Wednesday, September 18, 2024
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अमित कुमार मल्ल की कविता – वक़्त के इशारे

चटक रहा है
चट्टानों में
पहाड़ों में
मेरे भीतर
वक्त के इशारे
मैं समझ रहा हूं
मैं सुलझा रहा हूं
वक्त के इशारे
वक्त को टुकड़े करके
जिंदगी सासें ले रही है
चल रही है
न नासमझ वक्त है
ना नासमझ मैं हूँ
दोनो जिए जा रहे हैं
नियति के हवाले
अमित कुमार मल्ल
अमित कुमार मल्ल
कई काव्य-संग्रह और पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां-कविताएँ प्रकाशित. सम्पर्क - [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. हमें तो लगता है कि नियति ही वक्त बनकर हमारे सामने आती है अमित जी। अगर हम लिखते तो हम इसको इस तरह लिखते-
    चटक रहा है
    चट्टानों में
    पहाड़ों में
    मेरे भीतर
    वक्त ।
    मैं समझ रहा हूं
    वक्त के इशारे
    और उलझ रहा हूं।

    वक्त के टुकड़े करने की कोशिश में
    जिंदगी सासें ले रही है,
    चल रही है।

    यह वक्त है
    और नासमझ मैं भी नहीं
    दोनो जिए जा रहे हैं
    नियति के हवाले
    चैलेंज की तरह।
    वक्त को नासमझ कहने वाली बात समझ में नहीं आई।

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