शीत बड़ी भरमावत पूनम ,व्याकुल ताक़त नार नवेली ।
चंद्रमुखी यमुना तट ढूँढत ,लालिम चूनर भावन चोली ॥
धीर धरावत कोउ नहीं अब ,चैनन खोवत है सुकुमारी ।
घूँघट के पट खोल रही अब ,चूभ रही नथनी बड़ भारी ॥
आवन साँवरे प्राणप्रिये सुन ,बाजत कानन कुंडल डोले ।
कानन मंगल गीत सुनावत ,पायलिया छनके कुछ बोले ॥
लाल महावर पाँव सुहावन ,कंगन मोतिन चंद्रक मोहे ।
चंचल मंजुल रूप लुभावन ,अंजन जो मृग नैनन सोहे ॥
लाल गुलाल सुहावन सुंदर ,अंबर प्रीत लुटावन चाहे ।
धीर धरे मन डोलत आकुल ,व्याकुल खोवत चैनन काहे ॥
श्याम सुदर्शन साँवरे मोहक ,गूंज उठी अब है शहनाई ।
मंद चली जब डेग धरे तब ,देख धरा चुपके शरमाई ॥
2 – एकआशाझिलमिलातीहैकहीं
राह कितनीहो कठिन परदूर मंज़िलहै नहीं ।
हर कदम परएक आशाझिलमिलातीहै कहीं ॥
लक्ष्य साधोमान कर यहजीत तेरीही रहे ।
दीप आशाकी जले तोतेल बनकरतप सहे ॥
आँधियों कोरोक लो तुमबाजुओं केज़ोर से ।
साथ रख विश्वास को परदूर रहना शोर से ॥
राह कितनीहो कठिन परदूर मंज़िलहै नहीं ।
हर कदम परएक आशाझिलमिलातीहै कहीं ॥
पर्वतों कोलाँघ कर तुममुस्कुराते बढ़ चलो ।
हार हो याजीत हो परसिर झुकाकर मत ढलो ॥
राह कितनीहो कठिन परदूर मंज़िलहै नहीं ।
हर कदम परएक आशाझिलमिलातीहै कहीं ॥
हिम्मतों केज़ोर से हरव्याधि सहतेबढ़ चलो ।
हर अमावसरात सौ-सौजुगनुओं-सीतुम जलो ॥
राह कितनीहो कठिन परदूर मंज़िलहै नहीं ।
हर कदम परएक आशाझिलमिलातीहै कहीं ॥
ग़र निराशा साथ होगी साँस भी घुटती कहीं ।
मौत ग़र आए नहीं तो आस छूटेगी नहीं ॥
राह कितनीहो कठिन परदूर मंज़िलहै नहीं ।
हर कदम परएक आशाझिलमिलातीहै कहीं ॥
3 – अपराजेय
मैं काल हूँ कराल हूँ ,नियमन-दीवार हूँ ।
मोहमायासेदूर ,निरंतरता- दीदार हूँ ॥
अबूझअपरिमितऔरअपराजेयहूँ ।
अज्ञात अनंत अभंग ,सृष्टि का ध्येय हूँ ॥
न छल से न बल से ,न बुद्धि के ज़ोर से ,
कौन मुझे जीत सका तूफ़ानी-शोर से ?
न आफ़त न विपत्ति ,न रंजिश न रंजित ,
न जीत न हार से ,आसक्त-तिरस्कृत ॥
बहता हूँ दरिया-समंदर की लहरों पर ,
दुनिया के नक़्शे,खूबसूरत शहरों पर ।
कभी बवंडर सुनामी ,कोरोना बीमारी ,
कहीं बनकर रक्षक,कहीं बन शिकारी ॥
अबूझअपरिमितऔरअपराजेय हूँ ।
अज्ञात अनंत अभंग,सृष्टि का ध्येय हूँ ॥
कभी चंचल हूँ,पतंग की ढीली डोर हूँ ,
मोहिनी दुनिया की ,बेबसी घनघोर हूँ ।
माँझी की कश्ती का जुल्मी हूँ साहिल –
घोर निशा की मैं स्वर्णिम-सी भोर हूँ ॥
कोई प्रशंसा करता है मेरा आसक्ति में ,
कोई कलंकित करता मुझे विरक्ति से ।
मैं तो पाप-पुण्यों का ,किंचित् फल हूँ ,
कहीं मुस्कां की रज़ा ,कहीं विफल हूँ ॥
अबूझअपरिमितऔरअपराजेय हूँ ।
अज्ञात अनंत अभंग,सृष्टि का ध्येय हूँ ॥
आपकी तीनों ही रचनाएँ अच्छी हैं शोभा जी!
पहला-छंद श्रंगार के माधुर्य भाव से ओत-प्रोत।
दूसरी-“एक आशा झिलमिलाती है कहीं” यह कविता हमें बहुत पसंद आई ।हर स्थिति में सकारात्मक सोच के साथ उम्मीद की किरण जगाती बेहतरीन कविता है यह।
तीसरी कविता-अपराजेयता! यह कविता हौसले, दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास ,की कविता है ।इंसान अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकता ।इस दृढ़ विश्वास के साथ यह उत्साह और हौसले की कविता है।
बेहतरीन रचनाओं के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको।
आपकी तीनों ही रचनाएँ अच्छी हैं शोभा जी!
पहला-छंद श्रंगार के माधुर्य भाव से ओत-प्रोत।
दूसरी-“एक आशा झिलमिलाती है कहीं” यह कविता हमें बहुत पसंद आई ।हर स्थिति में सकारात्मक सोच के साथ उम्मीद की किरण जगाती बेहतरीन कविता है यह।
तीसरी कविता-अपराजेयता! यह कविता हौसले, दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास ,की कविता है ।इंसान अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकता ।इस दृढ़ विश्वास के साथ यह उत्साह और हौसले की कविता है।
बेहतरीन रचनाओं के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको।
मैं निशब्द हूँ ,इनायत ईश्वर की तो है ही , आपसब की भी है ।हौसला आफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद !
शोभा प्रसाद