Saturday, October 5, 2024
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ज़हीर अली सिद्दीक़ी की कविताएँ

1- माँ
जिस दर्द से तू अनभिज्ञ रहा,
हर माह सहन वह करती है।
गर्भ से बाहर लाने तक,
अक्षम्य पीड़ा को सहती है।।
माहवारी जिसे नापाक  कहा,
नींव अस्तित्व की रखती है।
सुख-दुःख में एक समान रही,
हर सुख तुझमे ही भरती है।।
सौंदर्य का त्याग सदा करती,
नौ माह पेट मे रखती है।
दुःख को पतझड़ वह मान सदा,
बसंत तुझमे ही भरती है।।
त्याग उसी से शुरू हुआ,
प्यार उसी से जारी है।
कदमों में स्वर्ग बसा सके,
माँ नाम तभी तो भारी है।।
क्यों कहता है वह नारी है,
पितृ सत्ता की अधिकारी है।
भूल गया तू जननी को,
दूध के कर्ज़ की बारी है।।
2- वबा से बचाकर…
आज जब धरा पर
रोते बिलखते बन्दे
इस मर्ज़ से बचाकर
निजात दे दे मौला।।
न जाने कितने दीपक
तूफ़ान से बुझ रहे हैं
तूफ़ान की बेरुख़ी से
सबको बचाले मौला।।
जब भी तेरी जरूरत
साये सा बन खड़ा था
राह-ए शुकुन में दाता
तू रहम फ़रमा सबको।।
आज जब अंधेरा
दिन-रात बढ़ रहा है
रहमोकरम से अपने
रोशन जहाँ को कर दे।।
जिस राह मैं चला था
इंसानियत से नाता
पर आज हूँ जहाँ मैं
इंसानियत ना भाता।।
दौलत की चाह में मैं
हैवान बन गया था
इंसान का शक्ल है
इंसां बना दे मौला।।
दुःख की घड़ी में हरदम
फ़रमाया रहम मुझको
इस ‘वबा’ से बचाकर
ख़ुशियाँ नवाज़ सबको।।
3- दो खांका
पैदा होते ही शिशु के
जीवन का किला और
जीने की कला का
तैयार होता है दो खांका
एक उसके सपनों का संसार
सृजनकर्ता ख़ुद होता है
उसी में खोया रहता है
दूसरा उसके लोगों द्वारा
जिसमें दूसरों के सपने
ख़ुद का कुछ भी नही
बस थोपा जाता है
पूरा करने के कश्मकश में
ख़ुद को जाने बग़ैर
जिंदगी को जिये बिना
पूरा हो जाता है’जीवन-चक्र’…
ख़्वाब और दिली तमन्नाऐं
कभी पूरे होते हैं तो
कभी अधूरे रूप में ही
काँच के माफ़िक बिखर जाते हैं
यतीम हो जाते हैं लोग
अपनो के ही बस्ती में…
साकार सपना भी अपना नही
महज़ रेत का घरौंदा है
एक छोटा तूफ़ान काफ़ी है
वजूद मिटाने को
अपना कुछ भी नही यहाँ
जीवन काल निश्चित नही
अपने भी सुनिश्चित नही
सबकुछ क्षण भंगुर है…
शरीर जिस पर हम
गुमान करते हैं, इतराते हैं
विलीन हो जाता है पंचतत्व में
कभी शिशु रूप में
कभी वयस्क रूप में
तो कभी वृद्ध रूप में
कभी जन्म से पूर्व
तो कभी जन्म के पश्चात
कुछ भी वश में नही
सेकण्ड का फ़ासला है
जीवन-मृत्यु के बीच…
याद रखा जाता है तो
किया गया नेक काम
भूखे को खिलाया रोटी
प्यासे को पिलाया पानी
बेघर को दिया गया आश्रय
निर्वस्त्र को पहनाया गया वस्त्र
वास्तविक पूंजी यही है
जीवन से मृत्यु की…
4-हट जाता हूँ
सम्बोधित मानव से करता
मानवता का पाठ पढ़ाता हूँ
मानव के असल विचारों से
सहज-सहज हट जाता हूँ।।
सिसकते बच्चों के राहों से
सहज-सहज मुड़ जाता हूँ
भूख, प्यास का ज्ञान लिए
अज्ञानी बन ध्यान हटाता हूँ।।
ममता का पाठ मेरे मुख से
मैं ही माँ को  ठुकराता हूँ
निंदक बनता दौरे ए जहाँ का
ख़ुद निंदनीय हो जाता हूँ।।
लोगों का शुभचिंतक बनकर
विपदा में अशुभ विचार रखा
जो समय राह बनने का था
गड्ढा मैं राह में खूब किया।।
नस-नस में विष-रक्त प्रवाह
विषरहित की इच्छा  झूठी है
विष के प्याले से की घृणा
विषपान करूँ मन तबसे है।।
इस विष से मृत्यु नही होती
आत्मा मनुज  मर जाती है
विष उपज, अन्न में मिल जाता
विषाक्त समाज को कर जाता है।।
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