइ बर चाहीं।’ विवाह के लिए वर की तालाश में आए ऐसे व्यक्तियों को ‘बरदेखुवा’ कहा जाता था।
बरदेखुओं का बड़ा स्वागत किया जाता था। उस समय हम किसान के घरों में पैदा हुए बच्चों का सबसे बड़ा जीवन लक्ष्य विवाह ही होता था। माता-पिता अपने बच्चों का ब्याह अपने जीते जी करा ले जाएँ तो अपना जीवन धन्य समझते। पढ़ने-लिखने या नौकरी प्राप्त करने जैसे दबाव न के बराबर थे। खेती जैसी आजीवन आजीविका की उपस्थिति दूसरे तरह के तनावों को जमने नहीं देती थी। बेटों के विवाह को उत्सुक मेरे दादा जी के लिए बरदेखुओं का आना बड़ा अवसर होता था। उन्होंने इशारे से दोनों चाचाओं को घर चले जाने और नहा-धोकर तैयार रहने को कह दिया, जिससे तभी परिचय कराया जाए।
        कोल्हार में रखे बिस्तर को बिछाकर उसे बैठाया गया। गरम गुड़ के साथ पानी पिलाकर ताजा गन्ने का रस भी हाज़िर किया गया। फिर गाँव, पता और आने का कारण पूछने की शुरुआत हुई। वैसे तो वह आदमी ज्यादा साफ-सुथरा नहीं था। एक मटमैला धोती-कुरता पहने और हाथ में एक छोटा झोला लिए वह बरदेखुवा कम कोई घुमक्कड़ ज्यादा लग रहा था। लंबे कद और दुबली काया वाला वह लगभग पचास वर्षीय व्यक्ति कुछ थका हुआ भी जान पड़ता था। पर वह थकान को खुद पर हावी हुआ नहीं दिखाना चाहता था और अपने हाव-भाव से रह-रह कर उसे सफलता पूर्वक दबा देता था। हालाँकि सिर्फ इन सब लक्षणों से ही उस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता था। फिर अगले कुछ ही पलों में उसकी बातों ने ऐसा जादू किया कि सब उसकी गिरफ्त में आ गये। उस आदमी ने बताया कि ‘वह अपनी सयानी हो रही दो बेटियों के लिए वर ढूँढने निकला है।
वैसे तो उसके पास कमाई का कोई ज़रिया नहीं है लेकिन उसके कोई और संतान न होने के कारण उसके खेत ही विवाह का खर्च उठाएँगे।’ जब वह दुखी मन से बोला कि उसने बेटियों की शादी के लिए ‘अपनी महतारी को बेचा है’ तो पहले वहाँ सभी इसे न समझते हुए हैरान हुए फिर उसके स्पष्ट करने पर कि ‘महतारी मतलब खेत’ तो फिर दुखी होने का दिखावा करते हुए मन ही मन खुश भी हुए। क्योंकि वह खेत बेचकर मिले पैसे से अच्छी खेती वाले के घर बेटियों को ब्याहने और मोटा दहेज देने की बात भी साथ-साथ कर रहा था। मेरे दादा जी के लिए ये फूले न समाने वाली बात थी।
कहाँ तो कैसे भी बेटों की शादी हो जाने की चिंता थी वहीं मोटा दहेज भी लगे हाथ मिलने की संभावना बन रही थी। पर उनकी नजर में आगे बढ़ने के लिए दो-एक सूचनाएँ जान लेना जरूरी था, जैसे- जाति और गोत्र। इसे जानकर वह संतुष्ट हुए। घर चलकर आगे की जानकारी लेने और बातचीत करने का विचार उनके मन में आया। जल्दी ही चढ़े हुए कड़ाहे के पाग को निपटाकर काम रोक दिया गया। बरदेखुवा महाराज को ससम्मान घर लाया गया। घर पहले से ही सूचना पहुँचा दी गई थी। सो मेरी दादी, माँ और चाचाओं ने मिलकर स्वागत और आतिथ्य की पूरी तैयारी कर ली थी। 
       घर पहुँचकर फिर जल-पान कराया गया। अब तक बाजार से पानी के साथ मिठाई भी देने के लिए मंगाई जा चुकी थी। बरदेखुवा के कहने पर विवाह योग्य दोनों चाचाओं को सामने हाज़िर किया गया। बड़े चाचा की तो पहले भी दो-तीन बार इस तरह की पेशी हो चुकी थी। सो बाजार में कई बार बिकने के लिए प्रस्तुत किए जा चुके पर बिक न पाए अनुभवी मवेशी की तरह गंभीरता और निर्विकार भाव से इस तरह खड़े हो गये कि जैसे कह रहे हों कि ‘देखो, जैसे भी देखना है।’ दूसरे चाचा के लिए पेशी का यह पहला मौका था। पहली बार वे संभावित दूल्हे की तरह देखे जा रहे थे। उनके चेहरे पर उत्साह और उछाह देखते ही बनता था। उन्हें शर्म भी आ रही थी और खुशी भी नहीं छिप पा रही थी। उन दोनों को हर तरह से निहार कर बरदेखुवा बहुत प्रफुल्लित दिखाई दिया। बोला, ‘हमरे दूनों बिटियों की खातिर ई बर संकर-पार्वती के जोड़े समान हैं।’ कहाँ तो हमारा परिवार दोनों में से सबसे बड़े की शादी की ही सोच रहा था और कहाँ दोनों का ही बंदोबस्त होता दिख रहा था। दादा जी की तो बांछें खिली हुईं थीं। एक तो दोनों बेटों के लिए एक साथ विवाह का प्रस्ताव, दूसरे बरदेखुवा की बड़ी-बड़ी बातें। वह बहुत ही मीठी बोली-वाणी में बरदेखुवा से बातें कर रहे थे और उसके घर-परिवार-खानदान के बारे में ज्यादा से ज्यादा पता करना चाह रहे थे। पर वह बरदेखुवा अपने बिके खेतों से मिले भरपूर पैसे की बात पर घूम-फिर कर लौट आता और उससे दहेज में लड़के का घर भर देने की बात करता। दादा जी को अजीब तो लगता पर आती हुई लक्ष्मी के दृश्य की कल्पना उस पर भारी पड़ जाती। फिर भी दादा जी घूम फिर कर मूल मुद्दे पर पहुँच ही जाते।
‘आपकै शुभ नाम का पड़ी साहब? दादा जी ने फिर शुरुआत की।
‘बालेसर तिवारी।’ उसने जवाब दिया।
‘बहुतै अच्छा। कहाँ कै जड़ि है आपकै?’
दादा जी और गहराई में उतरे।
‘हमार अम्मा सिव जी कै भक्त रहीं। हमरे पैदा होय से पहिले बालेसर मंदिर से दर्शन करिके लौटी रहीं। इहीं खातिर हमरौ नाम बालेसर बाबा के नामै पर रखि दिहिंन।’
‘जी बहुतै नीक। अपने गाँव और ननिहाल के बारे में कुछ बतावा जाय।’ उन्होंने फिर मामला छेड़ा।
‘हमार गाँव बांसी के दक्खिन चन्ननपुरवा पड़ी और ननिहाल थुमवा।’ उसने तुरत-फुरत में उत्तर देकर मुक्ति ली। शायद वह समझ गया था कि इन प्रश्नों से भागा नहीं जा सकता।
गाँव के नाम से तो नहीं पर ननिहाल के नाम से सभी लोग चौंक पड़े। आखिर गाँव और कुनबे में ही इस गाँव की कुछ बहुएं थीं। यहाँ तक कि दादा जी के बड़े भाई की बहू यानी मेरी बड़की अम्मा भी उसी गाँव की थीं। बड़े दादा जी से बरसों पहले घर में बंटवारा हो चुके होने के बावजूद दिल न बंटे थे। घर में दो रसोई न कोई देख ले तो पता भी न चले कि बंटवारा हुआ भी है। बस रसोई के बीच सीने की ऊँचाई तक खड़ी कच्ची दीवार ही बांटती थी हमें, वरना तो एक आँगन, एक दुवारा। 
      लेकिन दादा जी ने अभी नहीं बताया कि थुमवा गाँव में हमारी रिश्तेदारी है। वह पहले और जान समझ लेना चाहते थे। या कुछ और भी हो सकता है उनके मन में रहा हो। उन्होंने दूसरों को आँखों के इशारे से यह बात बताने से रोक दिया। जवान हो रहे लड़कों के सभी घर वालों को बरदेखुवों का अच्छा-खासा अनुभव हो ही जाता है। हमें भी हो चुका था। इस अनुभव में यह बात शामिल थी कि ऐसे बरदेखुवों से बहुत सोच-समझकर बात करने की जरूरत होती है, अन्यथा गड़बड़ हो सकती है। कहाँ कुछ बढ़ा कर बताना है या घटाकर इसे घर का अनुभवी व्यक्ति ही बता सकता था। बेशक यह काम हमारे घर में दादा जी के ज़िम्मे था। हम बच्चों को चुप रहने या जितना पूछा जाए उतना ही बोलने की इजाज़त थी। 
     हम दौड़ कर भीतर खबर पहुँचा आए। ‘अरे बड़की अम्मा तोहरे गाँव कै बरदेखुवा आए हैं, अरे नाहीं….वनके मामा कै घर तोहरे गाँव में है। जरा पल्ला के आड़े से देखि कै चीन्हौ।’ बड़की अम्मा की बड़ी-बड़ी आँखें खबर सुनकर वैसे ही चमकीं जैसे नइहर की खबर सुन लड़कियों की आँखें चमकती ही हैं। वह दौड़कर ड्योढ़ी में आईं और परदे की आड़ से बाहर देखने की कोशिश करने लगीं। उन्हें बरदेखुवा की शक्ल औरों की पीठ आगे दिखने की वजह से पूरी तरह दिखाई तो नहीं दे रही थी पर उसकी बातों को वो ध्यान से सुनकर गुनने-धुनने लगीं। वे कुछ कड़ियां जोड़ने की कोशिश करती हुई दिखीं पर पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहीं थीं। उन्होंने सोचा जब चौका में भोजन परोसा और खिलाया जाएगा तब पूरी बात पता चलेगी। हालाँकि वह इसके बाद लगातार बातें सुनने और न जाने क्या गुनने में लगीं रहीं। 
     इधर बरदेखुवा एक से बढ़कर एक बातों की रेल चलाए हुए था। इनके बीच वह ऐसी बातें भी करता जिससे यह भान कायम रहता कि वह बरदेखुवा ही है। उसने तफ्तीश की मुद्रा में दादा जी से मुखातिब होकर पूछा, ‘आपके खेत केतना बिघहा है, मिसिर जी?’
‘जी भगवान के दया से बीस बिघहा, पक्का नाप वाला।’ दादा जी ने वास्तविक में मात्र दो गुने बीघे का इज़ाफा कर अपनी शालीन प्रस्तुति दी।
‘अरे ई बीस नाहीं पचास समझौ। इहाँ कै माटी भारत कै सबसे उपजाऊ माटी है। इहं में तो खाये के इलावा बेचेव नाहीं खतम होत होई।’ 
यह तो वर पक्ष के हित में ही दी गई दलील जान पड़ी। सो दादा जी ने और विनम्र होकर अपना शरीर सिकोड़ते हुए कहा, ‘तिवारी जी समनवै ही है सब। कोल्हारे में सारा जलवा देखि कै आए ही हौ। कुंतलै कुंतल तो भेली बिकात है। ऐसै धान-गेहूँ-मटर-आलू सबकै पैदावार छप्पर फारि कै होत है।’
मुझे याद आ रहा है कि कहते-कहते दादा जी की मूँछों से दबे होंठ उत्साह में गालों तक तैर जा रहे थे, आँखें बड़ी लेकिन सम्मान से झुकी जा रहीं थीं, वहीं गले में लटका बरसों पुराना सुसुप्त घेंघा प्राणवान हो फुदके जा रहा था। वह इतने विनम्र यदा-कदा ही नजर आते थे। 
‘पर अपने महतारी का जे अपमान करै अउ बेचै ऊ महापापी। हमरे जइसन निरबंसी के कउनो और चारौ तो नाहीं। दुइ बिघहा बेचि कै बिटियन कै घर बसावै जात हई….पर मिसिर बाबू बाकी कै दस बिघहा कबो नाहीं बेचब। हमार बुढ़ापा कटी फिर बिटियन के नाम कइ देब।’
   यह बरदेखुवा की ओर से की गई अब तक का सबसे बड़ी घोषणा थी। पहले इस घर के दो बेटों से शादी का प्रस्ताव तिस पर दहेज भी और अब लगे हाथ दस बीघे खेत मिलने की भी उम्मीद। लगता था लक्ष्मी और कुबेर दोनों ही आगे से बसने के लिए अपना धाम इसी घर को मान चुके थे। दादा ही नहीं दादी, सारे चाचा, बड़े दादा जी का परिवार विस्मय मिश्रित खुशी से फूल कर कुप्पा हुए जा रहा था।
      इस बीच रसोई में माँ और बड़ी अम्मा तरह-तरह के पकवान बना रहीं थीं। बीच-बीच में उनमें से कुछ चीजें बारी-बारी बरदेखुवा के समक्ष हाजिर की जा रहीं थीं। मिठाई-पानी के बाद शरबत, फिर कुछ ही देर में चाय के साथ पकौड़े। पकौड़े भी आलू, कच्चे केले, लौकी और गोभी के। पकौड़े बनाने के लिए केले लाने के लिए दादा जी ने चाचा यानी छोटे वर को भेजा था। दो-चार केले लाने के बजाय अपने विवाह के उमंग में वह पूरा एक घौद ही काट लाये। और समय होता तो दादा जी फुफकारते ही नहीं बल्कि आसमान सिर पर उठा लेते इस बात पर। लेकिन अभी चाचा को बस घूरकर ही रह गये थे। बरदेखुवा पूरी तन्मयता से आहार खींचने में व्यस्त था। किसी भी व्यंजन से उसे कोई आपत्ति या रश्क नहीं होता। सब पेट प्रिय और मनभावन था उसे।  
     बरदेखुवा बीच-बीच में विवाह तय करने संबंधी जरूरी बातचीत पर लौट आता जैसे किस्सा कहते-कहते कुछ संबंधित व्याख्याओं को समेटकर किस्सागो मूल कथा पर लौट आता है। उसने घर का दृष्टिगत मुआयना करते हुए कहा, ‘घर आपकै काफी पुरान होय गा है। नवा काहे नाहीं बनवायो?’ 
यह अपेक्षित प्रश्न नहीं था। दादा जी सहित उपस्थित घर के सभी लोग थोड़ा सकपकाए। खेत-बाड़ी और पैदावार का सारा विस्तार वर्णन इसी कमी को ढकने के लिए ही तो वो कर रहे थे। पिछले दस सालों से नया घर बनाने की जी तोड़ कोशिश के बावजूद कहाँ इतने रूपये-पैसे संसाधन जुट पा रहे थे कि घर बनाया जा सके और इस खपरैल वाले घर से मुक्ति ली जा सके। कोल्हार के पीछे वाली जमीन पर नींव भरवाने और घुटने की ऊँचाई भर दीवार खड़ा कर देने के बावजूद पिछले पाँच साल से ऊँचाई बढ़ ही नहीं पा रही थी।
हाँ पिछले साल और दो ट्राली ईंटे जरूर मंगवा ली गईं थीं। पर वे वैसे ही पड़ी थीं तब से। कहीं बरदेखुवा इसी बात पर ही रिश्ता जोड़ने पर पुनर्विचार न करने लगे जो कि अभी तक पूरे मनोयोग से फँसा हुआ लग रहा है? अचानक खुद को और मामले को भी संभालते हुए दादा जी बोल पड़े, ‘आपके दिखावै कै याद नाहीं पड़ा। वहीं कोल्हार के पीछे वाली जमीन पर नवा घर बनावै कै विचार है। नींव पड़ि चुका है, कुछ ईंट-मोरंग भी मंगाय उठा है। बस गन्ना पेराई के बाद उहीं में जुटै का है। भगवान चहिहैं तो अगिला स्वागत आपकै उहीं कइ जाई।’
बरदेखुवा की आँखें खिल गईं। वह खुशी को बिना छुपाए हुलसते हुए बोला, ‘अब बताओ, इहै एक कमी उहौ पूर होइ गय। अउर का चाहीं। ईस्वर नीक जगहीं भेजि दिहिस। पिछले बरस से भटकित है….कहूँ घर नीक तो बर नाहीं अउर बर नीक तो घर नाहीं। इहाँ तो दूनौ संपन्न….जब सुरू होइगै तो बनी जाई।’ वह इस नई सूचना पर गदगद था और दादा जी मामला संभाल लेने की अपनी चतुराई पर। दादा जी का मानना था कि ‘एक बार रिस्ता होइ जाय पर चाहे अगिले दस बरस घर न बनि पावै तो भी का से’। ‘भइल बियाह मोर करबो का’ यही कहावत सोच वहाँ उपस्थित घर के सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कान तैर गई।
     इस बीच रात के भोजन का समय हो गया। आतिथ्य में डूबे दादा जी का व्यवहार पूरी तरह से बदला हुआ था। उनकी कड़क आवाज पूरी नरम हो चुकी थी। भाषा तो इतनी मीठी और बदली हुई कि बरदेखुवा क्या कई बार हमें ही समझ नहीं आ रही थी। वह बदन को सिकोड़ते हुए पहले हाथों को जोड़ने के करीब लाए फिर चौके कि तरफ उन्हें मोड़कर इशारा करते हुए बोले, ‘चलिए, पाय लेल जाय।’ खैर न बरदेखुवा और न ही उपस्थित अन्य सदस्यों को यह बात समझ आई तो स्पष्ट करने के लिए बोले, ‘भोजन तैयार होइ गा है। चलिए भोजन कइ लीन जाय।’ बाप रे! कौन न मर मिटे इस मिठास पर। बरदेखुवा ने हाथ-पैर धोने के लिए पानी की माँग की तो हम बच्चों को दौड़ा दिया गया। मैं, मेरी ही हमउम्र के बड़ी अम्मा के लड़का-लड़की और सबसे छोटे चाचा भी….हम चारों बच्चे आज बस इशारों पर नाच रहे थे।
आने वाली शादी में खाने के लिए मिलने वाली मिठाई, नये कपड़े और बारात में जाकर मस्ती करने का अवसर सब सोचकर ही हम सब रोमांचित हो रहे थे। खैर, पानी लाकर बरामदे के बाहरी कोने में रख दिया गया। हममें सबसे समझदार छोटे चाचा ने लकड़ी की छोटी चौकी भी जिसे पीढ़ा कहते थे, लाकर वहाँ रख दिया। सब कुछ बारीकी से देख रहे बरदेखुवा ने इस बात के लिए छोटे चाचा को अलग से शाबाशी दी। बोला, ‘मिसिर जी आपकै छोट लरिका बड़ा संस्कारी है। एकर बियाह बहुत नीक बिटिया से करइबै हम।’ सब हंस पड़े और चाचा शर्मा कर अंदर भाग गये। इससे पहले कि बरदेखुवा हाथ-मुँह धोकर कुल्ला करता, दादी ने हाथ-मुँह पोंछने के लिए पिछले साल से संभाल कर रखा नया अंगोछा बाहर भिजवा दिया। यह सब हम बच्चों के लिए बड़ा अलग किस्म का अनुभव था। आखिर इतनी उदारता और सदाशयता हर वक्त क्यों नहीं दिखती थी लोगों में?
      चौके में सबसे चौड़े पीढ़े पर बरदेखुवा को बिठाया गया और बगल के पीढ़े पर दादा जी बैठे। पानी भरे लोटे और गिलास पहले से ही हर एक के लिए रख दिया गये थे। आज बड़े दादा जी भी इधर ही भोजन करने के लिए आमंत्रित थे। वह दादा जी के बगल में ही बैठे। अक्सर कुछ खास मौकों पर आपसी एकता और मिलनसारी दिखाने को यह तरकीब अपनाई जाती रहती थी। बड़े दादा जी की बहू यानी मेरी बड़ी अम्मा भी भोजन बनाने और परोसने में माँ के साथ लगी हुईं थीं। लेकिन वह लगीं एक और काम में थीं और वो था बरदेखुवा को पहचानने का काम। जबसे उन्होंने सुना था कि बरदेखुवा का ननिहाल उनके नइहर में है वो बार-बार दरवाज़े की आड़ से उसे देखने और सुनने की कोशिश कर रहीं थीं। अभी तक ठीक से देख तो नहीं पाईं थीं पर आवाज़ सुनकर अपने दिमाग पर कुछ जोर दिए जा रहीं थीं।
बैठके में परदे की प्रथा के कारण और अंजान लोगों के होने से उनका वहाँ आना वर्जित था। इसलिए मन मसोसकर रह जातीं थीं। उन्हें लग रहा था कि न जाने क्यों कुछ पहचानी आवाज़ है। पर वह निश्चिंत नहीं हो पा रहीं थीं। खाना परोसने के वक्त का ही वह इंतजार कर रहीं थीं क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वही मुफ़ीद समय होगा पहचान का। इस समय हम बच्चों को खास हिदायत दी गई कि चौके से थोड़ी दूर ड्योढ़ी में ही रहें, वहीं से देखें और वहाँ न आएं। जिससे कोई परेशानी न खड़ी हो। हममें से एक की ज़िम्मेदारी खाने के बाद हाथ धुलवाने को दी गई, जो बाल्टी भर पानी में मग डाले वहीं खड़ा होकर इंतजार करने में लगा था।
    भोजन परोसा गया। बड़ी-बड़ी थालियों में एक ओर चावल, उसके किनारे दो-तीन तरह की खटाई-अचार और तीन कटोरे रखे हुए थे। एक कटोरे में तड़का लगे अरहर की खास दाल, एक कटोरे में आलू-गोभी की लजीज सब्जी और तीसरे में बिना मथी मलाईदार दही ऊपर तक झाँक रही थी। साथ में रखे एक प्लेट में प्याज, मूली का सलाद और बरिया रखा हुआ था तो दूसरे प्लेट में गरमा-गरम घी लगी ताम्बई रोटियाँ महक रही थीं। बरदेखुवा की थाली के साथ दादा जी और बड़े दादा जी की थालियाँ भी उतनी ही समृद्ध और संपन्न थीं।
बरदेखुवा, दादा जी और बड़े दादा जी, सभी ने जल आचमन और गऊ ग्रास निकालकर भोजन करना शुरू किया। अक्सर ऐसे ही मौकों पर यह धार्मिक कृत्य होते हुए मैं देखता था। वरना तो दादा जी कहना था कि, ‘आदमी कै खाना औरत कै नहाना’ जितना जल्दी हो उतना सही। और इस जल्दी के काम में देरी पैदा करने वाले इन धार्मिक और पवित्र रस्म अदायगी को भी अक्सर छोड़ दिया जाता था। पर आज मौका भी खास था और बरदेखुवा भी उन्हीं की टक्कर था। 
     बरदेखुवा ने खाते वक्त भी अपनी बातों का पिटारा खोले रखा। शुरुआत उसने खाने की प्रशंसा से की। वह जितने निवाले मुँह में डालता तारीफों के पुल बाँधता। माँ और बड़ी अम्मा की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘हमार दूनो बिटिया घर-बार के काम में दच्छ हीं लेकिन एतना मीठ खाना तो नाहीं बनाय पउतीं। बिटिया तोहरे लोगन के साथ सीख जइहैं….बोलव सिखाय देबू न?’ सुनकर माँ जहाँ खुश होकर घूंघट से ही बोली, ‘धन्यवाद बाऊ जी…काहे नाहीं। सभै धीरे-धीरे सीख जात हय।’ वहीं बड़ी अम्मा ने घूँघट को ऊपर खींच कर थोड़ा छोटा कर लिया। वह और भी ध्यान से बरदेखुवा को निहारने लगी।
बरदेखुवा बड़े मन से खाता रहा और इधर-उधर की बातें भी करता रहा। खाना खत्म होते-होते  उसने लम्बी डकार लेते हुए कहा, ‘मिसिर जी, लम्मा खोज के बाद हम्मै अपने मन माफिक घर-दुवार अउर बर मिला है। हम्मै आपके परिवारो बहुतै नीक लाग। आपके घर कै औरतें भी लच्छमी लगीं। हमार दूनो बिटिये इहाँ सुखी रहिहैं, ई हम्मै बिस्वास है….चला हाथ धुलवावा जाय।’ पर इससे पहले कि वो बरदेखुवा उठने के लिए हिलता बड़ी अम्मा घूँघट पूरी तरह हटा सामने आकर खड़ी हो गईं। दादा जी और बड़े दादा जी दोनों उनके इस व्यवहार पर हैरान रह गये। दादा जी तो दाँत कटकटाने लगे। पर इससे पहले कुछ कहते-पूछते, बड़ी अम्मा बोल पड़ी, ‘तूं बाले मामा होव ना? चन्नपुरवा वाली चाची कै भाई?’ 
     अब चौंकने की बारी बरदेखुवा की थी। अपनी इतनी महीन पहचान को उजागर हुआ देख वह हतप्रभ हो गया। अचकचाकर बस इतना बोल सका कि, ‘तुहैं कइसे पता बिटिया?’ बड़ी अम्मा थोड़ा और तेजी से बोली, ‘हम्मैं नाहीं पता होई। चन्ननपुरवा वाली चाची थुमवा में हमरै सग पटीदार होयं। तूं एक-एक महीना आय कै उहीं रहत रहेव….हम छोटै रहेन तब….हम नाहीं जानित का….ऊ तो पंद्रह-बीस साल होइ गय रहा देखे इहीं वजह से चीन्है में टैम लाग।’ इस बार तो बरदेखुवा का जैसे हलक ही सूख गया हो। वह कुछ न बोल सका। सब लोग हतप्रभ हो कभी बरदेखुवा का मुँह देखते कभी बड़ी अम्मा का। बड़ी अम्मा ही बोलने में लगी रहीं, ‘ई बताओ, बर केकर देखत हौ? तोहार तो बियाहै नाहीं भा है, भला बिटिया कहाँ से आय गई?’ ये तो पूरा वज्रपात था, न केवल बरदेखुवा के ऊपर बल्कि हमारे परिवार के ऊपर भी। खासकर दादा जी तो पूरे विचलित से हो गये इस बात पर। बरदेखुवा का मुँह इस उम्मीद में ताकने लगे कि वह कह दे कि ये सब गलत है, या वो वह है ही नहीं जिसे समझा जा रहा है। पर बरदेखुवा पक्का खिलाड़ी था।
शुरुआती घबराहट-हिचकिचाहट को संभालकर बोला, ‘का अपनै जन्म दिही बिटिया आपन बिटिया कहाई? हमरे भाइन कै बच्चे हमार बच्चे नाहीं होयं?’ यह बड़ा जबरजस्त पलटवार था। टूट रहे विश्वास की डोर को बरदेखुवा कुछ गाँठ के साथ ही सही फिर जोड़ गया। वह आँखों को नम करते हुए बोला, ‘भउजी के मरै के बाद भइया दूसर बियाह नाहीं किहिन। उहीं बिटियन कै मुँह देखि कै जीवन गुजारि लिहिन। हमहूं आपन खून समझि कै पालेन-पोसेन। हमार बियाह नाहीं भय रहा तो ठीकै रहा। दुसरे घर कै बिटिया कहाँ हमरे बिटियन कै महतारी बनि पावत।’ बरदेखुवा की मार्मिक कथा में जहाँ सब बहते जा रहे थे, वहीं बड़ी अम्मा के इस अवांछित दखल के प्रति दादा जी, दादी जी और दूसरे बड़े भी मन ही मन उन्हें कोस रहे थे। 
बरदेखुवा माहौल में अपने गाढ़े होते रंग को भांप कर अंतिम और अपने इकलौते बड़े अस्त्र को जुबान से फेंकते हुए बोला, ‘हम बाप ही नाहीं महतारी बनि कै पालेन है अपने बिटियन का। अउर सुनौ! महतारी बेचि कै बियाह करित हय। अंगूठा एतना मोट सोने कै चैन अऊर बिन नग कै अंगूठी पहिलै दुल्हा लोगन खातिर बनवाय लिहेन हैं।’ उसके इस स्वर्ण बखान से दादा जी की जैसे डूबती नाव फिर लहर पर सवार हो गई। बोले, ‘अरे तिवारी बाबा, ई तौ कम बुद्धि हय। जउन मन में आवत है बकि देत ही।
माफ करौ, मन में न धरौ कउनौ बात।’ बाहर आकर लगे हाथ उन्होंने हाथ धोते-धुलवाते हुए नुकसान पूरक मंत्र के तौर पर बरदेखुवा के कान में फूंका, ‘ई बड़के भाई कै बहू होय। अब आप जानै जात है कि बाँटा भाई पड़ोसी बराबर….नाहीं चाहत ही कि हमार-तोहार बात बनै।’ बरदेखुवा ने न जाने अपने दांव की सफलता पर गहरी साँस ली कि मेजबान की सांत्वना और पुचकार पर। दादा जी ने भी बरदेखुवा के मुँह पर आई आश्वस्ति को पढ़ते हुए थोड़ा ऊँचे आवाज में कहा, ‘आपके हम पसंद, आप हम्मैं। एकरे अलावा अउर का चाहीं। चला जाय बिस्तर लगि चुका है आराम किया जाय।’
    वार-पलटवार के दांव चल चुकने के बाद अब बरदेखुवा को भी चुपचाप बिस्तर पर मौन साधे पड़ जाने में ही भलाई दिखी। उसने हाथ पर पानी डाल रहे छोटे चाचा से कहा, बिटवा, फूले के लोटा में पानी लाय कै सिरहाने धय देव। रात में पियास लगी तो उहीं में पीबै। स्टील-लोह-अलमुनियम कै बर्तन में राति में पानी नाहीं पीयै के चाहीं, बिमारी होइ जाला।’ दादी जी ने फौरन एक बड़े पीतल के लोटे में पानी भरवा कर भिजवा दिया जिसे ढककर वहीं सिराहने खाट के नीचे रख दिये गया। 
       पर चौके में हुई बात से भले ही उस समय दादा जी बड़ी अम्मा पर नाराज हुए थे, लेकिन उनके मन में भी शंका ने जन्म ले लिया था। मन में यह बात कि ‘बरदेखुवा तो गैर शादीशुदा और बिना बाल-बच्चे वाला है’ बार-बार आ जाती। पर साथ ही उसका जोरदार और भावुक जवाब भी उतनी ही बार मन में कौंध उन्हें संभाल लेता। फिर भी उन्होंने एहतियात बरतते हुए बड़े चाचा से अकेले में कहा कि, ‘पता नाहीं बियाह होई कि नाहीं लेकिन अगर ई ठग होई तो रात में फूल कै लोटा जरूर लइ कै भागि जाई।’ उन्होंने लोटे की सुरक्षा के लिए बरामदे में अपना खाट बरदेखुवा के बगल में यह सोचकर बिछवा लिया कि ‘एक राति कउनो पहाड़ नाहीं होय कि कटी नाहीं। जागि कै गुजरि जाई। जो राति-बिरात बरदेखुवा लोटा, बिस्तर-चद्दर लैके भागै कै कोसिस करी तो लठ्ठ बजि जाई।’ 
    खैर ऐसा हुआ नहीं। लेकिन बरदेखुवा सुबह उतना मुखर नहीं लग रहा था। सुबह-सुबह ही वह यह बात कहकर जल्दी जाने की रट लगाने लगा कि ‘धूप होय जाई तो राही में दिक्कत होइ जाई।’ दादा जी घर में जल्दी अच्छा नाश्ता बनाने को कहकर बरदेखुवा को शौच निवृत्ति के लिए खेतों की ओर लेकर गये। हालाँकि रात के मुकाबले बरदेखुवा भले ही कुछ अनमना लग रहा था फिर भी बातचीत कर रहा था। अपने अलावा पड़ोसियों के खेतों के एक-आध चक भी अपना ही बताकर दादा जी ने बरदेखुवा को दिखाया। बरदेखुवा ने खेतों और उसमें खड़ी फसलों का मुआयना कर घोषित किया कि, ‘ई गाँव में माटी नाहीं सोना है सोना। आप लोगन कै महतारी बहुतै जानदार और वजनदार ही। एकां खरीदै कै कुब्बत केहू में नाहीं है।’ 
घर आकर बरदेखुवा ने झटपट नाश्ता कर अपना झोला संभाला। दादा जी ने झोले में दो-तीन किलो ताजी भेली रखवा दी। उसने जाते-जाते आश्वस्ति देते हुए कहा, ‘अगिला पूरनमासी सुभ दिन होय। उहीं दिन आपन कुछ भाई-पटिदार लइकै हम रिस्ता तय करै खातिर अइबै। उहीं दिन अंगूठी पहिराय कै फर-फलदान होइ जाई। फिर हरि इच्छा से इहीं साल बियाहौ कइ लीन जाई। बोलव का कहत हौ?’ दादा जी तो कबसे कुछ ऐसा ही सुनना चाहते थे। हुलसित होकर बोले, ‘जरूर तिवारी जी जरूर। जब भगवानै कै इच्छा इहै हय तो हम-तू कइसै रोकि पइबै होनी।’ दादा जी ने बड़े चाचा जी को फरमान सुनाया कि, ‘सइकिल से तिवारी जी को गाँव के बहरे तक छोड़ि आवो।’
जाने के बाद जब दादी जी ने ताना मारा कि ‘राति में तो ठग कहत रहेव अउर एहिं टेम सइकिल से छोड़वाय रहेव हौ?’ तब दादा ने फिर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय देते हुए कहा कि, ‘गाँव में कलै से बरदेखुवा कै चरचा है। अकेल पाय केऊ भी भड़काय कै बियाह तुरवाय देई। जरै-मरै वाले गाँव में कम थोड़ै हैं।’ दादी को यह सुनकर जहाँ अपनी कम बुद्धि पर तरस आया वहीं दादा जी की बुद्धिमानी पर गर्व का भान भी हुआ। ये अलग बात है कि बहुत इंतजार के बाद भी वह पूर्णमासी तिथि कभी नहीं आई। इसके बाद दादा जी बहुत दिनों तक उखड़े रहे। रह-रह कर दबी जुबान से बड़ी अम्मा को भी दोष देते रहे।
     कुछ दिनों बाद बड़ी अम्मा के भाई यानी मामा जी घर आए। उनसे जब उस बरदेखुवा का जिक्र किया गया तो पहले तो वह हँस पड़े, फिर बोले, ‘अरे ऊ बालेसर बहुत झुठ्ठा आदमी है….ऊ हर बरस बियाह खोजै के बहाने लगन महीना में गाँव-गाँव घूमि-फिरि खात-पीयत है। चाची के घरे तो महिनों डेरा डारे पड़ा रहत रहे, लेकिन वनकै बड़ा बेटवा जबसे भगाय दिहिस तबसे नाहीं अउते।’ उन्होंने यह भी बताया कि शादी-ब्याह न होने के कारण वह अपने बड़े भाई के परिवार के साथ ही रहता था। पहले तो उसका मान-सम्मान था। बाद में तो दो वक्त के भर पेट भोजन के लिए भी भाई का परिवार उसे तरसाने लगे। उसका कुछ हिस्सा तो उन्होंने पहले ही उससे बहला-फुसलाकर बेचवा दिया था और सारा रूपया-पैसा धीरे-धीरे ऐंठ लिया था। अब बाकी बचे हिस्से पर भी उन्होंने कब्जा जमा लिया है।
बहुत लड़ाई-झगड़े के बाद वह अब गाँव के बाहर जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर मड़ई बनाकर रहता है। जब अच्छा खाने-पीने का मन कर जाता है तो ‘बरदेखुवा’ बन कर निकल पड़ता है और कुछ दिन बाद ही घर लौटता है। मामा जी की बातें सुनकर हममें से कई लोग बुढ़ापे में यह दुर्दशा झेल रहे उस आदमी के प्रति सहानुभूति से भर गये। उसके हुलिये, बातों और व्यवहार का उसके जीवन से संबंध हमें साफ दिखाई देने लगा था। कपड़ों का मटमैला व गंदा होना, बातों में जमीन बिकने पर अफ़सोस जताना, बड़े चाव से भोजन खाना और झूठ में बड़े भाई के परिवार को शामिल कर बदनाम करना सब उसके एकाकी, प्रेम रहित, निराश्रित जीवन से उपजे दुख का प्रदर्शन ही तो था।  
      मामा जी ने उससे सहानुभूति जताते हुए दादा जी को यह भी कहा कि, ‘ई समझा जाय कि ऊ अपने बड़े भाई औ परिवार कै नाम लइकै वनसे बदला लेत है औ बदनाम करत है। वोकर भउजी भी जिंदा हीं, पर सतावै में सबसे आगे हीं….गलत तो भइबै किहा वकरे साथे। हमरे गाँव में चाची सब बात बताये हीं हम सबके।….वइसे आप सुकर मनावा जाय कि कुछ चोरी कइकै न लइगै….कइव जगह से तो समानौ उठाय लइ जात है।’
पर दादा जी बालेसर के साथ हुए अन्याय से नहीं अपने साथ हुए थोखे पर ज्यादा दुखी थे। वह अपने बेटों को ब्याहने में मिली इस विफलता और मोटा दहेज मिलने की उम्मीद के यूँ टूट जाने से उदास थे। पर मामा जी की कही एक बात उनकी इस पीड़ा को कम करने का काम कर रही थी। उनका यह कहना कि वह बरदेखुवा बनकर जहाँ जाता है वहाँ से चोरी भी कर लाता है, उनके मन में उतर गई।
उन्हें लगा कि उनकी ही बुद्धि से फूल का लोटा उस दिन बचा। यदि वह पूरी रात न जागते तो शायद बरदेखुवा लोटा लेकर चंपत हो जाता। अब दादा जी इसी सफलता का बखान करके घर वालों के सामने अपनी समझदारी का प्रदर्शन करने लगे। ऐसा करके शायद वह अपनी खीझ कम करते और गम भुलाते थे। इसके बाद एक बात और हुई थी घर में। और वो थी बरदेखुओं के भव्य सम्मान में आई थोड़ी कमी। अब उनको सामान्य आगंतुक मानकर ही आतिथ्य दिया जाता था। 

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