ज़हर ही तो
मिलाया जा रहा है हर रोज़
मिलावटी खानों में
सौंदर्य प्रसाधनों में
बढ़ते हुए प्रदूषण में…….
ज़हर ही तो मिला है
ज़हर ही तो खा रहे है
ज़हर ही उगल रहे हैं
अपने शब्दों में
अपने विचारों में ………
ज़हर ही तो घुल रहा है
हमारी रग-रग में
ज़हर ही तो फैला है हमारे चारों ओर…..
न जाने यह अमृत कब बनेगा?
ज़हर ही तो है जो
सिर चढ़के बोल रहा है |
ज़हर ही तो है
जिसने आपसे में हम सबको
लड़ाया है…….
2. मेरा आईना
मेरा आईना करता है प्रहार
व्यंग्य का
जब कभी देखती हूँ आईना …
पूछता है मुझसे चेहरे की झुर्रियाँ
आखिर कब तक छुपाओगी
महंगी क्रीम से …
मेरे कपड़ो पर लगा है
नाक चढ़ाने
आते-जाते टोकता है मुझे
अब जँचते नहीं
लाल, गुलाबी सूट ढ़लते मास पे
मेरी घबराहट पे हँसता है मेरा आईना….
लेता है जायज़ा मेरे सिकुड़ते माथे का ….
हो रहें है बाल सफ़ेद
आँखें भी सफ़ेद होने लगी हैं
गेहरा सा निशान भी उभरने लगा है
माथे पे
अक्सर ऐसे ही नुक्ताचीनी
करता है आईना मेरा …
कभी-कभी कोसता है
कहाँ रख आई हो
भूली बिसरी मुस्कान को
किसी ड्रार में
मेरे घूरने पे चुप्प तो
रहता है
मगर देखता रहता है
मेरे थपथपाने भी मेरा आईना ……
3. तुम क्या जानो
हम पर क्या बीती
तुम क्या जानो
तेरा ही शहर था
तेरे ही लोग थे
ज़िस्मों के बाज़ार में
छोड़ आए थे तुम बहला फुसलाकर
मैं ढूँढ रही थी
तुम्हें गली-गली
तुम क्या जानो…
बिखरे हुए थे दिल के
टुकड़े-टुकड़े
नींद आँखों से उड़ी थी
ख्बाव महँगे थे
सिर्फ़ अहसास सस्ते थे
की थीं कोशिशें कि
ख्बा़वों को बिकने न दूँ
तुम क्या जानो…..
बेहशियों के चुंगल से
भाग निकली थी मैं
ख़ुद को बचाकर
फटे कपड़ों से छुपा रही थी|
अर्धनग्न शरीर को
न जाने कितनी ही आहें
भरी मैंने बैचेनी में
तुम क्या जानो….
बड़ी हिम्मत से
आँसूओं को थामा था
हाथ मुँह पे रखकर
सिसकियाँ भरती रही
दहशत के कोहरे से
ख़ुद को बचाकर
तुम्हें याद करती रही
तुम क्या जानो……
ज़ख्म के पौधे उगने लगे थे
मेरे सीने पे
मैं चाहकर भी इन्हें
इन्हें उखाड़ न सकी
दर्द से ऊँघती रही
छ्टपटाती रही
तुम क्या जानो ……
अच्छी लगीं सरोज बालाजी आपकी तीनों ही कविताएँ।
पहली कविता *’जहर’* आज की सच्चाई है। कहते हैं- जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन। जहर खा रहे हैं तो जहर ही उगलेंगे। और विचार भी वैसे ही होंगे अच्छी कविता है यह।
*’मेरा आईना’* कविता पढ़ने के बाद हमने आपकी फोटो को ज़ूम करके देखा।
कविता जैसा कुछ महसूस नहीं हुआ आपके चेहरे पर। बाकी आईना झूठ नहीं बोलता यह भी सच है।
*’तुम क्या जानो’* कविता ने हलचल मचा दी। वाकई जो भोगता है वही जानता है। तीनों कविताओं के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।
अच्छी लगीं सरोज बालाजी आपकी तीनों ही कविताएँ।
पहली कविता *’जहर’* आज की सच्चाई है। कहते हैं- जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन। जहर खा रहे हैं तो जहर ही उगलेंगे। और विचार भी वैसे ही होंगे अच्छी कविता है यह।
*’मेरा आईना’* कविता पढ़ने के बाद हमने आपकी फोटो को ज़ूम करके देखा।
कविता जैसा कुछ महसूस नहीं हुआ आपके चेहरे पर। बाकी आईना झूठ नहीं बोलता यह भी सच है।
*’तुम क्या जानो’* कविता ने हलचल मचा दी। वाकई जो भोगता है वही जानता है। तीनों कविताओं के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।