फिल्म जो कहना चाहती है, वो अंत के वक्तव्यों में खुलकर सामने आया है। अदालत तार्किक रूप से किसी निष्कर्ष पर न पहुँचते हुए भी क़ानून के हिसाब से अपना फैसला तो सुना देती है, मगर न्याय अधूरा रह जाता है। हम देखते हैं कि यहाँ क़ानून ही एक प्रकार से वास्तविक न्याय की राह में बाधक और अन्याय का कारण बन जाता है।
फिल्म पर बात करने से पूर्व यह साफ़ कर देना ठीक होगा कि अगर आप एक थ्रिलर की उम्मीद में इसे देखने जा रहे, तो आपको बहुत मजा नहीं आएगा। ये एक विशुद्ध ‘कोर्ट रूम ड्रामा’ फिल्म है जो आपके दिमाग से खेलती नहीं, बल्कि बलात्कार के मामलों में लोगों के दिमाग की जकड़ी हुई सोच को खोलती है। ‘मर्जी या जबरदस्ती’ की थीम के कारण ये कुछ कुछ ‘पिंक’ जैसी भी है, मगर पिंक की तरह इसमें सिक्के का सिर्फ एक पहलू नहीं है, बल्कि उसके दोनों पहलू सामने रखकर शेष दर्शकों के दिमाग पर छोड़ दिया गया है।
एक फिल्म निर्देशक पर उसकी एक जूनियर कॉस्च्यूम डिज़ाइनर द्वारा बलात्कार का आरोप लगाने और सेशन कोर्ट द्वारा निर्देशक को दस साल की सजा सुनाने के बाद उच्च न्यायालय में दोनों के वकीलों की जिरह पर ये पूरी फिल्म है। इसमें मीडिया और सोशल मीडिया ट्रायल, जो ऐसे मामलों में सहज ही आरोपी को दोषी मान फांसी सुना देता है, की समस्या को भी रेखांकित किया गया है।
अक्षय खन्ना आरोपी निर्देशक के वकील बने हैं, वहीं ऋचा चड्ढा ने सरकारी वकील की भूमिका निभाई है। ऋचा चड्ढा प्रतिभावान अभिनेत्री हैं, मगर शायद उनका किरदार ही ऐसा रचा गया है कि पूरी फिल्म में अक्षय खन्ना अधिक प्रभावशाली नजर आते हैं। एक जगह ऋचा चड्ढा पीड़िता के पक्ष में दलील देती हैं कि देश में बलात्कार के सौ में मात्र पच्चीस प्रतिशत मामलों में ही आरोपी को सजा हो पाती है, इसपर अक्षय खन्ना का ये तर्क लाजवाब लगता है कि पच्चीस प्रतिशत लोगों को ही सजा होने पर चर्चा करने की बजाय हमें ये देखना चाहिए कि ऐसे आरोप झेलने वाले पचहत्तर प्रतिशत लोग निर्दोष निकलते हैं। अक्षय खन्ना के ऐसे प्रभावशाली तर्कों से फिल्म भरी पड़ी है, जिनका जिक्र कर मैं आपका मजा नहीं बिगाड़ना चाहूँगा।
अंततः दोनों वकीलों का जो समापन वक्तव्य है, वो फिल्म का सार है। फिल्म जो कहना चाहती है, वो अंत के वक्तव्यों में खुलकर सामने आया है। अदालत तार्किक रूप से किसी निष्कर्ष पर न पहुँचते हुए भी क़ानून के हिसाब से अपना फैसला तो सुना देती है, मगर न्याय अधूरा रह जाता है। हम देखते हैं कि यहाँ क़ानून ही एक प्रकार से वास्तविक न्याय की राह में बाधक और अन्याय का कारण बन जाता है।
बहरहाल, इतने संवेदनशील और कठिन विषय पर कमाल के संतुलन के साथ फिल्म बनाने के लिए निर्माता-निर्देशक और पटकथा लेखक निश्चित तौर पर बधाई के पात्र हैं। मेरा मानना है कि ये फिल्म भारतीय सिनेमा के परिपक्व होने को दर्शाती है, इसलिए ऐसी फ़िल्में और बननी चाहिए। बनती रहनी चाहिए।