• शशांक दुबे

पाठकों के समक्ष `एक सच यह भी’ संकलन पेश करते हुए मधु अरोड़ा जी ने एक अच्छा काम यह किया है कि अपना यह संकलन उन्होंने उन कहानीकारों को समर्पित किया है जो तमाम आंदोलनों के बावजूद अपनी कहानियों में कहानीपन कायम रख पाये हैं।  वास्तव में पिछले दस-एक सालों से कहानी के नाम पर कुछ ऐसे प्रयोग किए जाने शुरू हो गए हैं कि अव्वल तो आम पाठक पूरी कहानी पढ़ नहीं सकता, यदि पढ़ ले तो समझ नहीं सकता और यदि समझ भी जाए, तो यह कसम खाए बिना रह ही नहीं सकता कि अब नहीं पढ़ूँगा। कहानियों में बढ़ती इस अ- कहानीपन की प्रवृत्ति का ही यह परिणाम हुआ है कि हिन्दी साहित्य की दुनिया से पाठक नामक प्राणी टेस्ट मैच के दर्शकों, शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं और संतोषी माता के भक्तों की ही तरह गायब हो गया है। कहानीपन की अक्षुण्णता के प्रति इस समर्पण भावना के लिए मधुजी को बधाई दी जानी चाहिए।  मधुजी को बधाई इस बात के लिए भी दी जानी चाहिए कि अपने संकलन की भूमिका में उन्होंने यह साफ कर दिया है कि यह किताब किसी विमर्श के लिए नहीं लिखी गई है और इन कहानियों से उभरे बिन्दुओं पर विमर्श नहीं, विचार होना चाहिए।  सरसरी तौर पर “विमर्श नहीं, विचार होना चाहिए” वैसा ही लगता है जैसे हाफ टिकट में किशोर कुमार का “मैं पागल नहीं हूँ, मेरा तो दिमाग खराब है” कहना या श्रीनाथजी के भक्तों का घर आए मेहमान से “खाना खाकर मत जाना प्रसाद पाकर जाना” कहना या शिव मंगल सिंह सुमन का “मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार, पथ ही मुड़ गया था”।  लेकिन विचार और विमर्श एक ही थैली के चट्टे बट्टे होकर भी अलग-अलग इस मायने में हैं कि जब कभी हम विचार शब्द सुनते हैं तो पुराने जमाने की हेयर कटिंग सलूनों पर लगी तख्ती `V४कर K चलिA’ की सादगी याद आती है, जिसमें अँग्रेजी का V गणित का ४ और हिन्दी का चलि व अँग्रेजी का A होता था या सड़क किनारे संतरे बेचने वाले काका की पुकार कि “दस में चार, मत करो विचार” की सरलता याद आती है। इसकी तुलना में जब हम विमर्श शब्द सुनते हैं, तो याद आते हैं पिछले बीस साल से विमर्श शब्द के नाम पर एक दूसरे की टाँग खींचते, प्रेमचंद को खारिज करते, पाठकों को मूर्ख समझते, हाथों में ग्लास और मुंह में सिगार दबाए चंद खूसट साहित्यकार, संपादक और आलोचक।  विमर्श शब्द साहित्य के इन मठाधीशों को ही मुबारक कहने के लिए मधुजी बधाई की हकदार हैं।
बहरहाल प्रस्तुत संकलन में पीड़ित पतियों को केंद्र में रखते हुए 16 कहानियाँ दी गई हैं।  एकाध को छोड़कर अधिकांश रचनाकार अपने-अपने समय के स्थापित लेखक रहे हैं।  ये वे रचनाकार हैं, जिनकी कलम के जादू से हिन्दी भाषी पाठक सम्मोहित होते रहे हैं, संपादकों और प्रकाशकों ने इन्हें खूब छापा है और आलोचकों ने इनका लोहा भी माना है।  खास बात यह है कि अधिकांश रचनाएँ इस संकलन को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि इस संकलन की भूमिका बनने से बहुत पहले लिखी गई हैं और इनमें लेखकों का यह इरादा कतई प्रकट नहीं होता कि ये कहानियाँ उन्होंने किसी खास मक़सद से या किसी विशेष विचार बिन्दु को उभारने के लिए लिखी हैं।  इसीलिए यदि इस किताब की भूमिका और मुखपृष्ठ को देखे बिना पाठक सीधे ही इन कहानियों से गुजरेगा, तो कहीं उसे एकरसता या दोहराव का आभास नहीं होगा।  तमाम कहानियाँ अलग-अलग देश-काल-परिस्थितियों के अधीन लिखी गई हैं और यही इस संकलन की विशेषता है, वरना यदि सभी लेखक इस थीम को ध्यान में रखकर कहानी लिखते तो दो-तीन कहानियाँ पढ़ने के बाद ही पाठक चश्मा उतार कर सोने चला जाता।  शायद इसीलिए कहते हैं कि अच्छी कहानियाँ लिखी नहीं जातीं, लिखा जाती हैं।
कहानियों की शुरुआत एवीएम और जेमिनी की फ़िल्मों की ही तरह संयुक्त परिवार की हलचलों से होती है। उषा प्रियंवदा की `वापसी’ में एक ऐसे परिवार का ज़िक्र है, जो मुखिया के नौकरी की वजह से घर से निरंतर बाहर रहने के कारण अब उसके बगैर रहने का आदी हो चुका है।   रिटायर होने के बाद मुखिया घर के लोगों से जुड़कर अतीत के सुहाने दिनों की ओर लौटना चाहता है, लेकिन घर के लोगों को उसका रहना, बात-बात पर टोका-टाकी करना नहीं सुहाता। कुछ दिन तो वह मान मारकर रहता है, लेकिन अंततः नई नौकरी का बहाना बनाकर घर से निकल जाता है। यह कहानी स्वार्थ लोलुप समाज में वरिष्ठ नागरिकों की संकुचित होती भूमिका पर तीखे सवाल छोड़ जाती है।
शेखर जोशी की कहानी `प्रतीक्षित’ प्रगतिशील विचारों वाले एक पति की दास्तान है, जिसके लिए दोस्तों, परिचितों और यहाँ तक कि अपरिचितों की तकलीफों के लिए भी दर्द है और जो सभी की यथासंभव मदद करना चाहता है, लेकिन पत्नी चाहती है कि वह आम बाबुओं की तरह “सुबह का निकला शाम को सब्जी का थैला लिए लौटा और रात का सोया, सुबह ज़रूरी काम के लिए ही उठा” टाइप का जीवन जिये और यही दोनों के बीच तनाव की असली वजह है।
अवध नारायण मुद्गल की कहानी `और कुत्ता मान गया’ में सीधा-सादा पति अपनी पत्नी की महत्वाकांक्षाओं से सहमा हुआ है।  नौकरी बचाने के लिए उसे बॉस के घर झाड़ू-पोंछे और कुत्ते को पुचकारने का काम करना पड़ता है और उसी की मौजूदगी में पत्नी बॉस के सामने समाजसेविका बनकर लल्लो-चप्पो करती रहती है।  पत्नी की यह ढीठता वह खून का घूँट पीकर सहता रहता है, एक दिन बॉस, बीवी और उसकी मौजूदगी में बच्चे को कुत्ता काट खाता है, बच्चा लपक कर माँ के पास आ जाता है।  गुस्से में आकर वह दुष्टा अपने बच्चे को तो दुत्कार देती है, लेकिन उसकी कलई खुल जाती है
सुभाष पंत की कहानी `छोटा होता आदमी’ हमें आम आदमी के संघर्ष की एक अलग दुनिया में लिए चलती है। कहानी का नायक एक ढाबा चलता है।  उसकी हाड़ तोड़ मेहनत का सिलसिला सूरज उगने से पहले शुरू होकर चाँद ढलने तक चलता है।  थक हारकर जब वह घर लौटता है, तो पत्नी उसके सामने रोटी के बासी टुकड़े पटक देती है।  रोज रोज की बदतमीजियों से आजिज़ आकर एक दिन वह ढाबे में ही रहने का फैसला कर लेता है।
रचनाकार अपने समय को साथ लेकर चलता है, यह तो “अनुशासन ही देश को महान बनाता है” की ही तरह घिसा-पिटा जुमला है, मज़ा तो तब आए, जब रचनाकार समय को पहले भांप ले।  इन दिनों टीवी पर पंखे बनानेवाली एक कंपनी का विज्ञापन दिखाया जा रहा है, जिसमें शादी करवाने के लिए एक जोड़ा जब वकील के पास पहुँचता है और वकील साहिबा पत्नी से पूछती हैं कि शादी के बाद तुम्हारा सरनेम बदलकर क्या हो जाएगा, तो पति दखल देता है, नहीं नहीं सरनेम मैं ही बदलूँगा।  कमोबेश ऐसे ही पति के दर्शन हमें सूर्यबालाजी की कहानी `सिर्फ मैं… ’ कराती है।  यह पति के जीवन में बुरी तरह से हस्तक्षेप करने वाली एक ऐसी पत्नी की कहानी है जो यह तय करती है कि वह पति को किस नाम से पुकारेगी, उसे पति किस नाम से पुकारेगा, पति कहाँ नौकरी करेगा, कहाँ घर लेगा, कब आएगा, कब जाएगा , वगैरह वगैरह।  आखिर पति तंग आकार उसे नमस्ते कह देता है।
जीतेंद्र भाटिया की लंबी कहानी `रुकावट के लिए खेद है’ में अर्श से फ़र्श पर आ गए एक बिज़नेसमेन की दास्तान है, जो जब तक मजे में था, उसकी घर में बहुत पूछ थी, जैसे ही गुरबत के दिन आए, परिवार सारी संपत्ति अपने कब्जे में ले लेता है।  रूप सिंह चंदेल की `अंधेरी गुफा’ में महत्वाकांक्षी पत्नी शादी से पहले किसी ओर के भ्रूण से गर्भ धारण कर इसकी सूचना पति को दिये बिना शादी कर लेती है।  पति को दुःख होता है, लेकिन वह इसे अतीत का दुखद पन्ना समझ कर भुला देता है।  बाद में पत्नी फिर ऐसी जगह नौकरी करने की ज़िद करती है, जहां का परिवेश अय्याश लोगों से अटा पड़ा है, पति मना करता है तो मुँह फुला लेती है।  संकलन की एक और रिम-झिम कहानी सूरजप्रकाश की `फैसले’ है, जिसमें महानगर में आवास की समस्या होने की वजह से पति को अपना परिवार छोटे शहर में रखना पड़ता है।  जब उसे घर मिल जाता है तो पत्नी उसके बगैर रहने की आदी हो जाती है और उसके साथ चलने के लिए टालमटोल करने लगती है। भाषा में रवानगी बनाए रखने में माहिर सूरज प्रकाश इस कहानी के माध्यम से हमारे जीवन की इस जटिलता पर प्रहार करते हैं कि मुसीबतों में रहते-रहते कभी हमें मुसीबत से भी प्यार हो जाता है और अच्छी भली सुविधाएं चुभने लगती हैं।
संकलन की एक और अच्छी, रोचक और गुथी हुई कहानी पंकज सुबीर की `मनेजर साहब’ है।  यह एक ऐसे पति की कहानी है, जिसकी पत्नी कस्बे की अन्य महिलाओं की तुलना में ज़्यादा पढ़ी लिखी, ज़्यादा सुंदर और मायके से ज़्यादा दहेज लानेवाली है, इसी के नशे में वह दिन भर रहती है, पति को टोकती है, मज़ाक उड़ाती है और एक हद तक उल्लू समझती है।  पत्नी का इस कदर आतंक है कि पति किसी दिन अपने दोस्तों को घर चाय पर भी नहीं बुला सकता।  दबते-दबते एक दिन उसके प्राण निकल जाते हैं।  इस कहानी से एक बार फिर यह साबित हो जाता है कि सुबीरजी ऐसे कहानीकार हैं, जिनसे पिस्तौल की नोक पर भी बोर नहीं लिखवाया जा सकता।  वैसे ही, जैसे जॉन अब्राहम से एक्टिंग नहीं करवाई जा सकती और भारत भूषण से गाली नहीं दिलवायी जा सकती।
संकलन में गोविंद मिश्र, नासिरा शर्मा, लक्ष्मी शर्मा, कंचन चौहान, मनीषा कुलश्रेष्ठ और तेजेंद्र शर्मा जैसे बड़े नाम वाले लेखकों की कहानियाँ भी हैं। कुल मिलाकर छह बहुत ही अच्छी, तीन रिम-झिम और सात सामान्य कहानियों के इस संकलन में पति पीड़न की नहीं बल्कि पारिवारिक संवेदना की कहानियाँ हैं।  और जब परिवार होगा तो पति होगा, पत्नी होगी, बच्चे होंगे, उनके सुख-दुख, मान-मनुहार, लड़ाई-झगड़े, पीड़न, उत्पीड़न, सभी कुछ होंगे।  पारिवारिक संवेदना की ये  कहानियाँ पाठकों के समक्ष यह बात रखने में भी सफल रही हैं कि घर की दीवारें पति की दुष्टताओं की वजह से ही नहीं, पत्नी की मूर्खताओं की वजह से भी हिलने लगती हैं।  इसमें कोई शक नहीं कि इन कहानियों के पुरुष-पात्र अपनी-अपनी पत्नियों या प्रेयसियों से पीड़ित हैं, लेकिन फिर भी उनकी यह पीड़ा, उनकी यह तकलीफ उन महिलाओं की पीड़ा का शतांश भी नहीं है, जो इधर हम अख़बारों के मार्फत, चैनलों के मार्फत, लोगों से होनेवाली बातों के मार्फत जान रहे हैं।  पिछले कई सालों में शायद ही कोई ऐसा कोई दिन बीता हो, जब किसी अखबार में हमने किसी महिला या युवती यहाँ तक कि किसी मासूम सी बच्ची के साथ कुकर्म की बात न पढ़ी हो।  ये वे घटनाएं हैं, जिन्हें पढ़ते ही हम सिहर उठते हैं, हमारी रुह तक काँप जाती है। लेकिन संकलन की इन कहानियों में ऐसा  कहीं नहीं है।  शायद इसका कारण यह हो कि आज भी स्त्री में इतनी कोमलता, आत्मीयता और संवेदनशीलता बची है कि यथार्थ में तो दूर, कहानियों में भी वह इतनी क्रूर, इतनी निर्मम, इतनी दुष्टा बनने को तैयार नहीं है।  औरत ने अपनी इंसानियत अब भी बचा कर रखी है, कहानियों में भी और हकीकत में भी।

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