पंजाबी फिल्मों में अव्वल तो कॉमेडी ही दिखाई जाती है। पूरे देश के फ़िल्म उद्योग में सबसे ज्यादा फिल्मों व कमाई में योगदान देने वाली इंडस्ट्री का भी यही हाल होगा तो उनके लिए लिखने, बोलने वाले कला फ़िल्म समीक्षक कहाँ से आएंगे? कौन उन्हें उनकी कमियों, खूबियों से परिचित करवाएगा? कौन उनके लिए आवाज उठाएगा कि उनकी फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वो पहचान मिले जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने सिनेमा को जन्म दिया?
इस हफ्ते आई ‘मोह’ फ़िल्म इन तमाम सवालों के जवाब ही नहीं देती बल्कि सबकी जबान पर ताले भी जड़ती है। कहानी कैसी लिखी जानी चाहिए? स्क्रिप्ट कैसी हो? सिनेमैटोग्राफी, कैमरा, एडिटिंग, गीत-संगीत, लोकेशन, कैमरा कैसा हो? ये सब पाठ ये ‘मोह’ पढ़ाते, सिखाते, दिखाते हुए अपने आप से ही नहीं बल्कि पंजाबी फिल्म उद्योग बल्कि सिनेमा जगत के प्रति ही ‘मोह’ जगा जाती है।
एक लड़की जो लड़की नहीं अपने आपको औरत कहती है। उसके औरत होने की प्रक्रिया में आया एक स्कूली लड़का। जिसे उससे ‘मोह’ हो गया। कोई ऐसा-वैसा उथला सा नहीं। रुहाना, रुहाना भी इस कदर जिसमें वह अपनी जान की परवाह तक नहीं कर रहा। अब लड़की को उसके पति से पिटता देख उसे उससे जुड़ाव हुआ। वो कहते हैं न कि ‘मोहब्बत की पहली सीढ़ी हमदर्दी होती है।’ बस वैसा ही कुछ। लेकिन क्या इनका आपसी मोह पूरा हुआ?
जिस तरह से इस फ़िल्म की कहानी को दिखाया, बताया जाता है उसे देखकर ऐसा आपको महसूस नहीं होता। यहीं इस फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक, लेखक, एक्टर, एडिटर, कास्टिंग आदि की टीम सफलता हासिल कर लेती है। ‘जब बंदे का एक पैर मोहब्बत में हो तो एक पैर जन्नत में होता है।’ फ़िल्म का यह संवाद दरअसल फ़िल्म की उस चौखट पर आपके द्वारा रखे जा रहे कदमों के बारे में भी बात करता हैं। जहां से बाहर निकल कर आप न दर्शक रहते हैं, न समीक्षक बल्कि कुछ और ही बनकर बाहर निकलते हैं।
‘नेपोलियन आर्मी अपनी महबूबा सोफ़िया को जंग के मैदान से भी रोज एक चिठ्ठी भेजता था।’ ठीक इस संवाद की तरह फ़िल्म के नायक ने भी अपनी औरत रूपी महबूबा को चिठ्ठी भेजी एक बार लेकिन उसके बाद क्या हुआ? क्या लिखा था उस चिठ्ठी में? महबूबा को अपने महबूब की चिठ्ठी मिली भी की नहीं? ये सब सवालों के जवाब जब आप इस फ़िल्म में खोजने बैठते हैं तो सवालों के हल तो पाते ही हैं साथ ही पाते हैं बार-बार आपकी आंखों में आ जाने वाली नमी।
दरअसल यह फ़िल्म केवल विशुद्ध प्रेम की बात ही नहीं करती बल्कि समाज में महिलाओं को लेकर आम लोगों की जो सोच है। जो उनकी परिस्थितियां है उन्हें भी दिखाती है। घरेलू हिंसा, बलात्कार के साथ-साथ अपनों के द्वारा की जा रही वफा तथा बेवफाओं के किस्से भी खूबसूरती से सुनाती है।
जब आपके अपने ही आपसे बेवफ़ाइयाँ करने लगें और आप समाज के दिखाए आईने को देखते हुए जीने लगें तब मोह पैदा भी होता है, टूटता भी है। फ़िल्म के संवादों में जितनी खूबसूरती है उतनी ही इसमें ‘जॉन एलिया’, शिव बटालवी’ की शायरियों का इस्तेमाल इसे सिनेमा के उस लेवल पर ले जाते हैं जहां से इनके लिए सिर्फ तारीफें ही निकलती हैं। असल में अकेले यह फ़िल्म ही पंजाबी सिनेमा से ‘मोह’ करवाने में कामयाबी पाती है।
एक्टिंग के मामले में कोई भी कलाकार एक्टिंग करते हुए नहीं एक्टर नहीं बल्कि जब किरदार बन जाये तो पूरी टीम के हाथों से बहता है ऐसा सिनेमा। फिर चाहे उसमें शामिल अमृत एमबी हो, प्रभ बैंस, परमिंदर, गीताज बिंदरखिया, सरगुन, प्रकाश गाधू, बलराज सिधु, फतेह सियान। गीताज इस फ़िल्म की जान हैं। एक विशुद्ध प्रेमी के रोल को जिस कदर उन्होंने जिया है उसके लिए उन्हें लम्बे समय तक याद किया जाएगा। सरगुन भी पूरी जंची है हर जगह। बाकी सहायक किरदारों ने भी साथ खूब निभाया।
मेकअप करते हुए आर्टिस्टों के हाथ, कैंचियां चलाते एडिटर्स की तीखी धार वाली कैंचियां जब चलती हैं तो बहता है ऐसा सिनेमा। डायरेक्टर जब डायरेक्शन न करते हुए उसे जीने लगे तो बहता है ऐसा सिनेमा। गीतकार भी जब इसमें ‘जानी’ जैसे हों तो बहता है ऐसा सिनेमा। बल्कि जब फ़िल्म देखकर आप बाहर आते हैं तो आप भी उसमें अपने को बहता हुआ पाते हैं।
कायदे से इस फ़िल्म को इसकी कहानी, इसके मजबूत टेक्निकल पक्ष के साथ ज्यादा बेहतर होगा ‘जानी’ के लिए देखा जाए। उस जानी के लिए जो पंजाबी फिल्म उद्योग ही नहीं बल्कि पूरी दुनियां की जान बने हुए हैं। पहले से हरेक की जबां पर चढ़ चुके इसके गाने फ़िल्म में देखते हुए आपके शरीर में कम्पन होने लगता है, तो समझिए आपके दिल भी मोहब्बतों से लबरेज हैं। ऐसी फिल्मों को देखा जाना चाहिए अवश्य ही ताकि वे आपके दिलों में जरा सी भी कठोरता, कटुता शेष बची हुई है तो उसे आंसुओं से पिघला कर मोहब्बतों से लबरेज कर जाए।
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार

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