Monday, October 14, 2024
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हरदीप सबरवाल की तीन कविताएं

1 – समीकरण
जब पहली कविता लिखी
सीधे पिता के सीने में जा धँसी
नश्तर बन,
कराह कर वो बोल उठे
जहाँ सरस्वती हो वहां लक्ष्मी नहीं विराजती,
और मैं ना सरस्वती लायक़ रहा
ना लक्ष्मी लायक़,
पिता जीवन भर
देते रहे अनगिनत नसीहतें,
दूसरे के मामले में दख़ल नहीं देना,
सड़क पर  बिना कारण नहीं रुकना,
अपराधियों से बच के निकलना,
अपने काम से काम रखना
से लेकर
सरकारों के ख़िलाफ़ आवाज नहीं निकलने तक
की एक लंबी लिस्ट,
पिता की नसीहतें
पहनते-पहनते मैं गूँगा, बहरा, अंधा
और फिर बौना होता चला गया,
अब मैं भी एक पिता,
अपने बच्चों को नसीहतें देने
का फ़र्ज़ पूरा करता,
युग बदलते हैं
और बदल जाते हैं
नसीहतों के शब्द भी,
लेकिन सार
वहीं के वहीं रह जाते हैं,
कि पिता की नसीहतें
उसके दिल से नहीं
पेट से निकलती हैं
हर युग में
सत्ता समीकरण
आदमी को उलझाए रखते हैं
पेट के सरोकारों तक
सत्ताएं इसी के दम पर चलती हैं…
2 – नरसंहार
लगातार गूँजते हुए शब्द उतर रहे
समाचार वाचक के मुँह से निकल?
सीधे मस्तिष्क में,
उन्नीस साल का लड़का सोचता है
कि इस तरह चीखने भर से ही
सत्यापित होते हैं सत्य,
सामने बैठा ऊँघता हुआ बूढ़ा
उस किताब को फाड़ देना चाहता है,
जो बताती रही ज्ञान एक पीढ़ी का संचय है
अगली पीढ़ियों के लिए,
जानकारी परोसने का मतलब
अब जानकारी देना नहीं
भावनाओं का दोहन करना भर रह गया है,
और इतिहास महज़
सहूलियत भर है वर्तमान की
जैसे चाहो वैसा मिलने को आतुर,
कई बार हम जान ही नहीं पाते कि
अष्टाध्यायी की परिभाषा से इतर भी
कुछ वाक्य बन जाते हैं,
और सभ्यताओं के नरसंहार
सिर्फ़ हथियारों से ही नहीं होते…..
3 – जड़ें
पिता लिखते-लिखते
पंजाबी के शब्दों में मिला देते
हिन्दी के शब्द,
मिली जुली मात्राएं उभर आती
शब्दों में चित्र बन,
दिल्ली में रहती मौसी
अपने पड़ोसियों से हिन्दी में बात करते-करते
पंजाबी बोल उठती,
हमारे साथ पंजाबी बोलते वक़्त
मिला देती हिन्दी,
मैं पिता के लिखे हुए शब्द
बिना कठिनाई के पढ़ लेता
जैसे मौसी के पड़ोसी समझ लेते उसकी बात,
कभी कोई बांग्ला भाषी मिलता
तो पिता चहक कर बोलते बांग्ला
कभी-कभार थोड़ी ओड़िया भी
शहर जब छूटता है
तो सारा नहीं छूटता, थोड़ा सा
साथ चला आता है,
मेरे दोस्त ने बताया था अचंभित हो
पड़ोस के मोहल्ले में रहने वाले
उसके सहकर्मी ने
हम लोगों के लिए रिफ्यूजी शब्द प्रयोग किया
कुछ प्रश्नों का जवाब सिर्फ़ मुस्कुराहट होती हैं
उस दिन जब बेटे ने पूछा
हमारा गाँव कहाँ है?
मेरे कहीं नहीं कहने पर बस इतना बोला
होता तो अच्छा होता
वह फ़ुटबॉल उठा खेलने चला गया,
डूबते सूरज को देर तक देखते हुए
सोचता हूँ
इंसान की जड़ें कैसी होती है
कैसी होती है उसकी अपनी मिट्टी…
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1 टिप्पणी

  1. अच्छी हैं आपकी कविताएँ हरदीप जी!
    समीकरण
    पिता की नसीहतों में प्यार होता है,समझाइश ,प्रेम होता है।सुरक्षा की भावना होती है और होते हैं अपनी संतान के लिए बहुत सारे सपने। हम सहमत नहीं कि‌ पिता की नसीहतें दिल से नहीं पेट से निकलती हैं ।पेट तो जरूरत है और बल्कि प्रमुख जरूरत है। पेट की आग से बड़ी कोई आग नहीं होती परअपनी संतान के लिए पेट तक पहुंचाने का रास्ता पिता ही समझाते हैं। इसे अपन ऐसे भी कह सकते हैं की नसीहतें दिल से निकल कर पेट तक पहुँचती हैं। पेट गंतव्य है और दिल उद्गम।
    हम ऐसा ही सोचते हैं।
    नरसंहार
    जोर-जोर कर चिल्लाकर बोलने से सत्य को साबित नहीं किया जा सकता। पर यह देखने वालों को गलत संदेश देता है
    वर्तमान में तो ज्ञान की परिभाषा ही बदल गई है वास्तव में यह भावनाओं का दोहन ही है।
    आप किस बात से हम भी सहमत हैं कि सभ्यताओं का नरसंहार सिर्फ हथियारों से नहीं होता।
    जड़ें
    इस कविता के को पढ़कर ,खास तौर से रिफ्यूजी शब्द से हमें थोड़ी सी तकलीफ हुई। इस शब्द की पीड़ा को हम महसूस कर सकते हैं इसलिए नहीं कि हम रिफ्यूजी थे। इसलिए की कुछ रिफ्यूजी हमारे बहुत खास थे। हमने उनकी पीड़ा को महसूस किया।
    हमें कभी-कभी बहुत दुख होता है कि हम इंसान क्यों नहीं बन पाते। संगति में रहते हुए हम दूसरों से कितना कुछ सीख लेते हैं और भाषा में तो सबसे पहले परिवर्तन आता है जैसा कि आपने लिखा भी।
    पर दूसरे के लिए एक अच्छा इंसान भर नहीं बन पाते।
    और फिर अपनी जमीन से उखड़ने का दर्द भी कुछ कम नहीं होता है।
    इस कविता की पीड़ा हमें महसूस हुई।
    तीनों ही बेहतरीन कविताओं के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।

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