पिछले दिनों पुरवाई के संपादक तेजेंद्र शर्मा जी ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखते हुए कोरोना महामारी से उपजी परिस्थितियों पर कविताएँ-ग़ज़लें  लिखने का आग्रह किया लेकिन यह शर्त भी रख दी कि इन रचनाओं में कोरोना शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए। इसके बाद हमें इस विषय पर ढेरों कविताएँ-ग़ज़लें प्राप्त हुईं जिनमें से गहन मंथन के पश्चात हमारे संपादक मंडल ने सोलह कवियों की रचनाओं को प्रकाशन के लिए चुना है। प्रत्येक कवि की एक (छोटी होने के कारण अमित कुमार मल्ल की दो) रचना ली गयी है। कुछ कवियों की एक से अधिक अच्छी कविताएँ भी थीं, जिन्हें अगले सप्ताह लेने का प्रयास रहेगा। हमें आशा है, कि पुरवाई टीम का ये प्रयास कोरोना के इस काल में पाठकों के लिए रोचक, पठनीय और सार्थक सिद्ध होगा।

डॉ. कविता विकास की ग़ज़ल
हर सम्त कब्रगाह – सा मंज़र बना दिया
इक वायरस ने हाल यूँ बदतर बना दिया
उनके ही दम पे जीना मुनासिब था शह्र में
उनको ही आज शह्र ने बेघर बना दिया
साहस से भर तिजोरी चले अपने गांव को
रोटी की चाह ने इन्हें मुज़तर बना दिया
जी लेंगे फ़ासलो में भी इक दूजे के लिए
गर मौत ने करीबी में इक डर बना दिया
मज़हब की हर किताब मुहब्बत है बांटती
हमने ही इसके हर्फों को खंजर बना दिया
इंसानियत की हमसे न भाषा तू पूछ अब
हमने तो पत्थरों को भी परवर बना दिया
बी. एल. गौड़ की कविता – डर
खुली सड़क पर सूखे पत्ते
शोर मचाते खरर खरर
आठ दशक देखे हैं हमने
कभी न व्यापा ऐसा डर ।
कहते एक राक्षस आया
देखा जिसने यूं बतलाया
सर्पदंश से बहुत भयानक
नहीं पकड़ में अबतक आया
यदि तुम इससे बचना चाहो
कर लो बंद किवाड़ें अपनी
यदि कोई अर्गला बजाए
कह दो लौटो अपने घर ।
मजदूरों में कितना डर है
फरमानों का नहीं असर है
मेले जैसी भीड़ सड़क पर
गठरी एक रखी सर पर है
पैदल ही चल दिये शहर से
लम्बा इनका कठिन सफर है
सोच रहा इनका हर साथी
कैसे पहुंचे अपने घर ।
भावना सक्सेना की कविता – वक्त थोड़ा और ठहर
नदी कलुषित थी बहुत
ठहरा मनुज,
गर्द सारी बह गई
साँस घुटती थी जिसमें
वायु भी तो स्वच्छ
स्वयं ही हो गई
है धरा निखरी नई सी
सुबह शीतल ताज़गी है
रात ओढ़े तारे जगमग
खिले-खिले बाग उपवन
हो रहे हर्षित सभी
ज़िन्दगी सहमी हुई बस
फिर भी कहना है यही
वक्त थोड़ा और ठहर
मैल मन में है अभी…
है अति आडम्बर की
सोखनी है विनय अभी
स्व को अब तक पोसता जो
बीजने को करुणा उसको
वक्त लगेगा अभी
मैं मेरे के फेर से पाए निकल
उस ठौर का रास्ता बड़ा लम्बा अभी।
दिविक रमेश की कविता – मैं खुश नहीं हूँ साथियों
मैं खुश नहीं हूँ
नहीं हूँ खुश तुम्हें बेतहाशा भागते देखकर साथियो
देखकर
भोगते हुए महज अगली किश्त मजबूरी की।
मैं खुश नहीं हूँ दोस्तो
आखिर कब तक भागना है तुम्हें हर हाल
कभी इधर, कभी उधर।
कब तक खेलना है खेल
जो नहीं ले जाता है कहीं भी।
कब तक चलते रहोगे तुम
लादे खुद को ही खुद पर।
कब तक नहीं समझोगे वह धूर्तता
जो लदी रहती है
तुम्हारा ही रूप धर तुम पर।
तुम्हें अदृश्य कर
तुम्हारे हाथों से वे
अपनी पीठ थपथपाने में माहिर हैं
माहिर हैं तालियां बजवाने में।
वे क्षमा मांगेगे
पर चाहेंगे कि बनी रहे तुम्हारी भूख सदाबहार,
कि बने रहें वे ही
तुम्हारी भूख मिटाने वाले देवता।
वे क्षमा मांगेगे और चाहेंगे
कि सिकुड़ी रहे तुम्हारे घर की परिभाषा
एक मामूली से
भूगोल के टुकड़े में
ठीक जैसे चाहते हैं वे
कि सिकुड़ी रहे तुम्हारी सोच
संकीर्ण सी गलियों में।
वे क्षमा मांगेगे पर चाहेंगे
कि बना रहे तुम्हारा भागना
तुम्हारी सबसे बड़ी पहचान,
ठीक जैसे भाग-भाग कर
बदलते रहना जगह
पहचान है तुम्हारी झुग्गियां की
शहर में।
खुश नहीं हूँ साथियों
खुश नहीं हूँ कि तुम
आज तक नहीं सीख पाए रुकना,
नहीं जान पाए कि यही है उनकी सबसे बड़ी जीत।
एक बार,  बस एक बार
रुक कर देखो
बन कर देखो चट्टान,
भागना उन्हें पड़ेगा।
मैं नहीं खाऊंगा तुम पर दया
मैं नहीं बहाऊंगा तुम पर आंसू
नहीं चलाऊंगा अपना गुस्सा,  तुम्हारे कंधों पर रखकर
क्योंकि मैं खुश नहीं हूँ साथियों!
डॉ. पुष्पलता का गीत
हादसों की हादसे हैं गोद में
रहनुमा वो  व्यस्त है  किस शोध में
जहर ने कर ली हवा से दोस्ती
कर न ले मौसम सुहाना खुदकुशी
नाचना तुम फिर कभी आमोद में
शहर में गिरती  हुई मीनार से
दूर हट कर रह किसी संहार  से
बैठ जा निज आशिये की गोद में
शहर में अदृश्य हैं कुछ बाघ से
दाँत और नाखून फिरते झांकते
खिड़कियों निकलो नहीं प्रतिरोध में
ए री गलबहियों चलो सब जोग लो
दूर रहना है  तुम्हें मत भोग लो
हाथ अपने बांध तन्मय योग में
स्वर्ण ज्योति की कविता – मजा
घर की चारदिवारी के बीच
अकेले जीने का
मज़ा ही कुछ और है
हर कमरे के हर कोने से
लिपट कर बैठने का
मज़ा ही कुछ और है
यूँ तो हर चीज़ है करीने से
फिर से उन्हें ही सजाने का
मज़ा ही कुछ औऱ है
दीवारों पर कई यादें टँगी हैं
फिर  से उनको  याद करने का
मज़ा ही कुछ और है
सही-सही  नाप से बना है यह घर
फिर भी रोज़ कदमों से नापने का
मज़ा ही कुछ और है
अब बस हम तंग आ गए
इस तन्हाई से
तो एक साथी ले आए
साथी को सहेज कर
रखा सलीके से
उस की आँखो में
खुद को देखकर
जीने का मज़ा  ही
कुछ और है
खुद के साथ जीने का
मजा ही कुछ और है ……
अनुपमा अनुश्री की कविता – सुखद पुनर्निर्माण
हवा हवाई ज़िन्दगी के पहिए रोकना भी  जरूरी,
समझते कहां हम , उड़ते जाते है
बड़ी उम्मीद, आशाओं ,
महत्त्वकांक्षाओंं के वजनी  बैक बैग लेकर,
कंधों को आराम  भी जरूरी।
देखते नहीं खुद को, किसी को,
चरैवेति सही ,पर कैसी हो दिशा,
देखने का न समय, न इक्छा,
अपने को ,अपनों को ,सपनों को
सही गति देने के लिए,
ठहरना, अल्पविराम भी जरूरी।
बिखरना, पुनः जुड़ने के सुख के लिए,
गिरना , फिर न गिरने  के सबक के  लिए,
टूटना भी पड़ता है फिर संवरने के लिए,
रूकना भी पड़ता है दुगनी ऊर्जा से फिर चल पड़ने के लिए,
ये सब वज़ूद के
सुखद पुनर्निर्माण के लिए  ज़रूरी।
गिरीश पंकज का गीत
सुबह-शाम अब नजरबंद -सा,
अपने घर ही रहिए ।
सुबह-शाम अब नजरबंद -सा,
अपने घर ही रहिए ।
बहुत हो गया सैर सपाटा,
अब हो कुछ आराम।
मात-पिता के संग भी रह लें,
कर लें उन्हें प्रणाम।
अगर गलत हूँ, तो फिर
अपने मन में क्या है कहिए।
सुबह-शाम अब नजरबंद-सा,
अपने घर ही रहिए।।
अगर ना होता यह ‘आतंकी’,
घर हमको क्या भाता?
क्या बीवी, क्या बच्चे,
अपना किन से रहता नाता।
अब तो लॉक हुए हैं खुद से,
पाप चीन का सहिए।
सुबह-शाम अब नजरबंद-सा,
अपने घर ही रहिए।।
करें कोई गलती उसको अब,
भोगे सारी दुनिया।
बाहर खेल नहीं पाती है,
इक नन्हीं-सी मुनिया।
थम गए सहसा दुनिया भर में,
अब जीवन के पहिए।
सुबह-शाम अब नजरबंद-सा
अपने घर ही रहिए।।
बाहर खतरा बीमारी का,
और डंडे का भय है।
घर पर रहने से ही समझो,
वायरस पर जय है ।
फोन करें, सब घर आएगा,
जो अपने को चहिए।
सुबह-शाम अब नजरबंद-सा,
अपने घर ही रहिए।
अमित कुमार मल्ल की दो क्षणिकाएँ
1
सड़क है
दुकाने है
माल है
होटल है
सब खड़े हैं
सब रुके है
सब निर्जीव है
क्योंकि
सांसे नही चल रही है
जिंदगी नही चल रही है
आदमी नही चल रहा है
2
शहर के
सन्नाटे  का
शोर सुनकर
जंगल के जानवरों को
लगा,
जंगल की
सीमा
पहले जैसे
हो गयी
रजनी मल्होत्रा नैयर की कविता
प्रकृति की बड़ी चुनौती मानस और विज्ञान को
ग्रहण लगेगा घर से बाहर जाने वाले इंसान को
विश्व के कई देश  विवश हैं और हुए लाचार  बड़े
मौत का तांडव देख रहे हाथ बाँधे मूक खड़े खड़े
अदृश्य शत्रु का वार न भूलें इस बात इस संज्ञान को
ग्रहण लगेगा घर से बाहर जाने  वाले    इंसान  को
आज से अधिक दुर्गम होगा जो आनेवाला कल है
प्रकृति हुई है क्रुद्ध जिससे मिल रहा ये प्रतिफल है
छल बल से वो लगा हुआ है मानव के सन्धान को
ग्रहण लगेगा घर से बाहर जाने वाले इंसान को
है कोई प्रकृतिक आपदा या ये जैविक हथियार है
ये तो विश्व के समूल नाश को लालायित  तैयार है
व्यर्थ नहीं होने दीजे इस समर में हुए बलिदान को
ग्रहण लगेगा घर से बाहर जाने वाले इंसान को
असल धैर्य की है ये परीक्षा हम इसे नही खोने  देंगे
चीन जापान इटली यू एस ए भारत को नही होने देंगे
कई वर्षों  कर देगा पीछे ये जीवन  के  उत्थान  को
ग्रहण लगेगा घर  से  बाहर जाने  वाले  इंसान  को
बुरा वक्त भी टल जाएगा सबका वक़्त बदलता है
पतझड़ के आने से ही तो पुष्प  बाग में  खिलता है
भेदरहित हो नाश करें इस मानवता के व्यवधान को
ग्रहण लगेगा घर से बाहर जाने  वाले  इंसान   को
सीमित संशाधनों  में भी  हम  इससे    मुक्ति   पाएँगे
संस्कृति के बल हम विश्व गुरु थे विश्व गुरु कहलाएंगे
खंडित हो क्यों करें कलंकित मानव के सम्मान  को
ग्रहण लगेगा घर से  बाहर  जाने  वाले   इंसान   को
डॉ. तारिका सिंह की ग़ज़ल
तबाही के आसार नज़र आने लगे
लोग घरों में बीमार नज़र आने लगे
रौनक ए शहर फ़ीकी पड़ गई यहाँ
ठप्प सारे कारोबार नजर आने लगे
मुख्तलिफ रंगों सी ज़िंदगी जीने वाले
सुफियाने उनके विचार नज़र आने लगे
घर से निकलना तो ख़तरे में पड़ना है
वक़्त के आगे नाचार नज़र आने लगे
शहर ए ख्याल में ही मिला किए जो
जिंदगी के तलबगार नज़र आने लगे
देते थे तेज दौड़ने की मिसाल सबको
एक अरसे से बेकार नज़र आने लगे
इंसान की रफ़्तार धीमी पड़ गई मगर
कुदरत संग खिलवाड़ नज़र आने लगे
वक्त है मुश्किल मगर गुज़र ही जाएगा
लोग भी अब होशियार नज़र आने लगे
आज भी वो भूखों को रोटी खिलाता है
मुसीबत में अच्छे संस्कार नज़र आने लगे
दुनियां को बना डाला हथियारों का ज़खीरा
एक विषाणु के आगे लाचार नज़र आने लगे
फिर भी उम्मीद है ये जंग जीत जाएंगे हम
जरा थम कर जीत के दावेदार नज़र आने लगे
आशुतोष कुमार की कविता
कितने मज़बूर हैं आज देखो सभी
क़ैद घर में ही हैं हम सभी के सभी
ग़ैरों की बात क्या ख़ुद के साये से भी
बच रहेें हैं अभी हम सभी के सभी
है फ़िज़ा में घुली जाने कैसी ज़हर
पहरा साँसों पे है गाँव क्या क्या शहर
मरते जाते हैं लोग रात दिन इस कदर
डरे सहमे से हैं हम सभी के सभी
रास्तों पर भटकते बस सन्नाटे हैं
दिन गुजरता नहीं लम्बी ये रातें हैं
आएगी नई सहर इसी उम्मीद में
जी रहे हैं यहाँ हम सभी के सभी
उन ग़रीबों की कितनी है तंग ज़िन्दगी
एक रोटी को करती नित जंग ज़िन्दगी
भूख से बिलखते बच्चों की वो सदा
बस हैं ख़बरों को तकते हम सभी के सभी
ऐसे वीरों को है हम सब का ह्रदय से नमन
सेवा में अर्पण की जिसने तन मन और धन
वो सलामत रहें उम्र बढ़ती रहे
कर रहे हैं ये दुआ हम सभी के सभी
डॉ. ममता मेहता की ग़ज़ल
बेदम और बेदाम नहीं है
सस्ती इतनी जान नही है
कोई भी कब्ज़ा कर जाए
ऐसा यहां मकान नहीं है
मंज़र बदला बदला सा है
जोश भरा अरमान नहीं है
मंज़िल चाहे दूर नहीं है
पर रस्ता आसान नहीं है
अंबर छूने घर से निकले
इतना वो नादान नहीं है
घात लगाए शत्रु बैठे
डरता हिदुस्तान नहीं है
प्रेमा झा की कविता – घाघ मंत्री
ऊँचे आसमान में परिंदा उड़ रहा है
कबूतर के चोंच में मैंने चिट्ठी पकड़ाई है
एक गौरैया अभी-अभी चावल के कुछ दानें चोंच में फंसाए हुए उड़ गई है
मैंने देखा सामने शहतूत की डालियों पर उसने घोंसला बनाया है
कुछ चूज़े उसी में हैं!
यह ढ़ाई बजे दोपहर की नीम-तन्हा ख़ामोशी है 
कई घटनाएं घट चुकी है अब तक
साइंसदानों की तकनीकि विशेषज्ञता और
अंतरसंजाल के चक्रव्यूह में खेल रहा है पूरा व्योम
मगर नहीं सुलझा सका है
इन परिंदों की करिश्माई कारीगरी
कीटाणु,  विषाणु, मृदा, भूमि
समंदर, बावड़ी, पुरानी खाई, टूटी दीवारों पर गढ़ा नक्काशी
सैकड़ों आँधियों के बाद भी सुरक्षित है
कितनी जटिल और सशक्त है इन लघु जीवों की दुनिया
ये नहीं फंसे हैं सीमाओं की राजनीति में 
इसलिए
गढ़ लिए है स्वयं एक अति-सघन जाल
जिसे इमारत नहीं ढहा सकता
बड़े-बड़े आविष्कारक भी
अभी तक एक घोंसला बनाने की उस्तादी हासिल नहीं कर सके!
इधर झींगुर, मधुमक्खी और टिड्डे की दुनिया का सच
जानने की उत्सुकता में
मैं उनके क्रियाकलापों को ध्यान से देखने लगती हूँ
मगर बहुत मशक्कत बाद भी उनके कच्चे माल का
कोई पुख्ता स्रोत मुझे हाथ नहीं लग पाता है
मैं विषाणुओं के संसार में टॉर्च जला रही हूँ
लेकिन आँखों ने जवाब दे दिया है
मैं कई और हथकंडे अपनाती हूँ
और उस अति-सूक्ष्म के अस्तित्व पर से पर्दा उठाने की प्रक्रिया में
कई ख़बरें इकठ्ठा कर रही हूँ
मैं अब साइंसदानों की मदद लेती हूँ
पूरी तैयारी से हूँ 
और
सबसे उम्दा कोटि का चश्मा, हेलमेट, और पॉपुलर संचार माध्यम लेकर कि
वो आए और मैं उसका एक पूरा इंटरव्यू कर सकूं!
पूंछु उससे उसके षड्यंत्रकारी योजनाओं का अगला कदम!
जो वो सब देशों के लिए बना रही है
मैं पूछना चाहती हूँ उससे कि
कैसे मुट्ठी में करते हैं दुनिया
कि कैसे एक शहर की यात्रा भर से घूमा जाता है पूरा विश्व 
मैं पूछना चाहती हूँ कि
कैसे बिना किसी पार्टी और वोट के
बना जाता है विश्व का शासक?
और कैसे अधीन कर लिए जाते हैं
पूरा का पूरा तंत्र,
पूरी व्यवस्थाएं
और तकनीक तक!
मुझे उम्मीद है उसके पास मेरे सब सवालों का जवाब होगा
क्योंकि वो मुफ़्त में बना है
महासंग्रामक!
महासंक्रामक!!
महाविनाशक!!!
वो परजीवी
एक घाघ मंत्री है!
डॉ. पद्मेश गुप्त की कविता – कुछ दिनों से
कुछ दिनों से,
पंखुड़ियों पर
नहीं बैठती तितलियाँ
दूर रहते हैं भौरें दीपक से!
जारी किया है,
समंदर ने मछलियों को
आसमान ने परिंदो को
वादियों ने हवाओं को
और…  और  रात ने
चाँद की शुआओं को
फासले का फरमान! 
कहीं झाड़ियों में छिपी है तितलियाँ
अँधेरी गुफाओं में लुप्त हैं भौरें
कतार सी लगी है मछलियों की
झील, तालाबों के आगे
या फिर मांग रही हैं पनाह मछलीघर में!
आबाद से हैं पंछियों के घोसले
ठहर सी गयी हैं हवाएं
और…  और रातों ने
ओढ़ ली है अमावस की चादर! 
सच, सच नहीं है यह सब
फिर भी सच, सच है यह मेरा,
कुछ अपनी, कुछ अपनों की फ़िक्र में
उठा ली है मैंने दीवार
और रहने लगा हूँ
सिर्फ और सिर्फ
अपनी  परिधि में,
उन सबसे दूर
जो मुझे प्रिय, हाँ बहुत प्रिय थे
मेरी कहानी, मेरी कविता थे;
मेरे दुनिया में होने की पहचान,
मेरी अस्मिता थे!
वो भौरें वो तितलियाँ
वो परिंदे और मछलियां
चांदनी रात,
वादियों की चंचल हवायें
स्मृतियों में हैं, मन में हैं
हैं, मेरी पलकों के दर्पण में हैं;
जीवन की परवाह में
त्याग रहा हूँ ज़िन्दगी,
श्वासों में श्वास है
पर धड़कन में है कमी
फ़िर भी
उम्मीद, आस
और विश्वास
दिनचर्या का हिस्सा हैं
हमारे तुम्हारे सबके
जीवन का  क़िस्सा हैं
डॉ. शशि तिवारी की ग़ज़ल
बाहर-बाहर से हो चाहे भीतर वैसी बात नहीं,
चाहे जो हो दिल में लेकिन पहले-से जज़्बात नहीं।
जैसे-तैसे हँसते-रोते दिन तो कट ही जाता है,
पहले जैसे कट जाती थी अब कटती है रात नहीं।
दिल से मिलने वाले अब इक्का-दुक्का ही मिलते हैं,
इधर-उधर की कहते लेकिन कहते दिल की बात नहीं।
अपनापन तो गया भाड़ में केवल दुनियांदारी है,
ज़हरबुझा-सा हर पल है अमृत-से वो लम्हात नहीं।
आस्तीन में साँप छुपा कर हाथ मिलाना बहुत हुआ,
तुमसे अब लेनी है हमको कोई भी सौग़ात नहीं।
आप हमें क्या बतलाएंगे हमें पता है पहले से।
आसमान से लहू बरसता अब मीठी बरसात नहीं।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.