एक अंतहीन काला गहरा कुआँ था जिसमें वह डूबती जा रही थी। कुछ हाथ उसे ऊपर खींचने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वह उन हाथों से फिसलती जा रही थी। देह पर कुछ पकड़ने के लिए नहीं था, कोई किनारा कोई छोर नहीं, कि मन जब उम्मीद छोड़ देता है तो देह का आकार मायने नहीं रखता… कुएं के ऊपर कुछ साए दिखाई दे रहे थे। एक तेज़ रोशनी चमकी थी… साए सफेद पुत गए थे।
सफेद सायों की बाहें  उसे पकड़ने के लिए फैली हुई थी। कुछ साए कुएँ में झुककर उसे खींचना चाहते थे… वह नहीं समझ पा रही थी कि वह उन  हाथों में जाना चाह रही थी या उनसे छूटना चाह रही थी। न वह स्वयं गिर रही थी न उपर उठने का प्रयास कर पा रही थी, वह थी या नहीं थी, यह भी प्रश्न था! वह देह थी या एक वस्तु थी, संवेदनहीन, आकांक्षाहीन, निःस्पृह, इच्छा रहित… किसी भी समझ से परे।
कुछ और आवाज़ें थी मिली-जुली,  वह पहचान नहीं पा रही थी किसकी,  आवाजें लगातार कोई नाम पुकार रहीं थी…  शायद वह नाम उसी का था पर उस समय वह जान नहीं पा रही थी कि नाम उसका है। ना ही  खुद को उस नाम से जोड़ पा रही थी।
वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे उन आवाजों की ओर जाना है या नीचे गिरना है। शायद वह उठना ही नहीं चाह रही थी।शायद  उन आवाजों की वजह से  जो अभी  भी उलाहनों  से भरी थी। क्यों? क्या?, क्यों? क्या ?क्यों किया?… का मिलाजुला शोर उस पर हावी हो रहा था। उन  आवाजों में प्रेम नहीं था फिक्र नहीं थी…  वे उससे कुछ पूछना चाहती थी, क्या पूछना चाहती थी, क्या जानना चाहती थी वह कुछ नहीं समझ पा रही थी  उसकी चेतना शून्य थी   लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह आवाजें उसका जिंदा रहना चाहती थी… चेतना फिर शून्य हो गई थी हर ओर अंधेरा!!!
अंधेरा सुकून से पूर्ण था। अगर ये अंत था तो अंत लग क्यों नहीं रह था …. उसे कुछ भी लग रहा था मतलब अभी वो थी… वो क्यों थी, वो कभी भी क्यों हुई थी इसका उत्तर नहीं था उसके पास। उसने होने के लिए कुछ भी नहीं किया था। लेकिन जिन लोगों ने उसके होने के लिए कुछ किया था वह उसके होने पर प्रसन्न क्यों नहीं हुए थे… न होने पर और न होने के बाद।
 ****
आसपास  फिर कई आवाजें थी।  इस बार अंधेरा नहीं था… हल्का नीला प्रकाश था लेकिन बहुत चाह कर भी वह आंखें नहीं खोल पा रही थी, फिर वो उन आवाज़ों से ऊपर थी, वो नीचे भी थी वो ऊपर भी थी… वो दो कैसे हो गई थी… वह सफेद चादर में लिपटी खुद को देख क्यों पा रही थी… क्या वह अपने से जुदा हो गई थी… वह रूह थी या देह थी, नहीं अब वह देह नहीं थी, देह उससे नाराज़ हो गई थी शायद। उसका मार्ग अवरुद्ध कर रही थी। करती भी क्यों न… किसी को समाप्त करना चाहो तो वो तुम्हें क्यों आश्रय देगा। लेकिन समाप्त वह देह को नहीं करना चाहती थी। वह तो स्वयं का अस्तित्व समाप्त करना चाहती थी…
वह अस्तित्व जो कभी था ही नहीं इसलिए नहीं, कि उसकी रचना में दोनों एक्स क्रोमोसोम का मेल हुआ था। दो एक जैसे क्रोमोसोम्स के मिलने पर हुई प्रतिक्रिया ने उसकी संरचना उसकी माँ जैसी तो कर दी लेकिन रूप-रंग आकार में अपनी जन्मदात्री के समान होने पर भी वह उसके हृदय में एक कोना न पा पाई थी। वह उसके क्लेश का कारण थी और इसीलिए दूर कर दी गई थी। सारा बचपन गांव में गुज़रने के बाद जब पास बुलाई भी गई तो वह उससे बहुत दूर थी… कभी-कभी पास होना और अधिक दूर कर देता है कि जो भ्रम पाले होते हैं वे सब चकनाचूर हो जाते हैं।
उस कच्ची सी उम्र में सबके कुछ ख्वाब, कुछ अरमान होते हैं लेकिन उसके ऐसे कोई अरमान नहीं थे उसे कुछ नहीं बनना था। उसका लक्ष्य सिर्फ प्यार पाना था।
न… न… मोहब्बत वाला प्यार नहीं, माँ का प्यार। यूँ  उसे बहुत प्यार मिला था लेकिन अधूरा था कि सैंकड़ों प्यार भी माँ के आँचल का मुकाबला नहीं कर सकते। ऐसा सारे कहते रहे… वे उस पर तरस खाते रहे कि उसे माँ का प्यार न मिला औऱ वह छिप कर गाती रही – मैंने माँ को देखा है माँ का प्यार नहीं देखा
फिर भी प्रयास बहुत किए थे… निरर्थक प्रयास थे लेकिन सारे। हर बार कुछ गलत हो ही जाता था उससे।…  जब उसका होना ही गलत था तो उसका किया सही कैसे मान लिया जाता…
लेकिन इस सबके बावजूद वह थी और अब भी है, अभी है! इतने सब के बाद भी देह व्यतीत नहीं हुई। मतलब उसे रहना होगा… और रहने के लिए उसे वह देह चाहिए…
***
आवाजें पास आती थी… आवाजें दूर जाती थी…  गहरा काला अंधेरा कभी नीम रोशनी में बदलने लगता था। लेकिन अब वह गिर नहीं रही थी। वह किन्हीं हाथों में भी नहीं थी… वह उठ भी नहीं पा रही थी।  उसके हाथ पैर बंधे थे और बेतरह बिंधे थे। कई मशीनें जुड़ीं थी उसकी देह से जो सिर्फ एक चादर से ढकी थी।
चिंतायुक्त स्वर था, जिसे शायद वह पहचान पा रही थी… अनगिनत बार सुना था वह स्वर। कौन था जो चाहता था कि वो उस देह की कैद में लौट जाए, हाँ उस चिंता भरे स्वर को वो पहचानती थी… वो चिंतातुर स्वर किसी संक्रमण फैलने या कुछ एलर्जी की बात कर रहे थे…. ओह… ध्यान आया उसने बहुत कुछ खा लिया… दवाइयाँ… ढेर सारी… वो सारी जो उसकी समझ में नींद लाती थी… वो सोना चाहती थी… सुकून की नींद… जिसमें सोच-समझ सब शून्य हो जाए। 
कुछ समझ आया था कुछ नहीं आया था चिंता के स्वर को पहचान रही थी तसल्ली देना चाहती थी और बोल उठी थी संक्रमण नहीं होगा पापा! साथ में एविल का पूरा पत्ता और अमोक्सिसिलिन भी लिया था… शब्द किसी तक नहीं पहुँचे थे… बुदबुदाहट पहुँची थी औऱ नर्स ने उसे दर्द समझ फिर से नींद का इंजेक्शन लगा दिया था। चेतना फिर शून्य थी।
अब की बार आँख खुली तो कमरे में मद्धिम पीली रोशनी पसरी हुई थी… बाहर शायद धूप थी। हल्के भूरे पर्दों से छनकर आती रोशनी कमरे को पीलेपन का आभास दे रही थी।
वो एक कमरे में ऊँचे से बिस्तर पर थी, बीच में एक परदा था और शायद पर्दे के दूसरी ओर कोई और बिस्तर जिस पर एक और बिंधी-बंधी देह पड़ी थी। शायद उसी देह की कराहट से उसकी अपनी चेतना लौटी थी।
 वह पूछ उठी थी – “कौन है वहाँ?”… उधर से क्षीण आवाज आई थी – “बचा लो, मैं मरना नहीं चाहती।”
उसके मुँह से बेसाख्ता निकल गया था
“क्यों?”
“मुझे जीना है…”
प्रश्न पुनः स्वतः ही निकला था… “किसके लिए?”
“अपने लिए…”
“क्या हुआ है तुम्हें?”
“…”
काफी देर तक कोई उत्तर नहीं आया। शायद उधर वाली भी दवाओं के प्रभाव से नीम बेहोशी में थी और फिर अंधेरे में उतर गई थी।
उसकी अपनी  मूर्छा धीरे-धीरे कम हो रही थी और अजब सा अहसास हावी हो रहा था… सबसे अहम प्रश्न था – अब! आगे! कैसे जाएगी उस घर में… नहीं जाएगी तो कहाँ जाएगी, घोर अवसाद में ये जो हो गया उससे, उस पर क्या प्रतिक्रिया होगी सबकी। जिन आँखों की हिकारत ने उसे धकेल दिया गर्त में, और वह सम्भल न पाई कि वह कमजोर थी… अब उनका सामना कैसे करेगी…
ब्लेंक, शून्य, उसके आगे शून्य और और आगे और भी बड़ा शून्य… क्या है अब जिंदगी में… जो है वो क्यों है और जो नहीं है वो क्यों नहीं है?
कोरों से ढुलकते आँसू पोंछने एक उँगली आगे बढ़ी… दवा देने आई नर्स थी।
“कहीं दर्द है तुम्हें”
“नहीं”
“फिर क्यों रोती हो”
“….”
“क्यों किया ऐसे?”
“मैंने कुछ नहीं किया… मुझे बस सोना था”
“क्यों”
“मैं लड़ने से थक गई थी”
“लड़ाई की बात क्या थी”
“मुझे डॉक्टर बनना था ताकि मैं बता सकूँ कि मैं हूँ, और किसी से कमतर नहीं।”
“फिर?”
“वो मेरा हाथ किसी और को थमा अपने दायित्व से मुक्त होना चाहते थे… मैं अपना दायित्व खुद सम्भालना चाहती थी”
“ऐसे संभाला?”
“ऐसा सोचा नहीं था…”
“फिर ऐसा क्यों किया”
“पता नहीं, कुछ और समझ नहीं आया शायद।”
“अठ्ठारह बरस की उम्र में तुम थकने भी लगी? ये तो जिंदगी की मौज-मस्ती की उम्र होती है”
…. आह…. दूसरी ओर से दर्दभरा स्वर उभरा, नर्स उस तरफ मुड़ने लगी।
“सिस्टर उधर कौन है? उसे क्या हुआ?”
“वह बहुत जली हुई थी”
“कैसे?”
“उसके पति ने उसे जला दिया”
“ओह!”
“कैसी है अब?”
“बच गई है पूरा ठीक होने में समय लगेगा, चौदह रो़ज़ हो गए किसी ने आकर उसकी सुध नहीं ली।”
“वह जीना चाहती है”
“यही तो विडम्बना है जीवन की, जो जैसा चाहता है उसे वैसा नहीं मिलता, जो खत्म करना चाहता है उसका खत्म नहीं होता और जो जीना चाहता है उसके हाथ से फिसलता जाता है।” कहते हुए नर्स पर्दे के दूसरी ओर चली गई।
कटाक्ष पहुँचा था उस तक लेकिन वह अभी भी तय नहीं कर पा रही थी कि वह क्या चाहती है।
शायद दूसरी ओर वाली को पानी पीना था।
नर्स ने उसे पानी पिलाकर पूछा था, “कैसा लग रहा है अब? तुम बहुत बहादुर हो, जल्दी ठीक हो जाओगी”
“नर्स उन्हें आपत्ति न हो तो बीच का पर्दा हटा दो”
धीमें स्वर में उधर से आवाज़ आई, “रहने दो इसे घबरा जाओगी”
“नहीं घबराउँगी”
और पर्दा हटाया गया तो जीवन की ललक रखने वाली का झुलसा हुआ रूप देखकर  वह पीड़ा से भर उठी। पीड़ा आँखों से बह निकली थी।
“अच्छा नहीं लगा न देखकर?”
“नहीं, ऐसी बात नहीं, लगा तुम्हें कितना दर्द होता होगा!”
“दर्द तो जिंदगी का ही एक नाम है”
“फिर भी तुम जीना चाहती हो”
“हाँ, दर्द से घबराकर जीना तो नहीं छोड़ सकते न! 
यूँ जीकर कुछ मिलता है क्या? तुम कभी जी पाई हो अपने लिए..
उसके प्रश्न पर वह चुप हो गई। काफी देर बाद खुद को संयत करके उसकी ओर देखा तो पाया कि वह दिल की टूटी खिड़की के काँच आँख में संभाल रही थी, टुकड़ा-टुकड़ा!
अपने गम को कस कर पकड़े हुए कि ज़िंदा रहने का और सबब न था जैसे। कसी हुई मुट्ठी में कुचले हुए सपनों के टुकड़े थे, पंख टूटी गौरैया जैसे। बरसों पहले अम्मा के घर में जब गौरैया कमरे के उपर वाले आले में अपना घोंसला बनती थी और कभी पंखें से टकरा जाती थी उस गौरैया सी कातर दृष्टि लिए वह बोली थी – “हाँ अपने लिए। मैंने अभी तक अपने लिए कभी जिया ही नहीं। माँ के घर माता-पिता के अनुसार थी, वहाँ से ससुराल आई हर कतरा कोशिश की उनके अनुसार ढलने की लेकिन उसने जला दिया मुझे। लेकिन जो जली है वह बाहरी परत है, मेरा मन पहले से और अधिक मजबूत हो गया है।”
पर तुम्हें हैरत क्यों हैं इस बात पर?”
“क्योंकि मुझे जीने की कोई वजह दिखाई नहीं देती।”
“जीने की वजह तो तुम ही हो… तुम हो इसलिए तुम जियो।”
शायद वह ठीक कह रही थी… अभी तक होने का अर्थ उसे मान लेना चाहिए कि उसे अभी और होना है…
वह कहती रही – “जीवन किसी और के लिए हो उससे पहले जीवन को जीवन के लिए होना पड़ता है। जब जिंदगी छूटने लगती है तो सिर्फ और सिर्फ अपना आप दिखाई देता है… बस जिंदा रहते हुए हमेशा दूसरों के बारे में पहले सोचना सिखाया जाता है। हम ऐसे दोगले समाज में रहते हैं जहाँ हर व्यक्ति सोचता पहले अपने बारे में है लेकिन दूसरे को सिखाता है कि अपने बारे में सोचना गलत है। हमें अपने बच्चों को शुरू से ये सिखाना चाहिए कि वह पहले अपने बारे में सोचें और इस पर ग्लानि न करें। इंसान तभी दूसरे की सोचेगा जब वह स्वस्थ होगा। वैसे भी कोई स्वयं में संतुष्ट हो तभी वह दूसरे को कुछ दे पाएगा न। रीता घड़ा क्या किसी की प्यास बुझाता है?”
बोलते-बोलते वह कुछ हाँफने लगी… शायद थक गई तो चुप हो गई।
कमरा एकदम शाँत था… नर्स कमरे से बाहर चली गई थी।
थकान और दवाओं का असर फिर तारी हो चला था, दोनों ही फिर एक सी मूर्छा में हो गईं।
*** 
मिलने के समय पापा आए तो वह कुछ बोल नहीं पाई… यह पहली बार था कि उनके आने पर वह पूरे होश में थी। पापा ने भी कुछ न कहा… शायद कोई यह नहीं जानता था कि क्या कहने से दूसरे को दर्द होगा और क्या कहने से सुकून मिलेगा। पापा शायद जो कुछ कहना चाहते थे वह पिछले दिनों की फिक्र और परेशानी में चुक गया था, वह भी बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन उसके पास अपनी बात कहने का अब भी साहस न था, वह शब्दों में नहीं ढाल सकती थी तिरस्कार के उस भयंकर एहसास  को जो वह महसूस करती रही थी। वह नहीं कह सकती थी कि वह इसलिए आहत थी कि उसके अपने उसे अपना नहीं पाए थे, कि गाँव जब शहर आता है तो वह शहर का हिस्सा नहीं बन पाता, वह बदनुमा पैबंद बन जाता है। बीच की माँग और दो चोटियाँ खोलकर बालों को छोटा करा लेने और शैम्पू कंडीशनर लगा लेने के बाद भी। घुटने से ऊपर स्कर्ट पहन लेने पर भी वह शहर नहीं बन पाता।
इस दुनिया में असंख्य लोग हैं जो गलत जगह होने का एहसास लिए दुखी हैं, वे यह नहीं जानते कि उन्हें कहाँ होना था, बस इतना अवश्य जानते हैं कि जहां वे हैं वह सही स्थान नहीं है। मौन का भार भी हो सकता है यह वे दोनों महसूस कर रहे थे औऱ शायद चाह रहे थे कि यह समय बस जल्दी से समाप्त हो जाए।
चलते हुए पापा ने कहा था, शायद एक-दो दिन में छुट्टी कर देंगे।
वह तब भी कुछ न बोल पाई थी।
पापा के जाने के बाद उधर से फिर आवाज़ आई थी – “खुश हो? घर जाने का समय आ गया”
“पता नहीं… काश मैं यहाँ से गायब हो पाती”
“कोशिश तो कर चुकी न… अभी नहीं हुई तो अब भी नहीं होगी। परिस्थितियों का सामना करो…”
“कैसे?” 
“एक राह सही न मिले तो दूसरी अपना लो।
हर मन को अपनी राह तलाशनी होती है, एक सही न बैठे तो दूसरी तलाशनी पड़ती है, कभी-कभी जिंदगी यूँ ही भटकते खत्म भी हो जाती है, लेकिन यह सुकून लेकर कि हमने वह किया जो हम कर सकते थे। हम परिस्थितियों से भागे नहीं। “
“लेकिन उन्हें मेरी जरूरत नहीं है”
“तुम्हें जो लगे वह हमेशा सही हो ऐसा नहीं हुआ करता। तुमने मान लिया कि तुम्हारी ज़रूरत किसी को नहीं, चलो ठीक माना, लेकिन ये बताओ कि क्या तुम किसी और की जरूरत के लिए जन्मी? तुम जन्मी कि तुम्हें… हाँ तुम्हें जन्मना था और इस जन्म को तुम्हें ही सार्थक करना है। जब कोई तुम्हारा अस्तित्व नकार देता है तो क्या तुम होना बंद हो जाते हो? नहीं न, तो इतनी परवाह क्यों किसी और के अप्रूवल की, कि वो न मिले तो तुम होना बंद कर दो”
उसकी बातों का उत्तर नहीं था, वह बोलती जा रही थी… “जियो, सहज होकर जियो… सबसे बड़ी गलती जो हम करते हैं वह है खुद को अपेक्षाओं के अदृश्य खाँचों में बैठाने की। अपने को समझो, जो हो सके वो करो, जो न हो सके उसके बारे में अधिक न सोचो। 
जिंदगी तुम्हें मिली है तुम्हारे लिए… जो तुम्हें पसंद नहीं करते उनसे सामंजस्य बिठाओ, न मिले दिल तो दूर हो जाओ लेकिन कोई भी कारण अपनी जिंदगी समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं होता…”
उसका शब्द-शब्द संजीवनी का काम कर रहा था। वो उठी और उसने उठकर साहस की उस प्रतिमूर्ति का माथा चूम लिया। वो माथा जिसकी त्वचा बेशक झुलसी हुई थी लेकिन जिसकी आभा सूर्य सी थी।
आज उसे समझ आ गया था कि जिंदा रहने को बस खुद का होना ही काफी है। किसी के अप्रूवल की जरूरत नहीं।

8 टिप्पणी

  1. भावना जी ने बहुत गहन विषय को उठाया है. कुछ लोग जीना चाहते हैं, कुछ जीवन से हार जाते हैं.
    इस कहानी को पढ़ कर मुझे एक समाचार याद आ गया जो बहुत बरस से मेरे जेहन में अंकित है.
    सातवीं क्लास के एक बच्चे ने आत्महत्या कर ली थी. मुझे आज तक ये समझ नहीं आया कि जीवन अभी जीया नहीं…देखा नही….जीवन पता नहीं…..
    कहानी की खूबसूरती य़ह है कि कहीं भी आत्महत्या शब्द नहीं आया.
    भावना जी को साधुवाद.

    • सीमा जी, इतनी प्यारी समीक्षा के लिए हृदय से आभारी हूँ। आपको कहानी पसंद आई, लेखन सार्थक हुआ। आपके शब्दों ने मेरा मनोबल बढ़ाया। बहुत शुभकामनाएं आपको।

  2. बहुत बढ़िया । ।अनछुआ विषय, प्रस्तुति, भाषा,शैली सभी पहलुओं पर खरी उतरती बहुत सुंदर कहानी। बधाई भावना

  3. बहुत खूब… विषय सचमुच हटकर है कहानी का, जो बहुत अच्छा लगा ! बहुत बढ़िया कहानी लिखने के लिए हार्दिक बधाई आपको भावना जी !

  4. भावना जी बहुत संजीदा और गहरी बात की बेहद संतुलित तथा भावपूर्ण प्रस्तुति। जीवन को सार्तकता को समझाने का अनोखा अंदाज

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