Wednesday, September 18, 2024
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ज्योति रीता की कविताएँ

1 – एक स्त्री- बेयाट्रीस वुड
इतिहास में स्त्रियों के किस्से काट-छांट कर लिखे गए
स्त्रियों की चाहनाओं को मृत देह की तरह दफनाया गया
दफ़न स्त्री कब्र के अंदर भी कुलबुलाती रही
वह जीवित थी
उन्हें मृत मान लिया गया
हाथ पैर मारने पर कुछ कदम चल पाई थी
पर यह कदम घर से द्वार तक निकलने भर का था
देह से देहरी तक स्त्री का निकलना वाज़िब रहा
पर देहरी के बाहर माकूल नहीं माना गया
जीने को आतुर स्त्री चीखती रही
हर चीख गले तक घुट कर मूक  हँसी सी सुनाई देती
घुंघट में स्त्री के घुटन का अंदाज़ा किसी को नहीं था
बिस्तर पर पड़ी स्त्री के ऑंसू  ढूलकते रहे
उन आँसूओं को मज़े की बात कही गई
अर्धरात्रि को आसमान निहारती स्त्री
ढूंढती कोई सीढ़ी
एक हाथ
जो खींच ले उसे अपनी ओर
छाती से लगाकर चूम ले उसका माथा
पहाड़ों को काटकर रास्ता बनाती स्त्री
स्वयं पहाड़ थी
हर ओर से दरिद्र स्त्री कंठाग्र कर रही थी ककहरा
उनके सिले होंठ हिल रहे थे
कमर में खजरी पीठ पर बच्चा लादे
भंडारगृह से निकल आईं थी
सबसे ऊपरी टीले पर खड़े होकर बेयाट्रीस वुड ने कहा-
इतनी सारी ग़लतियां सिर्फ़ बिगड़ी हुई, बहादुर औरतें ही कर पाती हैं
यह ग़लतियां उन कंकर पत्थरों जैसी हैं, जिनसे आखिरकार सड़क बन जाती है ।।
2 – अरसाबाद ख़ारिज हुए हम
उस रात के बाद की सुबह कसैली हो गई थी
हर जगह छितराव
हर बात में ग़ैरत (चुग़ली)
हर चीज़ में सड़न
हर बयान बरख़ास्तगी थी

वक्त की तरलता में हम बह निकले थे
अनायास दूसरा पहर क़स्साबी हो गया था
तुम वक्त की कतरन से एक पक्षी चुरा लाए थे
तुम कापुरुष से पुरुष हुए थे

देह से कई-कई परतें उतर रही थी
सीली जगह पर एक पौधा उग आया था
समय बीता हो जैसे
तुम्हारा आना तय था
तुम्हारा जाना तय था

कोई खाली पात्र लबालब भर दिया गया था
पात्र स्पर्श से ही कुछ बूंदें छलक पड़ी थी

कुठला में रख छोड़ा था तुम्हारा दिया प्रेम
कौतुक तुम्हारा आना भी
कौतुक तुम्हारा जाना भी

अरसाबाद ख़ारिज हुए हम
प्रेम चौपड़ हुआ
ख़्वाबगाह गड़ापे गए
प्रेमी चिड़िहार (बहेलिया) हुआ

प्रेम गतायु हुआ
प्रेमी गतांक हुआ।।

3 – मैं जीना चाहती थी तुम्हें

मैं जीना चाहती थी तुम्हें
मैं तुम्हारे उघड़े सीने की भीत पर
लिखना चाहती थी कुछ छोटी-छोटी कविताऍं
उनमें भरना चाहती थी भाव

तरलता से उठते ज्वार में उबडूब सकूं
जमा करना चाहती थी अंजुरी भर पानी

तुम्हारे संग कुछ पखवाड़े बिता सकूं
गढ़ना चाहती थी एक छप्पर
द्वार पर टांगना चाहती हूँ वंदनवार

जीवन जो तमाम बातों पर खर्चती हूँ
अब थोड़ा बचा लेना चाहती हूँ।।

ज्योति रीता
ज्योति रीता
एम.ए., एम. एड. (हिन्दी साहित्य). प्रकाशन : देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ लगातार प्रकाशित हो रही हैं। महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर कविताऍं प्रकाशित। अभी तक पाँच साझा काव्य संग्रह में कविताएँ प्रकाशित। कविता संग्रह "मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ।" के लिए 2020-21 हेतु बिहार सरकार से अनुदान प्राप्त। सम्प्रति - अध्यापन (बिहार सरकार) संपर्क - [email protected]
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