वो नाराज़ होते हैं बहुत – सी स्त्रियों को नाचते, गाते देख, परंपरागत वेशभूषा को न पहनते देख, सुहाग चिह्न न रखते देख, उन्हें व्हीकल चलाते देख, उन्हें कामकाजी होते देख, उन्हें ठट्ठा मारकर हँसते देख, उन्हें फेंसले लेते देख, वे सोचते हैं ये स्त्रियाँ, उन्हें चुनौती दे रही हैं उनका हिस्सा मार रही हैं वे नहीं जानते ये स्त्रियाँ अपने हिस्से का आसमान मार रही हैं।
2 – छूटता गाँव
रोते, गरीब बूढ़े बाप से विदा ले रहा है बेटा जा रहा है शहर. गाँव में अब जमीन से उनके हिस्से का पानी भी बड़ी – बड़ी कंपनियाँ खींच रहीं. अब उनकी बंजर जमीन में उग सकते हैं केवल बाप के हाड़. गरीबी और बेबसी ने बेटे को इतना मजबूत बना दिया है कि बाप उसे बेफिक्रा हो जाने दे रहा है शहर वो वहाँ, कहाँ रहेगा ? क्या करेगा ? क्या खाएगा ? भला ये भी कोई चिंता की बात है ? कहीं भी रह लेगा. कुछ भी कर लेगा. कुछ भी खा लेगा. गरीब का ही तो बेटा है.
3 – भेड़िए
कल सड़क के किनारे खड़ी थी. चाय की थड़ी पर बैठा वो भेड़िया मुझे घूरे जा रहा था इतना घूर रहा था कि फिर मेरा घूरना उसके घूरने के आगे कम पड़ गया. गुटका खा कर थूकना उसकी बेपरवाही का ठप्पा और गहरा कर रहा था. मैंने सोचा कि इससे कुछ कहूँ, कुछ पूछूँ ? फिर सोचा ये तो इन सड़क छापों का अधिकार है. मन में विचार आया कि ये अपने घर की औरतों को कैसे देखते होंगे और अपनी बेटियों को ? मन किया क्या गिना दूँ इसे अपनी और अपने बच्चों की उमर ! फिर मन किया हाथ साफ कर लूँ ? नोच लूँ इसकी आँखें ? फिर सोचा तरस खाऊँ इस पर कि किसी ने इसे इंसान होना ही नहीं सिखाया। उस समय मंटो की बात याद आई कि “औरत एक माँस का लोथड़ा है और आदमी ललचाता कुत्ता”. सोचती रही देर तक कि ये परिवार, ये समाज, कितने पुरुषों को लोकलाज से इंसान बनाए हुए हैं. कितनों में भेड़िए छुपे हैं जो भीड़ में भी निकल – निकल पड़ते हैं. सुनसान सड़क और रात होती तो सड़क पर आदमी कम और भेड़िए ज्यादा दिखाई देते.