“हां राज 25 तारीख को क्या कर रहे हो.” उधर से सतीश की आवाज़ आई
मैं अचकचा गया, “25 को ? कौन सी 25?”
“अरे,कौन सी 25 क्या ? यही 25 परसो..”
मैं असमंजस में, ” 25 को ? पता नहीं यार, कुछ खास तो नहीं..”
“तो ठीक है, मेरे बेटे का बर्थडे है 25 को 10 साल का हो जाएगा वो तो मैंने एक छोटी सी पार्टी रखी है एक छोटा सा कार्यक्रम भी है जिसमें उसके 10 साल के जीवन के बारे में कुछ बताना है तो ये कार्यक्रम तुम संभालोगे..”
“मैं !” मैं बोखला गया, “मैं कैसे कर सकता हूँ ये सब यार,मेरे बस का नहीं है ये ..”
उसने डपटते से स्वर में कहा, “ये क्या बात हुई कि नहीं कर सकते ..अरे इतने बड़े लेखक हो इतना छोटा सा कार्यक्रम नहीं कर सकते !”
मैंने कहना चाहा ‘ तो! मैं लेखक हूँ ये छोटे मोटे कार्यक्रम करने वाला भांड नहीं’ पर उसने मुझे मौका ही नहीं दिया ..”देखो भई कहने को तो मैं औरो से भी कह सकता हूँ. जिससे कहूंगा वही तैयार हो जाएगा ये कार्यक्रम करने के लिए,भला कौन नहीं चाहेगा कि उसे प्रसिद्ध होने के लिए ऐसा प्लेटफार्म मिले ? पर तुम मेरे अपने हो इसलिए ये अवसर मैं तुम्हें दे रहा हूँ.. फिर अपने ही अपने, अपने के काम नहीं आएंगे तो और कौन आएगा ! अब इसे तुम आग्रह समझो या आदेश ये तुम्हारी मर्ज़ी..” उसने फोन काट दिया.. मैं रिसीवर हाथ में पकड़े मूर्खो की तरह पलक झपकाता खड़ा रहा
‘वाह क्या बात है बच्चे के बर्थडे के कार्यक्रम को वो ऐसे समझ रहा है जैसे कोई अंतरराष्ट्रीय साहित्यकारों की सभा हो और उसमें संचालन करना हो.’
हाय रे, ये मेरे अपने, बिना मुझसे पूछे,बिना मेरी सहुलियत का ख्याल किये,बिना कोई मानधन तय किये अपनापन बता दिया.. ऊपर से अहसान भी जता दिया कि तुम अपने हो इसलिए तुम्हें कह रहे हैं वरना करने वालों की कमी नहीं है..
‘ठीक है करना तो पड़ेगा ही’ मैंने भी निश्चित किया, पर करूँगा अपने हिसाब से ही’ मैंने पलटकर उसे फ़ोन किया, “ठीक है कर दूंगा पर मुझे क्या मिलेगा?”
“देख लेंगे यार, तुम कार्यक्रम तो करो.”
मैंने जिद भरे स्वर में कहा, “नहीं पहले ये तय हो जाये तो ठीक रहेगा बताओ क्या दोगे.”
उसने तिक्त स्वर में कहा,”हम तुम्हें अपना समझ कर इस कार्यक्रम के लिए अवसर दे रहे हैं और तुम हो कि हमारा अपनापन भुला कर इसका व्यवसायीकरण कर रहे हो लानत है भई तुम पर..”
मैं फिर लाचार खड़ा रह गया पर हिम्मत कर कहा,” वो सब ठीक है यार पर तुमने वह कहावत तो सुनी होगी न कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ? फिर यही तो मेरी रोजी रोटी का साधन है, इससे मैं कैसे मुँह मोड़ सकता हूँ.”
उसने रूखे स्वर में कहा, ” ठीक है भई ठीक है तुम्हारी रोजी रोटी की व्यवस्था भी कर देंगे तुम आ तो जाओ.”
मैंने कहा, ” ठीक है तुम कार्यक्रम शुरू होने के आधे घंटे पहले गाड़ी भिजवा देना.”
उसके स्वर में वही तिक्तता थी,”अरे यार, क्यों बेकार मेहमानों से भरे घर में मुझे परेशान कर रहे हो, अगर अपने ही इस तरह करेंगे तो बेगानों का कहना ही क्या? देखता हूँ फिर भी गाड़ी खाली रहती क्या..पर देखो न भिजवा सकूं तो तुम फुटेज मत खाना और अपना कार्यक्रम समझ कर आ जाना कई बड़े बड़े लोग रहेंगे विधायक, सांसद, मंत्री सहित, तुम्हारा भी नाम हो जाएगा और उनके सामने अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर भी मिल जाएगा ..25 तारीख ठीक 7 बजे, और सुन अपनी ये लेखकी मेरे सामने तो झाड़ना मत प्लीज..” उसने फोन रख दिया मैं उसके अपनेपन से भीगा खड़ा रह गया, इधर मुझसे अपनापन जता कर कार्यक्रम करवा लो उधर परिचितों और मेहमानों के सामने रौब जमाओ, ‘होंगे बड़े लेखक, साहित्यकार अपने घर के हमारे तो एक फ़ोन पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं वो भी सस्ते में.’
न जाने मेरे चेहरे में ऐसा क्या है कि जो देखता है मुझे अपना बना लेता है.शायद मेरा भोलापन,मेरी मासुमियत उन्हें मुझे अपना बना लेने को मजबूर करती है.इसी अपनेपन की वजह से उन्हें लगता है कि मुझे कुछ देना मेरी तौहीन करना होगा तो वो बेचारे शर्मा शर्मी में मुझे कुछ दे नहीं पाते पर मेरी प्रतिभा को लोगों के सामने लाने के महान काम को करने से वो रोक भी नहीं पाते.
शर्मा जी की बहू की गोद भराई का कार्यक्रम.. अनाप शनाप पैसा नागपुर से खास इवेंट मैनेजमेंट वालो को बुलवाया जिन्होंने सजावट से लेकर किराए के लड़के लड़कियों द्वारा डांस, मेहमानों का स्वागत व उनका ध्यान रखने जैसे काम लाखों के बदले किये..मेरी साहित्यिक प्रतिभा को ध्यान रख साहित्यिक संचालन मुझसे करवा लिया..जब कुछ देने की बारी आई तो कहने लगे, ” आप मुझसे कुछ लेंगे थोड़ी,आप तो मेरे मित्र हैं.. क्यों , कुछ लेंगे क्या? फिर मित्रता के नाते आपको कुछ देना अच्छा भी नहीं लगता पर खाली हाथ तो हम आपको जाने नहीं देंगे तो हमारी तरफ से आप ये रखिये..” पर्यावरण की सुरक्षा की नैतिक जिम्मेदारी उठाते हुए उन्होंने मुझे नर्सरी से लाया एक क्रोटन थमा दिया.. मैं उसे हाथ में थामे देखता रहा और सोचता रहा, ‘भलेमानस अब ये भी बता कि फ्लैट में निवास करने वाला मैं इसे लगाऊं कहाँ.’पर उन्होंने इतने अपनेपन से दिया था कि मैं भावुक हो गया और कुछ कह ही नहीं पाया..
एक साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे भी आमंत्रित किया गया. कई छोटे बड़े लेखक वहाँ उपस्थित थे. उनके परिचय व प्रस्तावना का काम मेरे एक साथी लेखक कर रहे थे. सभी लेखकों की तारीफ में उन्होंने बड़े बड़े वक्तव्य कहे, उनकी प्रशंसा में जमीन आसमान एक कर दिए, उनकी लेखनी को क्रांतिकारी बता कर उन्हें महानता के उच्चतम शिखर पर बैठा दिया.मेरे लिए उन्होंने इतना ही कहा, ” ये तो हमारे अपने हैं, हमारे मित्र, हमारे अपने शहर के उभरते लेखक.”
मैं देखता रह गया तीन कहानी संग्रह, तीन व्यंग्य संग्रह, यात्रा वृतांत, दो कविता संग्रह, शोध ग्रंथ कई पत्रिकाओं में 300 से अधिक रचनाएँ छपने के बाद भी मैं उभरता लेखक था. उनका ये अपनापन किस तरह मुझे अंदर तक छेद गया मैं बयान नहीं कर सकता. जो मुझे नहीं जानते थे उन्हें पता तक नहीं चला कि मैं भी एक लेखक हूँ जो जानते थे उन्होंने बताने की जरूरत नहीं समझी कि ये भी लेखक हैं.
मैंने दो चार लोगों को बातचीत के दौरान बताने की कोशिश की कि मैं भी लेखक हूँ तो उन्होंने कहा, ‘ तो फिर प्रस्तावक ने मंच से आपका उल्लेख क्यों नहीं किया ? गलत बात है भई ये तो..” और वे आगे बढ़ गए.तो अब आप समझ गए न ..बताइये इन अपनों के अपनेपन को मैं कैसे झेलूँ, कहाँ अवेरूँ इस अपनेपन को, कहाँ संभाल कर रखूं.. पर आप इसे पढ़ने के बाद जरूर सराहेंगे क्योंकि आप तो मेरे अपने नहीं हैं. हैं न!