1 – लौटा दो
लौटा दो मेरे वो पल
जिनमें जन्मीं
वो नन्ही कोशिकाएँ
जुड़ीं और जुड़कर
पनपीं, विकसित हुईं
लहलहाती फसलों
की खेप में..।
लौटा दो मेरे रिक्तता से
लबालब छलकते वो पल
जिनमें महसूसी  थीं
उसाँसों की गमाईश
और पलकों की छोरों पे
ठहरी ओस सी नमी
लौटा दो मेरी तलाश के
वे अगणित लम्हे
जिनमें कूट कूट कर भरी थी
मेरी स्पृहा की मृत देह
मेरी ही इन हथेलियों ने…!
नहीं लौटा सकते गर
तो छू लो इक बार
उन अनाम रिश्तों की
बोझिल पगडंडी को
अपने सुस्त क़दमों से
जिनपर चलकर
कुछ हमने
कभी तुमने
पुल का खेल
सार्थक किया था…!!!!
2 – तुम्हारी याद
तुम्हारी याद भी अजीब है-
कभी जंगल सी
उलझा देती है यादों के सिरे
तो कभी
पगडंडी बन सर्प सी लोटती है
मेरे सीने पे..;
कभी हथेलियों से फिसलते
रेत सी
नहीं बनाने देती
घरोंदे…!
कभी
बादलों में आकृतियाँ
ढूँढती ठिठकी यादें
पल पल पैरहन बदलतीं
तो कभी
तुम्हारी पीठ पर
उँगलियों की पदचाप
एक नई भाषा बुनती..!
यूँ तो
यादों ने भी
मेरी तरह
मौन को परिभाषित कर
समेट लिए हैं
अपने डैने
अगली उड़ान की तैयारी तक…!
3 – इश्क
खामोशियाँ आज चहक रहीं थीं
उनके चटखने की आवाज़ें
झरनों को मात दे रही थीं
थिरकती नाचती,
बल खाती संवेदनाएँ
अपने हर हुनर को बखूबी
पेश कर रही थीं।
साँसों की घनघोर घटाएँ
फर्श पर बिखरे टूटे घुँघुरुओं सी
अपने अस्तित्व का
एहसास करा रहीं थीं!
उम्र के  इस पड़ाव पर उसे इश्क़ हुआ था
जब अपने बच्चों को कॉलेज भेजकर
माताएँ राह देखती हैं पति के दफ़्तर से लौट आने की
जब अचार को धूप लगाती स्त्रियाँ
मन ही मन बुनती हैं
बेटी के ब्याह के सपने
जब बेटे को पिता- संग दाढ़ी बनाते देख
गर्वित पिता और आँखों में मुस्काती माँ
संजोती है अधबुने ख़्वाब…
इस उम्र में…
अब्ब
कुछ अजीब सा होना लगा
ये अपने होने का एहसास है या कुछ और…!
कभी बच्चों की रिपोर्ट- कार्ड पर गढ़ी आँखें
बोने लगीं हैं
लाल कुकुरमुत्ते…
लहलहाती फसलों में
खुद को ढूँढने की ख्वाहिश
बेसाख़्ता परवान चढ़ने लगी है;
क्योंकि आज
खामोशियाँ बोलने लगी हैं।
जी हाँ !
मुझे इश्क़ हुआ है..!!!
अपने से
अपने वजूद से…!
कभी वक़्त को जकड़ा था
मुट्ठियों में
कभी थमी नहीं थी रफ़्तार
घड़ी की सूइयों की
आज खुली मुट्ठियों से
दरकते रेत को
आज़ाद कर दिया है।
वक़्त को
हवा के गुब्बारे में भर
छोड़ दिया है…
यूँ ही उन्मुक्त आकाश में।
आज
अनायास ही पा लिया
अपने -आप को।
अभी तो बातें होंगी….
रात- रात भर…
हँसी- ठिठोली से गूँजेगा
सूना घर- आँगन
गौरैया सा चहकेगा
मेरा घौंसला…!!
सचमुच
मेरी खामोशियों को
आज ज़ुबाँ मिल गई !!!

2 टिप्पणी

  1. आदरणीया नोरिन जी की तीनों कविताएँ श्रेष्ठ हैं और सोचने के लिए प्रेरित करती हैं।

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