सड़क किनारे दिख जाते हैं
मौली के धागे से लिपटी मटकियाँ और घड़े
पीपल के पैरों में सभी आड़े-तिरछे, लुढ़के पड़े
किन्हीं पूर्वजों के स्मृति चिन्ह -शायद श्राद्ध में समर्पित
वंशजों की श्रद्धांजलियाँ।
मान्यता के धागों में लिपटे, जकड़े खड़े मौन बरगद
और इन पावन पेड़ों की जड़ों को अर्पित
देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियाँ
और साथ में कुछ फ्रेम-जड़े, फटे-पुराने धार्मिक चित्र।
साथ ही में कभी दिख जाते हैं
घरेलू एल्बमों से निष्कासित या दीवारों से अवतरित
किन्हीं स्वर्गीय पितरों के स्मरण
और उनके मिटे अस्तित्व के बचे बेकार से प्रमाण।
यह सब दिखा जाते हैं बरबस बिसरी विरासत के प्रदर्श भी,
वह सब जीवित अवशेष-
घर के अंधेरे कोने में अभी बिस्तर से बंधे या
बाहर निकाले गए भगवान यूं ही जो भटकते हैं सड़कों पर
या जिन्हें छोड़ आए वृद्धाश्रम।
देख कौओं को बैठे
बरसाती पानी भरे उन मटकों पे चोंचे गड़ाए
दुविधा चली आती है साथ
क्या यह पूर्वज हैं उनके या वंशज ही खुद बैठे हैं
विरासत को नोचते।
Heartouching poem,presents a realistic picture of socitey.Regards
Very beautifully written ❤️✨
भावपूर्ण कविता, जिन्हें जिया जा रहा है, वे शब्दों की सीमा में बँधकर धरोहर बन गये
साधुवाद।