राम….
तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
तुम सत्य, शील और सौंदर्य की मूर्ति
तुम धर्म
तुम आराध्य
तुम सूर्यवंशी
तुम प्रिय पुत्र
तुम आज्ञाकारी
तुम प्रिय भाई
तुम जानकी प्रिय
तुम प्रजा हितैषी
तुम भीलनी के जूठे बेर खाने वाले
तुम वन, उपवन, जंगल, नदी, पर्वत दर-दर भटकर अपनी मृगनयनी को खोजने वाले ..
तुम वैदही वियोगी ‘राम’
तुम निज दुख समेटे हुए
तुम निज जानकी के लिए युद्धरत ‘राम’
तुम जानकी के लिए स्वर्ग का राज्य भी ठुकराने वाले
तुम रावण संहारक …
और तुम
‘अग्नि परीक्षा’ उत्तरदायी
तुम ‘जानकी परित्यागी’
तुम अपनी ही रानी को दर दर की ठोकरें खिलाने वाले
हो ना राम !!
हे राम !
तुम राजा
तुम शोषक
तुम पीड़ित भी
मन आज तुम्हारे भीतर उतरना चाह रहा है
तुम्हारी मनोदशा जानना चाह रहा है …
क्या प्रिय जानकी का त्याग आसान होगा तुम्हारे लिए?
क्या राजीव नयन भर भर ना आएं होंगें?
एक पति और राजा के बीच कितना अंतर्द्वंद सहा होगा तुमने
क्या आसान होगा अग्नि परीक्षा के उपरांत भी जानकी को निर्वासित करना?
ये कहना कि हे प्राण प्रिया, तुम्हें अपनाना , महल में रखना मेरे लिए दुसाध्य है।
क्या जानकी के नेत्रों से छलकते अश्रु ‘राम’ ने बस यूं ही
दरकिनार कर दिए होंगें?
राम एक व्यक्तिगत ईकाई के साथ साथ राजा भी हैं
तो क्या राजधर्म आड़े ना आया होगा ?
पर, राम पति भी तो हैं
पत्नी के प्रति प्रेम और धर्म ना उमड़ आया होगा।
क्या समाज के लांछनों से आहत थे तुम भगवान ‘राम’
राम आज तुम्हें कठघरे में खड़ा कर प्रश्न पूछें जा रहें हैं …
ओजस्विनी, महायोगिनी, पवित्रा, सुंदरी सीता का निर्वासन
क्या राम के राज्य में न्याय था
आज रावण के द्वारा सीता अपहरण की निंदा कम है
‘उसण वा उठाई हुई सीता ना सताई और थमण यों के करा वा ए सीता आग पै बैठाई’
जैसे तीखे स्वर अधिक है।
मतलब आप जबरन उठा लो बस जबरदस्ती ना करो?
नई पीढ़ी रावण से नहीं राम से खफा है….
लोग रावण के शाप को भूल गए हैं कि
कैसे वो बलात संबंध बना लेता उसका सिर टुकड़े टुकड़े ना हो जाता।
राम ! राम! हे राम !
तुम क्या इतने कठोर थे?
इतने निर्दयी
इतने अन्यायी
इतने संदेहाकुल
अपने ही वंश के दुश्मन तो नहीं हो सकते ‘राम’
अपनी प्राणप्रिया के प्रति प्रेम क्या एकदम तिरोहित हो गया था तुम्हारा
जबकि सीता हरण के समय वन -उपवन, नदी पर्वत पशु पक्षी सब साक्षी थे
तुम्हारे नयनों से बरसते दुख के
फिर ऐसा क्या हुआ चक्रवर्ती सम्राट ?
राम समाज कल भी प्रश्न उठाता था और आज भी प्रश्न ही उठाता है।
आज तुम्हारा और जानकी का प्रेम संबंध संदेह के घेरे में है
तुम आहत तो होगे ना ‘राम’
राम बार बार तुमसे ही प्रश्न पूंछें जाएंगे
सीता की अग्नि परीक्षा के बाद भी तुमने क्यूँ समाज की आवाज़ सुनी ?
राम कुछ कहो ना…
मैं एक राजा,
मैं एक पति
मैं धर्म
मैं सत्य
मैं जानकी प्रेमी कैसे अपनी जानकी को निर्वासित कर सकता था ?
भला कोई सूर्य से रश्मि, वायु से वेग, अग्नि से दहकता, जल से प्रवाह छिन सकता है क्या ?
ये भी तो संभव है कि कथा रचयिता की बौद्धिक जुगाली हो…
बार बार सुनकर और देखकर झूठ भी सच ही प्रतीत होने लगता है
मैं अपनी सीता का परित्याग नहीं कर सकता।
स्त्री है इस सृष्टि की पालन हारा
वह अर्धांगिनी
वह जननी
वह मानवी
वह प्रकृति
मैं उसका त्याग नहीं कर सकता।
मैं उसे निर्वासन नहीं दे सकता।
