होम कविता सलिल सरोज की कविता – वो बुढ़िया कविता सलिल सरोज की कविता – वो बुढ़िया द्वारा सलिल सरोज - October 11, 2020 85 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet वो बुढ़िया कल भी अकेली थी वो बुढ़िया अब भी अकेली है चेहरे की झुर्रियाँ पढ़ कर पता चलता है उसने कितने सदियों की पीड़ा झेली है पति छोड़ कर बुद्ध हो गया भरी जवानी में आँसुओं की लरी ही केवल एक सहेली है किस समाज ने किस यशोधरा को देवी माना है वही जानती है कैसे अपनी मर्यादा सम्हाली है इस टूटे और जर्जर पड़े घर के दायरे में किस तरह से अपनी बच्चियाँ पाली है कहते हैं अपनी शादी वाले दिन को उसका बदन चाँद-तारों की डाली थी हाथों में हीना की होली, आँखों में ख़ुशी की दीवाली अपने चेहरे पर उसने परियों सी घूँघट निकाली थी पूरा शहर हो गया था दीवाना उस का जो जीती जागती मुकम्मल कव्वाली थी कैसी खुश थी, कैसे हँसती-खिलखिलाती थी मानो कि उसके दामन में जन्नत की लाली थी अपना सब कुछ कर दिया समर्पण अपने देवता को बन कर गुलाम, खुद ही अपनी लाश उठा ली थी भगवान् पूजा जाने लगा और ग़ुलाम शोषित होने लगा औरतों की यह दशा भगवानों की देखी और भाली थी भगवान् मुक्त होता चला गया हर बंधन से औरत खूँटे से बँधी हुई चहार- दिवाली थी मर्द का मन नहीं रोक सकी उसकी कोमल काया अपने भगवान् के लिए वो अब अमावस सी काली थी बारिश में टपकते हुए छत के साथ वो भी रोया करती है वो अब भी उतनी ही खाली है जितनी कल तक खाली थी कुछ बच्चियाँ मर गईं और कुछ छोड़ कर चली गईं इस सभ्य समाज के लिए कहते हैं वो एक गाली है अपने भगवान् को ना छोड़ने की कसम खाई थी,सो मौत के एवज में न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ टाली हैं सूखे होंठ, धँसी आँखें , बिखरे बाल , पिचके गाल सोलह की उम्र में ही लगती बुढ़ापे की घरवाली है वो बुढ़िया कल भी अकेली थी वो बुढ़िया अब भी अकेली है संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं डॉ मुक्ति शर्मा की कविता – स्त्री प्रेम में छली जाती है विनिता शर्मा की कविता – गर कभी चर्चा चलेगी डॉ किरण खन्ना की कविता – शीरो कैफे की होली कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.