कविताएं – डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर

 

बादल से धूप लिपट गयी वे

 

भीगी लग अंग सिमट गयी वे

हिया में नाच उठा मन मोर

चहुँ दिशि बरस गया घन घोर

गरज से कच्ची नींद उचट गयी वे

सपने से जाग के उठ गयी वे

हाथ में लिये खींचती डोर

पतंग ले कौन दिशा की ओर

हवा ये रास्ता छोड़ भटक गयी वे

उलझन के हाथ झटक गयी वे

 

जियरवा उड़े गगन की ओर

नयन में बसा चाँद चित चोर

चकोरी नयनों बीच अटक गयी वे

शीशे सी लाज चटक गयी वे

बादल से धूप लिपट गयी वे

भीगी लग अंग सिमट गयी वे

 

  1. ये जमीं ले गई, आसमाँ ले गई

क्या खता दिल मेराआशना ले गई

एक बादल इधरआँख में भर गया

एक बारिश उधर ये घटा ले गयी

फूल शाखों से तोड़े व कुचले गए

आँधियाँ मुस्कराती अदा ले गई

उस मुहब्बत का वो कारवां अब कहाँ

ये हवा ख्वाब का सिलसिला ले गई

चाँद डूबा जो दिल का हँसी फिर कहाँ

भोर आई तो संग में सबा ले गयी

एक पत्थर जो सीने पे रक्खा गया

सांस ही जिंदगी को दबा ले गयी

दर्द के एक झरने से निकली थी मैं

दर्द की इक नदी ही बहा ले गयी

 

  1. एक मोती बनाके रक्खेगा

तुझको दिल में बैठा के रक्खेगा

खूबसूरत सा रोज इक लम्हा

दिले- शाखे खिला के रक्खेगा

चाँद धरती पे जो न उतरा तो

अपनी मुट्ठी दबा के रक्खेगा

फासला भी अगर रहा उससे

ख्वाब अपना बना के रक्खेगा

रोशनी की नहीं कमी उसको

दिल चिरागा जला के रक्खेगा

फिर वो आएगा अपनी फितरत पे

ख्वाहिशें तह लगाके रक्खेगा

 

  1. ग़ज़ल…

 

वक्त का कोई पहर गायब है

उसकी बातों से असर गायब है

दिल ये आखिर बता दे तू मुझको

आँख ग़ायब या नज़र ग़ायब है

कोई सागर सा मरा है शायद

मेरी प्यासों से अधर ग़ायब है

कोई  जुम्बिश ही नहीं  कदमों में

किन्हीं  राहों से सफर गायब है

आँख मिलती ही नहीं सूरज से

धूप से कोई शजर गायब है

 

डॉ पुष्पलता मुज़फ्फरनगर, ईमेल – Pushp.mzn@gmail.com

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