ज़िंदगी में अनमने कुछ मोड़ आये हैं
अश्क़ का ऊँचा घराना छोड़ आये हैं।
इक परायापन दिखा अपनों में भी जब से
शबनमी संगत से नाता तोड़ आये हैं।
बेअदब व्यवहार में मुझको दिखे वो जब,
घर में उनके कुछ सलीके छोड़ आये हैं।
हर घड़ी बंदिश विचारों पर मिली हमको
एक बल माथे का अब घर छोड़ आये हैं।
कब कहा था कैद रिश्तों में करो आकर्,
रुढ़ियों की बेड़ियाँ अब तोड़ आये हैं।
टूटने के दौर में किरचों से क्या डरें!
क्या गिनें दर्पण पे कितने जोड़ आये हैं।
रश्मि जी अच्छी गजल है आपकी।
कुछ शेर जो अच्छे लगे-
बेअदब व्यवहार में मुझको दिखे वो जब,
घर में उनके कुछ सलीके छोड़ आये हैं।
हर घड़ी बंदिश विचारों पर मिली हमको
एक बल माथे का अब घर छोड़ आये हैं।
टूटने के दौर में किरचों से क्या डरें!
क्या गिनें दर्पण पे कितने जोड़ आये हैं।
आँसुओं से द्वार धोकर हम चले थे फिर
देहरी दीपक जलाकर छोड़ आये हैं।,
हमें गजल की ज्यादा जानकारी नहीं किंतु जो शेर अच्छा लगता है,जिसका भाव अच्छा लगता है वही लिख देते हैं।
बधाई आपको।
सादर धन्यवाद आदरणीय दीदी, आपका स्नेह पाकर धन्य हो गई हूॅं।