“मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और प्रमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसके ह्रदय को परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।”1
आचार्य द्विवेदी ने साहित्य और मनुष्य के बीच के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या की है। इसी कोटि में जाम्भोजी कृत साहित्य भी आता है। वह मनुष्य के किसी एक पक्ष की नहीं वरन् विविध पक्षों के महत्व को उजागर करता है। साहित्य हमें जीना सिखाता है। जीवन के अनेकों आयामों से मिलाप कराता है।

मूल्य हमें क्या करें व क्या न करें का बोध करवाते है जो कि हमारे दैनिक जीवन के लिए अतिआवश्यक है। किसी भी देश की संस्कृति और साहित्य को देखने व पढ़ने से उसके गौरवशाली भूत का पता चलता है। भविष्य को वर्तमान से अधिक समृद्धशाली व महान बनाने के लिए वर्तमान समय में सही राह पर चलना होगा। मूल्य मनुष्य के व्यवहार को परिष्कृत व सुसंस्कृत करते है। मनुष्य को विकासोन्मुख रास्ते पर आगे बढ़ाते है। इंसानियत का पाठ पढ़ाते है। किसी भी कार्य का औचित्य बोध व विवेक का संतुलन रख पाते है। मूल्यों व साहित्य का घनिष्ट संबंध होता है। इसी कारण से साहित्य मूल्यवान होता है व युगों युगांतर तक कालजयी रूप में विख्यात रहता है।
तप, त्याग, शील श्रद्धा, समता व ममता आदि ऐसे मूल्य ही जम्भ साहित्य में निहित है जिन्हें आज भी वैसे ही अपनाते है जैसे अनादि काल मे अपनाते थे। ये परम्परा से प्राप्त मूल्य हमारे जीवन की विसंगतियों को दूर करके परस्पर प्रेम व श्रद्धा के भाव को जन्म देने में सफल हुए है। आज संसार मे तकनीकी के फलस्वरूप नाना प्रकार के अविष्कार किए जा रहे है जिनकी संख्या असीमित है। तकनीकी की ही चकाचौंध में मनुष्य कालजयी वैयक्तिक मूल्य, नैतिक मूल्य, धार्मिक मूल्य व सामाजिक मूल्य पर कालिमा सी छा गई है। परिणामस्वरूप समाचार पत्रों के प्रथम से अंतिम पृष्ठों तक अमानवीय कार्य का ब्यौरा हर रोज पढ़ने को मिलता है। समय रहते गौरवशाली संस्कृति, मूल्यों, आदर्शों की रक्षा करनी होगी। इसके लिए लुप्तप्राय: ग्रन्थों, पोथियों के ज्ञान का शोधन करना होगा। ओर उन अमूल्य विचारों को व्यवहार के पुनः धरातल पर अपनाना होगा
साहित्य के फलस्वरूप ही वैचारिक क्रांति का जन्म होता है व समाज के चहुमुंखी क्षेत्रों में परिवर्तन होता है। संत, महात्मा, साहित्यकारों के कर्म क्षेत्र के फलस्वरूप ही समाज में नवीन चेतना की ज्योति प्रज्ज्वलित होती है। जाम्भोजी भी संत कबीरदास की भांति एक समाज सुधारक ही थे। समाज मे फैली क्रूर शक्तियों का सामना करते करते सत्य के इस अनन्य उपासक में श्रेष्ठ बौद्धिकता, चिंतन, भक्ति, विनम्रता जैसे श्रेष्ठ गुणों का विकास हुआ। जो आज भी स्पष्टतः उनके साहित्य, पंथ के नियमों व उनके अनुयायी के कार्यकलापों में मुखरित होते है। संत कबीरदास के समान इन्होंने लोक जीवन के अनुभवों को चिंतन का आधार बनाया। चिंतन पक्ष के मंथन से जो अमृत निकला है वह आज उनकी शिक्षा, वैचारिकता में दृष्टिगोचर होता है।
जाम्भोजी ने अपने जीवन काल मे अनेक उपदेश दिए है जिन्हें वर्तमान में ‘सबदवाणी’ के नाम से जाना जाता है। मुख्यतः इनकी संख्या 120 बताई जाती है। इन्हें ‘जमनवाणी’ के नाम से भी जाना जाता है। इनकी सबदवाणी में कबीर की साखी की भांति आत्म ज्ञान व लोकोपदेश निहित है। सबसे पहले ‘वील्होजी’ ने ‘सबदवाणी’ को लिपिबद्ध किया था। वील्होजी का वास्तविक नाम ‘विट्टलदास’ बताया जाता है। 
    संत जाम्भोजी कृत साहित्य में मूल्यों के विभिन्न रूपों का उल्लेख हुआ है। यथा – 
( अ ) सामाजिक मूल्य :-  ये ऐसी धारणाएँ होती है जिनके आधार पर समाज मे किए गए कार्यों का अच्छा व बुरा होना पाया जाता है। ये ऐसी मान्यताएँ एवं लक्ष्य होते है जिनकी प्राप्ति हेतु समाज के विभिन्न सदस्य प्रयासरत रहते है। इनके होने से सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ होती है। सद्भाव, समभाव, सहानुभूति,सहयोग, दान व सेवा इत्यादि इसके प्रकार है।
  1. सहयोग :-
“उत्तम कुली का उत्तम न होयबा।
कारण किरिया सारूं।।”2  
    उत्तम कुल में जन्म लेने वाला मनुष्य उत्तम नहीं होता है। उत्तम तो मनुष्य अपने कर्मों के कारण से होता है। जाम्भोजी ने सबदवाणी में मनुष्यों को कर्मरत रहने की प्रेरणा दी है। गीता में भी ‘निष्काम कर्मयोग’ का प्रतिपादन हुआ था। यही कर्मयोग लगातार हो रही विफलता में एक सफलता की राह दिखाता है। विफलता के परिणामस्वरूप यदि मनुष्य अपने कर्मों से मुँह मोड़ लेगा तो यह निश्चित है कि उनके लिए सफलता का दरवाजा बन्द हो जाएगा। किन्तु वह कर्मरत है तो सफलता प्राप्ति की एक आशा अवश्य बनी रहती है। बारम्बार किये गए प्रयासों से मानसिक भावों का परिष्कार होगा व सफलता का अनुगमन करेगा जिसकी फलीभूती उत्तम कुल का परिचायक होगी।
  1. सद्भाव :-  
“जीवां ऊपरि जोर करीजै, अंत काळ हुयसी भारी।”3
 ‎मनुष्य जीवन मे आपसी प्रेम व सद्भाव होना अतिआवश्यक है। इन्ही भावों, व्यवहार के कारण अमन, चैन बना रहता है। जहाँ शांति बनी रहती है वहाँ सभी कार्य भी सफल होते है। सनातन धर्म भी ‘जीवो ओर जीने दो’ के भाव को बढ़ावा देता है। प्राणी मात्र के प्रति सद्भावना रखने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही साथ सचेत भी करता है कि यदि किसी भी प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव नहीं रखा तो तुम्हारा भी अंतकाल भयावह रूप में गुजरेगा। अतः किसी को मनसा, वाचा और कर्मणा से हानि नहीं पहुँचानी चाहिए।
“भलियो होइ सो भली बुध आवै, बुरियो बुरी कमावै।”4
सबदवाणी में उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति भला होता है उसे भले विचार आते है और उसके कर्म भी भलाई के लिए ही होते है। ओर जो व्यक्ति बुरे कर्म करता है वह जीवनभर बुराई ही कमाता। उसकी समाज मे निंदा होती है। इसलिए मन को पवित्र रखना चाहिए ताकि कर्म भी पवित्र हो, समाज मे समरसता का भाव बना रहे। इस प्रकार से सबदवाणी में विभिन्न सामाजिक मूल्यों को रेखांकित किया गया है।
( ब ) वैयक्तिक मूल्य :-     व्यक्ति स्वयं की उन्नति एवं विकास हेतु जिन मूल्यों का निर्माण करता है वे वैयक्तिक मूल्य कहलाते है। ये मूल्य व्यक्ति विशेष की भावनात्मक व जीवन संघर्षों का परिणाम होते है जो सीधे रूप में समाज पर अन्यथा व्यक्ति विशेष पर अपना प्रभाव सीमित रखता है। आत्मबल,स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता, संतोष, धैर्य व सह्रदयता इत्यादि इसके प्रकार है।
1 आत्मनिर्भरता :- 
“नेपै कछु न कियों, आइया उत्तम खेती।
को को अमृत रायों, को को दाख दिखायों।
को को ईख उपायों, को को नींब निबोलीं।
को को कछू कमायों, ताको मूलू कुमूलू।
डाल कुडालूं , ताका पात कुपातूं।
ताका फल बिंज कुबिजू , तो नीरे दोष किसयों।”5
मनुष्य को आत्मनिर्भर बनना चाहिए। जाम्भोजी का मत था कि मानव शरीर मे अनेक रोगों का उपचार सहज रूप से प्राकृतिक जड़ी बूटियों से हो जाता है। प्रकृति के माध्यम से सामान्य रोगों का उपचार संभव है। जड़ी बूटियां अमृत के समान व जीवनदायनी होती है। मनुष्य का वास्तविक धन स्वयं का शरीर ही होता है। शरीर स्वस्थ होने पर वह किसी भी प्रकार के कार्य को करने में समर्थ रहता है किन्तु अस्वस्थ होने पर वह पराधीन हो जाता है इसी संदर्भ में सबदवाणी में आत्मनिर्भर व सामर्थ्यवान बनने की प्रेरणा का उल्लेख मिलता है।

( स ) नैतिक मूल्य :-     ये आन्तरिक भावनाएँ होती है। अच्छा- बुरा, सही- गलत इत्यादि मानदंडों का समर्थन व विद्रोह करने के भाव को जाग्रत करता है। कर्तव्य पालन, ईमानदारी, निष्ठा व परोपकार की भावना इत्यादि में ये मूल्य लक्षित होते है।
  1. परोपकार :-    
   “जां जां दया मया, तां ता विक्रम मया”6
मनुष्य को दया, परोपकार की भावना रखनी चाहिए। मनुष्य का दायित्व है कि वह अपने परिवार का भरण- पोषण  करे। साथ ही साथ उसे अपने द्वार पर आये भूखे राहगीर को भी भोजन कराएं। जब मनुष्य स्वयं के लिए ही जीता है तो उसकी बुद्धि का कोई महत्व नहीं रह जाता है। चिर काल से ही मनुष्य प्रकृति पर आश्रित रहा है। समस्त मनुष्यों का नैतिक दायित्व बनता है कि जितना हम प्रकृति का दोहन करते है तो उससे कहीं अधिक उसे संरक्षित व संवर्धित करने पर भी ध्यान देना चाहिए।
  1. कर्तव्य पालन :-
‘सिर सांटे रूंख रहे तो भी सस्ता जाण’ 
    पृथ्वी ही केवल मात्र ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन संभव है। जीवन के लिए प्राण वायु की आवश्यकता होती है जो कि वृक्षों से मिलती है। बिश्नोई पंथ में हरे वृक्ष को काटना वर्जित है, यदि समय आने पर इसकी रक्षा के लिए स्वयं के प्राणों की आहुति भी देनी पड़े तो वह भी कम है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण सबसे प्रमुख समस्या है इसकी रक्षा करना परम् कर्तव्य है। यह वैश्विक समस्या है। जिससे निजात पाने के लिए सभी राष्ट्र कटिबद्ध होकर प्रयास कर रहे है। प्रत्येक वर्ष  विभिन्न संगठनों द्वारा अनेक योजनाएं बनाई जाती रही फिर भी ये गम्भीर समस्या यथावत बनी हुई है। पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव, अनियमित वर्षा, ओजोन परत में छिद्र, हिमस्खलन बढ़ना, मौसम में अनियमित बदलाव इत्यादि इसके ही परिणाम है। UNO भी पर्यावरण की सुरक्षा करने हेतु कटिबद्ध है। इस कार्य को कोई भी एक संस्था या फिर एक व्यक्ति सही रूप में सम्पूर्ण नहीं कर सकता, इस हेतु सभी की भागीदारी आवश्यक है।
( द ) ‎धार्मिक मूल्य :-     भक्तिकाल में राम काव्यधारा के मूर्धन्य कवि तुलसीदास ने भी इस संदर्भ में उल्लेख किया है कि ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’  अर्थात्  दूसरा का हित करना ही सबसे बड़ा धर्म है। धार्मिक मूल्यों के अंतर्गत भक्तिभाव, नामस्मरण, कीर्तन इत्यादि इसके प्रकार है। “बिश्नोई पंथ के प्रवर्तक गुरु जाम्भोजी साक्षात् विष्णु थे। इस बात का संकेत जम्भोजी के अवतार से पूर्व भगवान ने लोहटजी एवं हंसा को दे दिया था, जिसका वर्णन जम्बाणी साहित्य के अनेक कवियों ने किया है।”7
 “ह्रदय नाम विष्णु को जंपो, हाथे करो टवाई।”8
सन्तों ने कर्म भाव को छोड़कर वैराग्य भाव को अपनाने के लिए कभी भी प्रेरित नहीं किया है। उन्होंने घर गृहस्थी को सुखद, खुशहाल व मर्यादित बनाने के लिए भक्ति भाव को अपनाने को कहा है। इससे अहम्  का भाव नष्ट होकर संसार के मूल तत्व का भान होता है उसी के फलीभूत मनुष्य अपने कर्मों में सुधार करता है। 
  1. नामस्मरण :-     भक्तिकाल के जाम्भोजी कृत सबदवाणी में नामस्मरण पर बल दिया गया है। 
  ‎”जंपो विसन न दोय दिल करणी, जंपो विसन न निंद्या न करणी। 
  ‎मांडों कांध विसन की सरणी, अतरा बोल करो जे साचा 
 ‎तो पराय गिरांय गुरु की वाचा।”9
सबदवाणी के अनुसार जाम्भोजी श्री हरि विष्णु के अवतार थे। उन्होंने विष्णु भगवान के नाम का स्मरण करने पर बल दिया है। मनुष्य को किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। निंदा करने से किसी का भी भला नहीं होता। निंदा करने वाला अपयश व अपकीर्ति का भागीदार होता है। जीवन रूपी मार्ग में सही पथ पर चलने के लिए गुरुओं ने श्री विष्णु के नाम का स्मरण करने पर बल दिया है। जम्भोजी के नियम, उपदेश आज ही नहीं अपितु सदियों तक तर्कसंगत रहेगें। विज्ञान की कसौटी पर यदि कसा जाए तो लेश मात्र भी अनुपयोगी तथ्य नहीं मिलेंगे। विश्व पर्यावरण संकट से जूझ रहा है ये ही एक मात्र ऐसे संत हुए है जिन्होंने अपनी वैचारिकता, दर्शन के केंद्र में पर्यावरण को रखा है। 
    जब भी सुकार्य किया जाता है तो प्रकृति की आवश्यक रूप से पूजा की जाती है।  बाधाएँ तो अवश्यम्भावी है, पग पग पर सीना ताने खड़ी रहती है किंतु जिनका व्यक्तित्व इन विषम परिस्थितियों में अडिग रहता है, विचलित नहीं होता वे ही लक्ष्य तक पहुँच पाते है। इन्होंने सत्यान्वेषी, तत्वान्वेषी की भांति कार्य किया है जिसका प्रमाण जनमानस की चर्चाओं और सबदवाणी में दृष्टिमान होता है। इन्होंने समरसता का पाठ दिया है।
    निष्कर्षतः जाम्भोजी कृत साहित्य व्यक्ति का, समाज का, अपनी संस्कृति, अपने राष्ट्र व सम्पूर्ण मानवीय जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। 
संविदा शिक्षक, केंद्रीय विद्यालय, नसीराबाद( अजमेर). संपर्क - maheshtailor58@gmail.com

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