Friday, May 17, 2024
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वन्दना यादव का स्तंभ ‘मन के दस्तावेज़’ – जिद्द ज़रूरी है

बचपन की बातें मन-मस्तिष्क पर अंकित हो जाती हैं। हम चाह कर भी उन्हें भुला नहीं पाते। हम सबको कभी ना कभी जिद्द ना करने की सलाह दी गई थी। आप भी इस “जीवनमंत्र” को मानने की बाध्यता से अछूते नहीं रहे होंगे। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि आपके जिद्द करने पर परिवार के बड़ों द्वारा समझाइश या डाँट-फटकार भी हुआ होगा। संभव है हममें से कुछ ने पिटाई भी खाई हो। यह भी संभव है कि इस तरह के ट्रीटमेंट के कारण वह जिद्द, वर्षों तक मन के किसी भीतरी कोने में दफन हो गई। हो सकता है कि वह कोई खिलौना रहा होगा या खेलने के अतिरिक्त समय की माँग रही होगी। जिसने जिद्द करवाई थी, वह किस्सा कहीं ना कहीं आपको याद आज भी होगा।
धीरे-धीरे बढ़ती उम्र के साथ हम सामाजिक व्यवहार सीख जाते हैं। सयाना होना यानी, बचपना छोड़ देना। जिद्द ना करना। मगर यह बहुत बड़ी क़ीमत है जिसे हर इंसान “समझदार” कहलवाने के बदले में चुकाता है। मगर क्या हो जब हम अपनी मर्ज़ी का काम करने में सकारात्मकता ले आएं! तब भी क्या हमें उतनी ही विपरीत परिस्थियों का सामना करना होगा? आपने बिल्कुल सही समझा। उस स्थिति में भी साथ ना देने वालों की लंबी फौज होगी। हौसला तोड़ने का प्रयास करने वालों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त रहेगी। मगर… यहाँ प्रयुक्त यह “मगर” अपने भीतर बहुत कुछ समेटे हुए है।
दरअसल ऐसी परिस्थित में तमाम विरोध के बावजूद आप यह जानते होंगे कि आप सही रास्ते पर है। आपकी मेहनत सफल हुई तब आप बहुत बड़ा बदलाव अपने सामने घटित होता हुआ देखेंगे। इस तरह की एक जिद्द पर 1857 में बहुत बड़े जनसमूह ने कदम बढ़ाए थे। वह जिद्द कामयाब नहीं हो सकी मगर उसने सकारात्मक सोच के लोगों के मन में आशा जगा दी थी। उस अनुभव ने भविष्य में भारतवासियों के मन में अपने पंखों को खोल कर उड़ान भरने का हौसला भर दिया था।
उस असफलता के बहुत सारे कारण थे। उन्हीं में से एक था, नियत समय पर एक साथ किया जाने वाले संगठित प्रयास का आभाव। क्रांति अलग-अलग जगह पर अलग-अलग समय पर हुई। भावनाओं के वशीभूत होकर अलग-अलग समय पर की गई कार्रवाई के कारण वह क्रांति, सिरे नहीं चढ़ सकी। 
इसके बावजूद भारतीय जनमानस के मन से आज़ादी पाने की जिद्द मिटी नहीं। इसके लगभग सौ वर्ष बाद इसी तरह की क्रांति की ज्वाला फिर भड़की। इस बार कुछ सीख पुराने अनुभवों ने दी, और कुछ सौ वर्षों तक भोगे दर्द ने देशवासियों में जीतने की जिद्द पैदा कर दी थी। इस बार की ऐतिहासिक जिद्द ने तारीख़ पर “भारत” का नाम स्वर्ण अक्षरों में जड़ दिया। 
इसी तरह की एक जिद्द का परिणाम भारतीय चंद्रयान मिशन – 3 रहा। जो लोग मानते हैं कि यह पिछले चार वर्षों की मेहनत का परिणाम है, उन्हें कुछ मुद्दों पर पुनर्विचार करना होगा। कार्यक्रम चलते हुए चार वर्षों से दिखाई दे रहा था मगर इसकी तैयारी इससे भी पहले से चल रही थी। वैज्ञानिकों की सोच, अभियान के लिए पहली बार विचार के पैदा होने के समय से तैयारी शुरू हो गई थी। जो परिणाम हमें साकार रूप में आज दिख रहे हैं, इसके लिए सपने पहले देख लिए गए थे।
सपनों के जिद्द में बदलने की यात्रा ने भी अपना समय लिया होगा। मगर जब एक लक्ष्य, बड़े जनसमूह की जिद्द बन जाता है, उसे साकार करने की कोशिश भी कई गुना बढ़ जाती है। ऐसी जिद्द को सफल बनने से कोई नहीं रोक सकता। और यह एक तरह की सकारात्मक जिद्द का ही परिणाम है कि हर भारतीय चाँद पर पहुँचने पर गर्वान्वित है। आइए, ऐसी ही अद्भुत किस्म की जिद्द और करें। 
वन्दना यादव
वन्दना यादव
चर्चित लेखिका. संपर्क - yvandana184@gmail.com
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11 टिप्पणी

  1. वंदना जी, आपके लेख को पढ़कर लगा कि आपने मेरे मन के जज्बातों को अपने शब्दों में ढाल दिया है । जब भी महान क्रांतियों ने जन्म लिया है, उनका आविर्भाव विचार के प्रस्फुटन से ही हुआ है । समूह की शक्ति से भला कौन परिचित नहीं है। हमारे भारत में न तो जनसमूह की कमी है, न ही समस्याओं की, केवल जाल में फंसे कबूतरों की तरह एकजुट होकर जाल लेकर उड़ जाने की आवश्यकता है । ✨✨✨✨✨

    • गीता जी, आपको कॉलम पसंद आ रहा है, यह जानना सुखद है। जनसमूह के साथ कबूतर और जाल की उपमा अच्छी है।

  2. बहुत सुंदर लेख वंदना दीदी। आपकी लिखी बातें हमेशा प्रेरणा देती हैं। सकारात्मकता की ओर की गई ज़िद भी हमेशा अच्छा परिणाम लाती है, सफलता और असफलता दोनो ही हमें कुछ नया सिखाकर जाती हैं।

    • एकदम सही। ‘मन के दस्तावेज़’ का यही संदेश है। तुम्हारी सकारात्मक प्रतिक्रिया जानना सुखद है रंजना।

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