Saturday, July 27, 2024
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दिव्या शर्मा की कविता – प्रतीक्षा… एक खिड़की के खुलने की

युगों से बंद हूँ मैं
समाज के कारावास में
जिसका विस्तार मेरी धरती से
उसकी धरती तक है
विश्व के मानचित्र पर
यह कारावास नजर नहीं आता लेकिन
इसका विस्तार विस्तृत है।
इस कारावास की खिड़कियों पर
जड़ दिए गए हैं परंपराओं के ताले
जिनकी चाबी मुझे सौंप दी गई है यह कहकर कि
यह जिम्मेदारी है तुम्हारी जिसे धारण करना है आभूषण की तरह।
यह चाबी कभी सुगंध बिखेरती है और कभी दुर्गंध
इसकी दुर्गंध की तीव्रता इतनी तीक्ष्ण है कि
सुगंध को कर दिया है रोगयुक्त।
यह कारावास मौजूद है उस वन में भी
जहाँ रहती हैं अर्धनग्न कुछ मानव देह
सभ्यता से दूर यह देह नहीं जानती
समय के बदलाव को लेकिन
जानती हैं स्त्री की देह को कैसे बांध देना है परंपरा के साथ।
यह कारावास विकसित देशों में भी है
जहाँ स्त्री शिक्षित है और जागरूक भी
किन्तु यह जागरूकता अभी भी पीछे है
समाज में रहने वाली आधी दुनिया से
गाँव और शहरों के बीच घुटन भरे यह कारावास
जिन्दा हैं आज भी
मैं इंतजार में हूँ कि कभी खुलेगी एक खिड़की
उस आकाश में जहाँ से मैं झांक लूंगी बेखौफ
और छू सकूंगी उन उड़ते बादलों को
जो मेरे लिए भी जल बरसाते हैं
मैं स्पर्श करना चाहती हूँ उस हवा को
जो मेरे श्वास में सम्मिलित हो
मुझे रखती है जीवित
लेकिन मैं नहीं रहना चाहती
समाज के इस कारावास में
जहाँ मेरी देह बना दी जाती है
क्रीडा स्थल।
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