1 – समय निरुत्तर
समय निरुत्तर
व्यक्ति निरुत्तर
उत्तर नहीं किसी के पास
जीवन की
अनबूझ पहेली
डिगा रही मन का विश्वास
कटे पंख
फिर उड़ना कैसा
बंँधे पाँव कैसा चलना
मन के घोड़े
हार मान कर
देखें सूरज का ढ़लना
पीड़ाओं की
पृष्ठभूमि पर
लिखा जा रहा है आकाश
हम पोखर
हमको मेघों के
जल ने दिया सदा जीवन
पर प्रचंड
सूरज किरणों ने
छीन लिया हमसे यौवन
तपा हृदय
अब धूल उड़ाता
छोड़ रहा केवल उच्छवास
कुंठाएँ
निर्मूल नहीं है
फैल रहीं मन के अंदर
जला रही हैं
अंकुर अंकुर
धरा हो रही है बंजर
एक विषम युग
की गाथा ने
रच डाला काला इतिहास
2 – एक डर
एक डर
बस्ती में देता
गश्त है
अब रात दिन
शहर में
कर्फ्यू लगा है
दृष्टियांँ
बाधित हुई हैं
अर्थ खोए
शब्द ने ,
इच्छाएंँ
अनुशासित हुई हैं
चुक गए
संवाद
मानव पस्त है
अब रात दिन
दृष्टि में
अचरज भरा है
कान में
कोहराम छाया
मूक-दर्शक
बन गया
अतिबौद्धिकता
का नुमाया
यंत्रवत
कर्तव्य पथ पर
व्यस्त है
अब रात दिन
बुद्धि पर
आकाश टूटा
देवता
अवाक् हैं
युक्तियांँ
सब धराशायी
समस्या
बेवाक हैं
विज्ञान-दर्शन
धर्म -धन
सब,ध्वस्त है
अब रात दिन
3 – आधुनिकता ढूंँढते हैं दिन
गाँव की पगडंडियों को छोड़कर
तंग गलियों में शहर की
आधुनिकता ढूंँढते हैं दिन
कतरा कतरा धूप का मुँह मोड़ता
और ठंडी छाँव भी अकुला रही है
कसमसाती हैं दीवारें भीड़ की
ऑक्सीजन दूर से तरसा रही है
धुँए की कमजोर फुनगी थाम कर
बाँह पकड़े धुंध की परछाइयों
सँग घूमते हैं दिन
हृदय में माटी की खुशबू है बसी
पर विचारों में महकता इत्र होता
बाग पोखर ताल मंदिर बावड़ी
याद की दस्तक लिए हर स्वप्न सोता
सभ्यता की चाह लेकर चल पड़े
पीठ पीछे संस्कृति को छोड़कर
बौद्धिकता रोपते हैं दिन
प्रकाशित कृतियांँ: - "आकाश तुम कितने खाली हो" (काव्य संग्रह 2017) "पतझड़ में कोंपल" (गीत /नवगीत संग्रह) 2018 "फिर पलाशी मन हुए" (नवगीत संग्रह 2019) "मन कपास के फूल"(दोहा संग्रह) 2021. संप्रति: एसोसिएट प्रोफेसर (सेवानिवृत्त) दयानंद सुभाष नेशनल महाविद्यालय उन्नाव (कानपुर विश्वविद्यालय). संपर्क - manjulatasrivastava10@gmail.com

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