Saturday, October 5, 2024
होमकविताऋषिकेश मिश्र की दो कविताएँ

ऋषिकेश मिश्र की दो कविताएँ

1 – माण्डवी
एक पवित्र भाव से
भर उठता हूँ
जब कहता हूँ ‘नदी’,
जो
संवाहिका है
पुरुषार्थ चतुष्टय की,
जिसके बिना
असंभव है
सचराचर
जगत् की गतिशीलता।
नदी!
जिसने
मानव सभ्यता
को पंख दिए,
वह
संबल देती रही
उत्पत्ति
स्थिति
और विनाश के
मुहाने तक,
पार करवाती रही
तुम्हारे
कुकर्मों की वैतरणी।
और जब
अपने
मस्तिष्क की खराद पर
संज्ञा रूप
‘माण्डवी’ को चढ़ाता हूँ
तो
अघनाशिनी-
जुवारी के साथ
गलबँहिया करती
तुम्हारी छवि
साकार हो उठती है। 
स्मृति में
कौंध उठता है
वह चरित्र भी,
जिसने
सँभाल लिया था
साकेत का दारोमदार
मर्यादा पुरुषोत्तम के
वनगमन पर।
जब
अपने सूखे अधरोष्ठों
पर
तुम्हारे नामरूप का
आवाहन करता हूँ-
‘मांडवी’
‘म्हादेइ’ या ‘मांडोवी’
सबमें
एक ममत्व का बोध होता है,
जिसने
सभ्यता के
अनगिन सोपानों को
अपने आँचल से दुलराया है।
अपने
अपूर्व वात्सल्य से
अभिसिंचित किया है
भीमगढ़ से
अरब सागर तक
जामदग्न्य प्रदेश का
सर्वस्व
‘न दी’ होने पर भी।
अब
तुम्हारे वैभव पर
तुम्हारे जाये
अधिकार जताते हैं,
पर
तुम्हारी मर्म वेदना भी
नहीं डिगा सकी
इनके ‘स्व’ का
रंचमात्र,
नहीं बदल सकी
‘पर’ में
इनका स्वहित।
इसी आत्म-संकुचन
से उपजे
स्वार्थ-प्रतीकों ने
तुम्हारी ही भगिनियों के
गर्भ को
अपने खड्ग से
रक्तरंजित कर दिया था।
शताब्दियों की
परतंत्रता भी
इनका हृदय परिवर्तन
नहीं कर सकी।
नहीं आत्मसात् कर सके
आर्यावर्त का
वैशिष्ट्य
और
वैदिक सूक्तों
का संदेश,
जिसमें
ली गई थी
साथ-साथ चलने की शपथ।
तुम्हें भी कहाँ छोड़ा?
तुम्हारे
दामन पर
अक्षक्रीड़ा के
अनेकों पैबंद लगा दिये,
जिसने
एक स्त्री की अस्मिता को
सरे-आम
तार-तार
कर दिया था
और
निष्काषित होना पड़ा था
बंधु-बांधवों के साथ
धर्मराज को भी।
तुम्हारी
मनोरम हरीतिका को
दरकिनार कर
लिये जाते रहे
तुष्टीकरण के फैसले,
तुम्हारे
मधुर जल से
दिया जाता रहा
राजनीति
का अदहन
और
पकती रही वैमनस्यकी रोटी।
पर
हम
नहीं सीख सके
तुम्हारे परोपकार का बाना
और
रामराज्य के
वे मूल्य
जिन्हें अनुभूत कर लिया था
रेणुका नंदन ने।
2 – खजुराहो
खजुराहो,
उनके लिए
अद्भुत
किंतु
अवांछित
और
घृणास्पद रहा, जो-
नहीं रह सकते थे
वासना मुक्त
क्षण भर भी।
उनका चलता तो
फिंकवा देते
उसे
सागर की अतल
गहराइयों में,
जहाँ बड़वानल
निगल जाता
उन कामुक मूर्तियों को।
सोख लेता
उसका अध्यात्म
जिसके बिना
करवट हीन
हो जाती है दुनिया।
पुरुषार्थ के
विविध रंगों को
प्रतीकित करती मूर्तियाँ
गढ़ती हैं
जगती की व्याख्या।
ये मूर्तियाँ
प्रतिध्वनि हैं-
किसी मोह के
चरम बिंदु की,
जो बनती हैं
सृजन की
अंतःप्रेरणा। 
समय-संदर्भ सँजोए
खजुराहो-
मानव-संवेदनाओं का
चरम उत्कर्ष है।
मानव संरचनाओं
का प्रकर्ष
और
सभ्यता का
सर्वोत्तम सोपान है;
एक रोमांच है
जिसे
जिये बिना
नहीं प्रकट होती
अंतस्तल की ज्योति।
खजुराहो
अपने
विशुद्धतम रूप में
जीवन का
पवित्र चित्रांकन है,
मानव जीवन का
प्रसार है।
गमक है,
मनुष्य के होने की।
ऊबड़-खाबड़
मैथुनरत मूर्तियाँ
और
जीवन के
अन्यान्य रंग
अध्यास के शिखर हैं।
जिनकी
उपत्यका से
ही प्रशस्त होती है
कैलाश
की राह,
जहाँ
पहुँचने के लिए
पार करना पड़ता है
राक्षस ताल भी।
नहीं देख पाती
कोई संकुचित दृष्टि
मूर्तियों के
जीवन का सत्व
इस
हृदय हीन
मांसल दुनिया में।
नहीं जाग पाता
ज्ञान, क्रिया और इच्छा का त्रिपुर;
जो खो जाते हैं
तन्मात्राओं के
बियाबान में।
ऋषिकेश मिश्र
ऋषिकेश मिश्र
समन्वयक, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग पार्वतीबाई चौगुले कला एवं विज्ञान महाविद्यालय गोगोल, मड़गाँव, गोवा-403 602 मो.: 932 3282 667/810 8787 954 ई-मेल: [email protected]
RELATED ARTICLES

2 टिप्पणी

  1. डॉ ऋषिकेश मिश्र की कविता मांडवी एवम खजुराहो मानवीय भावों का उत्तम स्पष्टीकरण हैं। ये प्रकृति और पुरुष की विशालता की अवहेलना करने वाली के स्वार्थ और छुद्र मानसिकता पर नर्म प्रहार है।

  2. बेहतरीन कविताएं। खजुराहो धर्म, अध्यात्म और दर्शन का अद्वितीय शिल्प है। संसार में उलझकर रह जानेवाला कभी भी तत्त्व की प्राप्ति नहीं कर सकता। वहीं ‘मांडवी ‘ कविता में मनुष्य की संकुचित प्रवृत्तियों और सामयिक राजनीतिक क्षरण का अभूतपूर्व निदर्शन है। इन दो अप्रतिम कविताओं के लिए डॉ. ऋषिकेश मिश्र जी साधुवाद के पात्र हैं।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest