हमें तो लगता है कि नियति ही वक्त बनकर हमारे सामने आती है अमित जी। अगर हम लिखते तो हम इसको इस तरह लिखते-
चटक रहा है
चट्टानों में
पहाड़ों में
मेरे भीतर
वक्त ।
मैं समझ रहा हूं
वक्त के इशारे
और उलझ रहा हूं।
वक्त के टुकड़े करने की कोशिश में
जिंदगी सासें ले रही है,
चल रही है।
यह वक्त है
और नासमझ मैं भी नहीं
दोनो जिए जा रहे हैं
नियति के हवाले
चैलेंज की तरह।
वक्त को नासमझ कहने वाली बात समझ में नहीं आई।
हमें तो लगता है कि नियति ही वक्त बनकर हमारे सामने आती है अमित जी। अगर हम लिखते तो हम इसको इस तरह लिखते-
चटक रहा है
चट्टानों में
पहाड़ों में
मेरे भीतर
वक्त ।
मैं समझ रहा हूं
वक्त के इशारे
और उलझ रहा हूं।
वक्त के टुकड़े करने की कोशिश में
जिंदगी सासें ले रही है,
चल रही है।
यह वक्त है
और नासमझ मैं भी नहीं
दोनो जिए जा रहे हैं
नियति के हवाले
चैलेंज की तरह।
वक्त को नासमझ कहने वाली बात समझ में नहीं आई।