उपस्थिति में पिता के,
अरमानों के दिये
जगमग – जगमग,
जलते ही रहते हैं,
जीवन पथ के अनगिन,
गड्डे, उथले.. गहरे..
आशीषी अमृत जल से,
हर-पल हरक्षण कल-कल,
निश्चल भरते ही रहते हैं।
नमन उनकी परवरिश को
परवाह कहाँ वे अपनी करते हैं,
अपने सपनों को वक़्त के
बक्से में सहेज कर
बच्चों की ख़ातिर ,
अलाउद्दीन के चिराग़ सा
आँखों की अलमारी में
सजते रहते हैं।
बच्चों के सपने तो होते हैं
कच्चे माल की तरह
सलोने सुहाने अधकच्चे
कुछ झूठे, कुछ सच्चे,
सपनों की नींव से लेकर
हर दीवार और छत तक
हौसलों के ईंट-गारों के
संयोजन से निर्मिति तक
सहायक पिता निःसंदेह
इमारत के अभियंता होते हैं।
सुजाता प्रसाद
स्वतंत्र रचनाकार,
शिक्षिका सनराइज एकेडमी,
नई दिल्ली, भारत
पिता तो आसमान होते हैं। जब तक पिता हैं तभी तक सुख है।
माता और पिता पर लिखी गई कोई भी कविता हमेशा ही निर्दोष होती है सुजाता जी!