मां जैसे बच्चे को पालती, वैसे ही प्रकृति करती मनुष्य का संचार
मगर मनुष्य एहसान फ़रामोश बनता जा रहा,
कर रहा अपनी मां पर अत्याचार.
पूरे ब्रह्मांड में जीव सिर्फ़ इस धन्य धरोहर धरती पर,
हवा पानी मिट्टी के ख़ज़ाने को मगर लूट रहा इंसान सदांतर.
प्रकृति की देन फूल फूल, पत्ती पत्ती, डाली डाली, पेड़ पेड़
लालची इंसान मगर कदर न करता, करता सिर्फ छेड़ छाड़.
सिंचाई सिंचाई, खुदाई खुदाई, कुरेद कुरेद, धरती को करते जा रहा छल्ली
विनाश होता जा रहा, न बच पा रहा जंगल का शेर न समंदर की मछली.
गलत तरकीबों से उत्पादित हो रहा मास अनाज और दूध
यही अब हमें कर रहे बीमार क्योंकि इंसान भूला सुध.
हजारों टन कूड़ा तू समुन्दर में बहाता
लाखों वृक्षों व पशुओं का हरण करता जाता.
क्रोधित हो के कभी ज्वाला उगलती, कहीं नाराज़ हो कर हिल हिल जाती
कहीं ठंड और बर्फ तो कभी तेज़ हवा की चीख़ों से ये मां दुख बतलाती.
प्रकृति पे ज़ुल्म बहुत हो गया अब बस करो, बस करो
संरक्षण की राह पर चलो, पाप का घड़ा और मत भरो, मत भरो.
कोयले खनिज और तेल की होड़ में इंसान अब अधिक मत बहक
वरना कल का बच्चा, न जान पाएगा पक्षियों की चहक न फूलों की महक.
आज की नहीं, आनेवाली पीढ़ियों के भविष्य का सोचो
फटते जा रहे प्रकृति के आंचल को और मत खींचो..मत खींचो..मत खींचो……
Vow.. Kavayitri Jazmine… Wonderful poetry. very well expressed your views toward misbehavior of human being against
…..mother nature.. CONGRATULATIONS..
Harish .. Kirtida