Saturday, July 27, 2024
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ज़हीर अली सिद्दीकी की कविता – दबी आत्मा

भव्य मकान जो
इतराता है इतना
गरीबों को सताता है
पैसों से डराता है
रोशनी से जगमगाता है
मन को बहकाता है
भौतिकता से जोड़ता है
परंतु
खड़ा है नींव पर
नींव बनी है ईंट से
ईंट का रंग लाल होता है
लेकिन
मिट्टी का रंग पीला होता है
फिर असली वजह क्या है ?
संघर्ष की चुप्पी और
बलिदान की गुत्थी जो
सुलझाने से सुलझती है
मिट्टी को ईंट के सांचे तक
पहुंचाता है मजदूर
सुख चैन का त्यागकर
बलिदान और संघर्ष से
सींचता है मजदूर
बलिदान से लाल रंग
पसीने से मिलती है मजबूती….
पैर में छाले पड़ जाते हैं
पर चलता जाता है मजदूर
कड़ी आंच में पककर
नींव में समा जाता है मजदूर
भीतरी परत में दबकर
आंखों से गायब से
ओझल हो जाता है मजदूर
दीवार के ऊपरी पेंट से
दब जाता है मजदूर
चमक दमक से दूर रहकर
मनमोहक तस्वीरों को
संभालता है मजदूर।।
शायद
नींव में दबी आत्मा
आज सिसक रही थी
आज मेरे दिल में चुभ रही है।
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