आईना जब भी मैं देखता हूं
सवाल खुद से यह करता हूं
क्यों हूं मैं सब से खफा
मिजाज है क्यों मेरा जुदा
रंगत क्यों है मेरी खुदरंग
कुदरत ने तो सभी को दिए हैं इख़्तिलात-ए-रंग
सिफत तो लड़कपन से ऐसी ही थी
तरबियत तो इंसानों जैसी ही थी
अस्बाब-ए-‘ऐश की कमी न थी
मेरे ख्वाबों की जमीन न थी
सास अलग था, सोज़ अलग थी
सीने में तपिश बड़ी थी
हर चीज में दिखती ख़राबी थी
फ़ितरत जो मेरी बैरागी थी
दिमाग़ की जगह दिल से सोचता
जवाब में हो और सवाल ढूंढता
सुकून किसी जगह ना पाता
मंजिल की तलाश में नई राह बनाता
कभी गर मैं रुकना भी चाहूं
कभी गर में थमना भी चाहूं
एक आवाज ना रुकने दे
एक ज्वाला न थमने दे
जहन में ज्वालामुखी फटने लगता
नसों में लावा बहने लगता
लावा जब थमने लगता
एक और ज्वालामुखी फटने लगता
सिलसिला यह रुका नहीं
दर्द यह किसी से कहा नहीं
सफर में हो गए ज्वालामुखी बेशुमार
लावा को थामते हुए हो गया मैं बेजार
अब मैं लावा के संग बहता हूं
खुश रहने की कोशिश करता हूं
सफर को मैंने अपनी मंजिल बना लिया है
फ़ासला अपनों से मैंने बढ़ा लिया है
देर से सही जिंदगी जीने का तरीका पा लिया
आईना जब भी मैं देखता हूं
सवाल खुद से यही करता
क्यों हूं मैं सब से खफा
मिज़ाज है क्यों मेरा जुदा
बहुत उम्दा रचना