यह सच है कि कोरोना वायरस ने हम सबके मनों में एक विचित्र सा डर भर दिया है। जब हम समाचार पढ़ते हैं कि अमरीका, इटली, स्पेन, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे देश कोरोना वायरस के सामना घुटने टेक चुके हैं, तो लगता है कि विकासशील देशों की क्या बिसात है इस ख़तरनाक दुश्मन के सामने। मगर हम यहां आम आदमी की बात नहीं कर रहे। हम बात कर रहे हैं हिन्दी के लेखक की जिसने हमेशा विपरीत परिस्थितियों में ही सृजनात्मक लेखन किया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है भक्ति काल।
इन दिनों बहुत से मित्र फ़ेसबुक पर अपनी पोस्ट में बता रहे हैं कि “शायद यह रचना समय नहीं है…”। यही नहीं बहुत से मित्र लाइव फ़ेसबुक, ज़ूम और अन्य माध्यमों से यही कह रहे हैं कि यह समय लिखने का नहीं है। हाँ यदि संभव है तो कुछ पढ़िये।
कुछ मित्र तो डरा भी रहे हैं कि, “अजब सा सन्नाटा छाया है। चारों ओर अन्धेरा है। मौत का ताण्डव हो रहा है। भला ऐसे में कोई लेखक लिख कैसे सकता है?”
यह सच है कि कोरोना वायरस ने हम सबके मनों में एक विचित्र सा डर भर दिया है। जब हम समाचार पढ़ते हैं कि अमरीका, इटली, स्पेन, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे देश कोरोना वायरस के सामना घुटने टेक चुके हैं, तो लगता है कि विकासशील देशों की क्या बिसात है इस ख़तरनाक दुश्मन के सामने। 
मगर हम यहां आम आदमी की बात नहीं कर रहे। हम बात कर रहे हैं हिन्दी के लेखक की जिसने हमेशा विपरीत परिस्थितियों में ही सृजनात्मक लेखन किया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है भक्ति काल।
मीरा का पूरा लेखन ही विपरीत परिस्थितियों में था। कबीर तो अपने पूरे परिवेश से लड़ रहा था। तुलसी ने तो केवल अपनी रामचरितमानस के ज़रिये उस ग़ुलामी के काल में भारतीयों को जीने की एक नयी राह दिखा दी थी। सूरदास भी बृज में अपने नटखट श्याम को उसी काल में अपने दिव्य नेत्रों से देखा करते थे।
मराठी के महान कवि तो शिवाजी के उसी काल में रचनाकर्म कर रहे थे जब शिवाजी महाराज औरंगज़ेब की तानाशाही के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे थे। 
जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हो रही थी, चंद्रशेखर आज़ाद को शहीद किया जा रहा था – ऐसे में मेरा रंग दे बसन्ती चोला और सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है जैसी रचनाओं का जन्म हुआ। 
जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद और जयप्रकाश नारायण ने तो जेल में रहते हुए अपनी लेखनी से बेहतरीन रचनाकर्म जारी रखा।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मजरूह सुल्तान पुरी और साहिर ने भी विपरीत परिस्थितियों में अपनी क़लम से बेहतरीन साहित्य की रचना की।  1962 के चीनी आक्रमण के दौरान जाँनिसार अख़्तर और साहिर लुधियानवी ने बेहतरीन देश-प्रेम के नग़में लिखे – “आवाज़ दो हम एक हैं… ” और “वतन की आबरू ख़तरे में है… ”
यानि कि साहित्य की रचना के लिये कोई एअर-कंडीशन कमरा और शराब के गिलास की ज़रूरत नहीं होता। महान साहित्य विपरीत परिस्थितियों में ही लिखा जाता है। 
एक मज़ेदार स्थिति यह भी है कि आजकल हर दूसरा लेखक फ़ेसबुक लाइव और अन्य माध्यमों से अपने चाहने वालों से बातचीत कर रहा है। रचनापाठ कर रहा है। अपनी रचना प्रक्रिया साझा कर रहा है। ऑनलाइन कवि सम्मेलन और मुशायरे हो रहे हैं। 
हर दूसरा फ़िल्मी कलाकार भी अपने प्रशंसकों से ऑनलाइन बातचीत कर रहा है। और जो मित्र फ़ेसबुक की पोस्ट पर लिख रहे हैं कि यह संकट का काल है जिसमें रचनाकर्म संभव नहीं है, वही आजतक और अन्य चैनलों पर अपनी अपनी रचनाओं को भेज कर प्रकाशित करवा रहे हैं और अपने पाठकों तक पहुंच रहे हैं।
याद रहे कि सृजनात्मक रचनाकर्म का कोई समय या काल नहीं होता । एक लेखक निरंतर सृजन में रहता है। वह हर वक़्त कुछ ना कुछ लिखता रहता है… मगर अपने दिमाग़ में। जब उसके दिमाग़ में उसकी रचना पुख़्ता हो जाती है, उसके बाद ही उसे पन्नों पर उतारता है। 
यह कोई ऐसा काल नहीं है जब सृजनात्मकता कुन्द हो जाए। लेखक आज भी लिखेंगे और कल भी। लेखन कभी रुका नहीं। कवि या लेखक अपने मन की भावनाओं को अभिव्यक्ति देता रहा है और हमेशा देता रहेगा। 
गुज़ारिश है तो बस इतना कि लेखन में जल्दबाज़ी ना करें। पुरवाई ने अपने कवियों को एक चुनौती दी कि कोरोना शब्द का इस्तेमाल किये बिना कोरोना पर कविता लिखें। आपको हैरानी होगी कि हमें क़रीब तीस पैंतीस रचनाएं प्राप्त हो गयीं। इस अंक में कुछ रचनाएं पीयूष ले रहे हैं। उन पर भी दायित्व है कि संपादक मण्डल की सलाह पर जो रचनाएं ठीक लगें… प्रकाशित की जाएं।
पुरवाई परिवार अपने सभी लेखकों और पाठकों के स्वास्थ्य की कामना करता है। हमें पूरी उम्मीद है कि हम सब इस दहशत से उबर पाएंगे और ज़ोर से शैलेन्द्र का गीत गाएंगे… “अरे भाई निकल के आ घर से, आ घर से / अरे दुनियां की रौनक देख फिर से, देख ले फिर से!”
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

6 टिप्पणी

  1. बहुत अच्छा संपादकीय है । लेखन निरंतर होता रहा है होता रहेगा । सभी पारिस्थियों में।

  2. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से गुम्फित सम्पादकीय अति प्रेरक है। हार्दिक साधुवाद। साहित्य-सृजन तो सदा एक अनवरत प्रक्रिया है, जो हर परिस्थिति में सक्रिय रहती है।

  3. लेखक किसी भी परिस्थिति पर निर्भर नहीं होता सिवाय कि उसकी सृजन शक्ति उसको प्रेरित करती है. अच्छा लगा पढ़कर कि यूरोप में रहकर भी हिंदी लेखन जीवित है

  4. जी बिल्कुल सर साहित्यकार का कर्म ही सृजन करना है, जब परिस्तिथियां प्रतिकूल होती हैं रचनाकर्म उतना ही निखरता है ।

  5. संपादकीय में सृजन की स्थितियों का आकलन महत्त्वपूर्ण है। समय, समाज और मनोविज्ञान के अंदर गहराई से विचार किया गया है। वास्तव में दुनिया की श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण कृतियों का सृजन ऐसे समय और परिस्थितियों में ही हुआ है।

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