Saturday, July 27, 2024
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डेज़ी जैसवाल की तीन कविताएँ

1- बनना चाहती हूँ

बनना चाहती हूँ

उन शाख से टूटे सूखे पत्तों सी

जो धूप से तपती धरती पर

बिखरे पड़े रहते हैं यूँ ही

और धूप से जलते पाँवों को

देते हैं राहत सूकून व ठण्डक

भले थोड़ी देर के लिए ही सही

खुद कुचले और मसले जाने पर भी

देते हैं दूसरो को सुख…

ठण्ड से ठिठुरती अंधेरी रातों में

खुद को जला कर देते हैं गर्माहट

फैलाते हैं रोशनी भी अपनी हस्ती को मिटा कर

खुद को रेशा-रेशा जला कर

देते हैं दूसरो को सुख और खुशी

है चाहत कि बस जीयूँ औरों के लिए

जीते जी भी और जीवन के बाद भी..

2- दर्द में है जिंदगी

जिंदगी में दर्द है

या दर्द में है जिंदगी

हर तरफ दर्द आह

सिसकियाँ और चित्कार है

कहीं भूख है रोटी नही

कही रोटी है भूख नही

जिसे इश्क है उसे चैन नही

जिससे इश्क है उसे परवाह नही

जिंदगी में दर्द है

या दर्द में है जिंदगी

कोई पैसे-पैसे को मोहताज है

किसी के पास अथाह भंडार है

कोई कचरे से रोटी बीन रहा

कोई कचरे में रोटी फेंक रहा

कोई औलाद की दुआ मांग रहा

कोई भ्रूण हत्या करवा रहा

जिंदगी में दर्द है

या दर्द में है जिंदगी

कोई इक-इक बूंद को तरस रहा

कोई घण्टो बहा रहा

कैसी अजब लीला है

कैसी ये रीत है

कोई किसी को तरस रहा

किसी को उसी की कद्र नहीं

जिंदगी में दर्द है

या दर्द में है जिंदगी

3- लौटा दो मुझे मेरा हमसफर

ढ़लते सूरज के साथ

सूरमई लाल होता आकाश

कुछ टहलते से बादल

बादलों के पार से

छनती हुई रोशनी

बनाती है प्रतिबिंब

दिखते हो तुम

बादलों के  साथ

गुम होता प्रतिबिंब भी

तुम्हारी ही तरह हो गया गुम

या था मुझे ही कोई भ्रम

कितनी कोशिशें कीं

ना तुम दिखे ना प्रतिबिंब

कितनी ही मिन्नतें कीं सूरज से

सुनो तुम्हें भी है धरती की कसम

मोहब्बत की कसम

लौटा दो मुझे मेरा हमसफर

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