तीन टुकड़ों में बँटा
एक सफर…
किरचों से घिरे कुछ ख्वाब
मैं तुम से अपना जुर्म कैसे इकबाल करूँ
कैसे कहूँ कि तुम नहीं हो,तो फर्क पड़ रहा है
रोटी जल गयी कि दूध फट गया
कि नमक ज्यादा पड़ गया सब्जी में…
नहीं, यही काफी नहीं है
बहुत कुछ है,
जो अटक गया है तुम्हारे बिना
जिसे लफ्ज में बयान कैसे करूँ
क्या चाह कर भी सबकुछ
कहा ज सकता है!
लहू  नब्ज  में
और साँस दिल
टटोल रहा हूँ…
रात खुद-ब-खुद ठहर गयी है जहन में
चलते-चलते समय थक गया है घड़ी में
तुम थी,तो हजारों बार लड़कर
मैंने कहा तुम भाग जाओ
डूब जाओ जहन्नुम में!
लोग भी यही समझते रहे मेरी तरह
कि हमारे रिश्ते अच्छे नहीं हैं
तुम खुद भी बिला वजह नहीं कहती थी
कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता…
पर अब जब तुम चली गयी हो
लड़कर नहीं एक अप्रत्याशित फैसले से
तो लगता है लड़ाई-झगड़े में कुछ कह देना या सोच लेना
कितना आसान है/ खुद  हैरान हूँ मैं
लोग न जाने कैसे रिश्ते
और शहर को भूल जाते हैॆं!
इस पार से उस पार चले जाते हैं
सब बेच-बाच …छोड़-तोड़…
मेरा वजूद भी मुझमें है कि नहीं…!
नहीं मालूम।
तुम्हारे और बच्चों के चले जाने के बाद
इस गहरे सन्नााटे ने तो ट्रैफिक ही जाम कर दिया।
शाम से परेशान हूँ मैं अपने घर में हूँ
कि न जाने किसी होटल में
कोई चिल्ल-पों, मार-पीट कुछ भी नहीं
कलम, चार्जर, मोबाइल और किताबों के मानो पैर ही कट गए/
सब अपनी जगह पड़े हुए हैं/
यादों की हवा गाड़ी भी खामोश/देखो न आज लोग भी नहीं आए
जिनसे कुछ छिपाएँ/बचाएँ।
जैसे ताजा कोहराम और गुस्से में भी मैं हँस कर कहूँ ….चाय !
और कोई कप फूट जाए
तुम जबड़न हँस पड़ो टुकड़े उठाते हुए
और मैं बदल कर कहूँ
चीनी मिट्टी की चीजें कितनी कमजोर होती हैं
जरा सी ठोकर से भी टूट जाती है।
न कोई झेंप,न कोई अर्ज ,न कोई इच्छा और न वह ताव
एक मरी हुई खामोशी डोल रही है घर में।
माँ बिटुर-बिटुर ताक रही है माया से मुझे
उसकी जबान को लकवा सा मार गया है
मैं कह सकता हूँ कि यह सबसे कठिन है दौर हमारे जीवन में
जिसे कोई समझे न समझे हमें समझना होगा
इस मज़ाक के साथ
कि मैं तत्काल तुम्हारे लौटने का
इन्तजार नहीं कर रहा हूँ।
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