Tuesday, October 8, 2024
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वंदना यादव की कविता – आज मुझे दर्शक दीर्घा से कुछ लोग दिखे

आज मुझे दर्शक दीर्घा से कुछ लोग दिखे।
वे जो चुनाव के बाद हो जाते हैं गायब,
जिन्हें दोबारा देखने को जनता,
साढ़े चार साल करती है इंतजार।
हाँ, आज मुझे दर्शक दीर्घा से
ऐसे ही कुछ लोग दिखे।
वहाँ कुछ चुने हुए लोग थे
जो मुझे जानते थे।
लगभग तीन मूर्ति जितने
वे मूर्तिमय थे वहाँ।
अपनी मर्जी से हिल-डुल नहीं सकते थे
मुझे पहचानने का तो सवाल ही नहीं था।
बहुत लोग थे वहाँ।
उनमें से कुछ को मैं जानती थी।
सब ओर के मिला कर
उतनों को पहचानती थी
जितने बैनर उठाए,
घेरे थे संसद के मध्य बैठी कुर्सी को।
कुछ मुझ से परिचित थे।
कुछ से मैं परिचित थी।
टेलीविजन स्क्रिन पर अक्सर
दहाड़ने वाले भी कुछ जमा थे।
टेलीविजन पर कभी ना दिखने वाले
कुछ चुनिंदा भी वहां थे।
अपनी बात कहने, अधिकतर ना कहने का
झूला, झूलने की राजनीति करने वाले भी
कुछ वहाँ दिखे।
कुछ गुमसुम अकेले-अकेले बैठे थे।
कुछ को शायद मैने पहले कहीं देखा था।
भाषण देते हुए या फीता काटते।
अमूमन ग्यारह मूर्ती जितने, दो समूहों ने
बैनर हाथ में उठा,
अध्यक्ष को घेर रखा था ।
उन्हीं के समूह के कुछ चुनिंदा,
पीछे कुर्सियों पर बैठे
– बतिया रहे थे।
उन पर पार्टी नेतृत्व का वरद हस्त था ।
वे चिल्ला नहीं रहे थे,
गला नहीं फाड़ रहे थे।
हाथ-पैर चलाने या
कुर्सियों की उठापटक का उपक्रम भी
नहीं कर रहे थे।
वे अपनी गोटियाँ जमा रहे थे।
कुछ शेर दिल वहाँ
हंसी – ठिठौली में व्यस्त दिखे।
उनके लिए यह मेला था
जहाँ वर्ष में
दो-एक बार आने से
एक-दूसरे से मिलना हो जाता है।
हमारे मोबाईल को
इस मंदिर में साथ लेजाने की
अनुमति नहीं थी
परन्तु वहाँ
कुछ चुनिंदा संसदकर्मी
मोबाईल-मोबाईल खेल रहे थे।
कुछ वीडियो और फिल्म देखने में मस्त थे।
अपने बहुत ज़रूरी काम छोड़ कर
कुछ वहाँ आए थे
 – हाजिरी लगाने।
कुछ जाति-धर्म से उपर उठने/उठाने की
जिम्मेदारी निभाने के पसोपेश वाले भी
इस सफेद इमारत में मौजूद थे।
आरक्षण और आतंकवाद पर
बोलने वाले भी
मुझे दिखे वहाँ।
अधिकतर साधारण लिबास में थे
परन्तु
कुछ सिर पर पल्लु डाले,
भारतीयता की पोशाक वाली और
‘अचकन’ समान वीर रस से लबरेज़
परिधान वाली
तो कहीं महंत की वेशभूषा वाले
धोती-कुर्ता-साफा वाले,
लुंगी-कुर्ता पहने
और संन्यासी के भेष वाले
अलग-अलग किरदार में
देश की एकता की
मिसाल वाले – चुनिंदा भी मौजूद थे।
कुछ अपनी उम्र से बेजार थे
जो कल तक तख़्त के दावेदार थे
मेरे सामने, अकेले बैठे समय की गति से परेशान थे।
कुछ दस-बीस के सत्तासीन जोड़े
सभा की कार्यवाही आगे बढ़ने के
इंतजार में थे।
वहाँ मौजूद कुछ का
दुनियादारी से कोई वास्ता नहीं था।
कुछ बैगेर ज़रूरती भी लगे।
कुछ सेहत की मार से मरे पड़े थे।
कुछ मोटापे के बोझ से दबे पड़े थे।
कुछ के चेहरे से मुस्कुराहट
पीछा छुड़वा चुकी थी।
अधिकतर को
मासूमियत, अलविदा कह चुकी थी।
कुछ सत्ताधारी, उपेक्षित से पड़े थे
कुछ विरोधी, सत्ता पाने की उम्मीद में डटे थे
कुछ निर्दलीय अपना वज़ूद तलाश रहे थे।
कुछ लठैत थे,
कुछ समाचारों में बताए – डकैत थे।
कुछ जेल काट कर पहुंचे थे
कुछ को शायद अभी जेल जाना था
और कुछ ने जेल वाले मसअले को
सियासत से जोड़ कर
वोट बैंक बना लिया था।
कुछ ऐसे भी दिखे,
जिन पर अदालत में लंबित केस थे।
कुछ ने अपील दायर कर दी थी।
लोकतंत्र के मंदिर में कुछ वो भी थे
जिन्होंने
दया की अर्जी
– न्याय के मंदिर में लगा दी थी।
कुछ सिनेमा जगत के सितारे थे
तो कुछ खेल जगत के प्यारे थे
किसी के पास दौलत का अंबार था
कुछ दौलत कमाने आए थे
कुछ को रूतबे/दौलत से
ना कोई सरोकार था।
बस वे जहाँ थे, वहाँ थे।
लोहा लेने वाले अधिकतर उस दिन अनुपस्थित मिले।
इतना सब देख/सहन कर
मेरा ब्लड प्रैशर
घटना-बढ़ना लाज़मी था
मगर
उसी समय
अलग-अलग तरह के
कुछ और भी वहाँ मौजूद दिखे।
कुछ
जंगल/जल/कन्या और बचपन बचाने के
प्रयास वालों को देख
मेरी आस बंधी।
कुछ कानून के जानकारों,
इतिहासकारों ने
मेरे उठापटक मचाते ब्लड प्रेशर को सम्हाला।
और इतने के बाद
यदि कोई बचे थे तो वे, वाकई वहां थे
जहां उन्हें होना था।
आज मुझे दर्शक दीर्घा से कुछ लोग दिखे।
वे जो चुनाव के बाद हो जाते हैं गायब,
जिन्हें दोबारा देखने को जनता,
साढ़े चार साल करती है इंतजार।
हाँ, आज मुझे दर्शक दीर्घा से
ऐसे ही कुछ लोग दिखे।
वन्दना यादव
वन्दना यादव
चर्चित लेखिका. संपर्क - [email protected]
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