जीवण की तरूणाई वाली सुबह
पिता हट्टे- कठ्ठे थे।
गबरू और जवान
उनकी एक डाँट पर
हम कोनों में दुबक जाते
उनका रौब कुछ
ऐसा होता जैसे तूफान के बाद का सन्नाटा
दादा जी और पिताजी की शक्ल
आपस में बहुत मिलती थी l
जहाँ दादाजी, सौम्य, मृदु भाषी थें
वहीं..पिता, कठोर ..
कुछ समय बाद दादाजी
नहीं रहे ..
अब, पिता संभालने लगे घर
जो, पिता बहुत धीरे से
हँसते देखकर भी  हमें डपट देते थे
वही पिता, अब हमारी, हँसी और
शैतानियों को नजरअंदाज करने लगे
धीरे – धीरे पिता कृशकाय होने लगे
वो, नाना प्रकार के व्याधियों से
ग्रसित हो गये…
बहुत, दुबले -पतले और कमजोर
पिता कुछ- ज्यादा ही खाँसनें लगे
बहुत- बाद में हमेशा हँसते-मुस्कुराते
रहनेवाले पिता और घर के सारे फैसले अकेले
लेने वाले पिता
अब खामोश रहने लगे
वे अलग -थलग से अपने कमरे में पड़े रहते
उन्होंने अब निर्णय लेने बंद कर दिये थे…
अपनी अंतिम अवस्था से
कुछ पहले
जैसे दादा जी को देखता था
ठीक, वैसे ही एक दिन पिताजी
को मोटर साइकिल पर कहीं बाहर
जाते
हुए  पीछे से देखा
हड्डियों का ढ़ाँचा निकला हुआ
आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा
मुझे पता नहीं क्यों  ऐसा ..लगा
दादाजी के फ्रेम में जड़ी
तस्वीर में  धीरे – धीरे  परिणत होने लगें  हैं..पिता ..
महेश कुमार केशरी झारखण्ड के निवासी हैं. कहानी, कविता आदि की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अभिदेशक, वागर्थ, पाखी, अंतिम जन , प्राची , हरिगंधा, नेपथ्य आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. नव साहित्य त्रिवेणी के द्वारा - अंर्तराष्ट्रीय हिंदी दिवस सम्मान -2021 सम्मान प्रदान किया गया है. संपर्क - keshrimahesh322@gmail.com

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