• प्रज्ञा मिश्र

सौ वसुओं की मृत्यु का स्वांग
मेरे खुशहाल घर दरवाज़ों से
ख़बरों वाली गली निकलती है,
मैंने चुना है अनसुना करना,
निर्मम दृश्यों को अनदेखा रखना।
उनसे एक टीस उठती है!
टीस मेरी नींद माँगती है,
नींदें जान माँगती हैं
मैं ज़िंदा रह लूँ?
सह लूँ सारा सच ?
जिन्हें कन्धे से चढ़ते
कानों तक जाते अचानक
झिड़क दिया मैंने।
कहीं धँस न जाएं हॄदय
या फेफड़ों में बीच।
जैसे एक कौर अटक जाती है,
प्राण लेने तक
मैं साँस ले लूँ?
देख लूँ दाह के दृश्य?
जिनमें बिन सुलगी चितायें
चीत्कार से भस्म हो रहीं है।
माँ!
माँ!
आँखें खोल
तू क्यों रो रही है?
ये विभीषका नहीं है माँ!
सवांगयुक्त मुक्ति हो रही है!
देख पानी खत्म हो रहा है!
धरती जलमग्न हो रहा है!
मिट्टी पाप ढो रही है!
मैं निष्कंटक इस चक्र
से निजात पा रहा हूँ।
कहो कहीं सभ्यता का
असमय अस्त हो गया सूर्य
जाने कौन योनी जाऊँगा?
अच्छा है !
अच्छा है!
गंगे ! मैं, तड़के फिर मर जाऊँगा ।
दस्तक
रास्ते में पड़ा मेरे काम का समान
किसी और को दे दिया जाए
मुझे उन कमरों तक बढ़ने दिया जाए
जहाँ दिल रहता है
जहाँ मैं रहती हूँ।
एक रौशनी जुगनू जैसी
रोज़ रात खिड़की पर आती है ,
ठंड का बहाना है और सारे पर्दे बन्द,
देती रही दस्तक मुझे
पास बुलाती है, डराती है
अजन्मी आकांक्षाओं का प्रेत बनकर
कौंधती है मस्तिष्क में
कागज़ पर नई सम्वेदनाएँ रचकर।
तेरा मेरा बचपन
किताब में बंद गुलाब के सूखे फूल
अलमारी में तह लगे खिलौनों के सेट
नहीं रहे मेरी परवरिश में
मुझे मिले कीड़े लगे चने
छाँट कर पका लेने के लिए।
ट्रेन और बसों में
ऊँघती पसीने की बदबू
एक बचपन बिता देने के लिए।
तुम आबाद हुए,
मेरी कलम फली फूली।
बहुत दिया ऊपर वाले ने
याद में छपवा देने के लिए।
किसी का कुछ घाटा नहीं है,
कोई खाली हाथ जाता नहीं है
तुम्हारा का सब कुछ आसान
मेरा का सब कुछ आसमान
तुम्हारे तोहफे शीशों में बंद,
शान बढ़ाते हैं हाकिम हो।
मैं महज़ ढूँढती हूँ एक घर
कविताओं में बसा लेने के लिए।
महुरत
चार दीवारी टूटती है
न बेगारी की चौखट छूटती है
मौन कब तक बेचैन बंधे रहें
किताब की सेज पर बिछने को
महुरत की देह पर लोहे की सील है
न कैंची से कटती है
न हथोड़े से चटकती है
लिखने सोचने वाली औरतें अक्सर
घरों दफ़्तरों में खटकती हैं।
इस बार छुट्टियों में
जहाँ छोर खत्म होती है
पुल के उस मुहाने पर
एक बसेरा बनाएंगे,
छोटी सी नाव में बैठे
लहरों से करेंगे बातें
इस बार छुट्टियों में
बहुत दूर जाएंगे
पसरा हुआ आसमान
कितना मुझसा लगता है
जैसे साल भर की थकान
मिलकर समन्दर में घोलता है
इन हवाई बरामदों में
बेसुध सो जायेंगे
इस बार छुट्टियों में
बहुत दूर जाएंगे।

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