भारतीय हिंदी सिनेमा के इतिहास में अंडरवर्ल्ड को लेकर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है। कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस तो कुछ दर्शकों के मन मे अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल रही हैं। जुर्म की दुनिया के दलदल में धंसे लोगों पर आधारित फिल्में दर्शकों के मन झंझोड़ती ही नहीं अपितु समाज के एक काले पक्ष की सच्चाई से रूबरू भी कराती हैं। अमूमन जब कोई मुजरिम या बेगुनाह मुल्ज़िम पुलिस के हाथों मारा जाता है तब पुलिस  डिपार्टमेंट अपनी पीठ थपथपाता है। न्यूज़ चैनल व अख़बार में इस प्रकार की खबरें सुर्खियों में छपती व दिखाई जाती हैं। पर विसंगति यह है कि इन सबके बीच मारे गए व्यक्ति के परिवार व उस पर आश्रित लोगो पर क्या गुज़रती है इस बारे में कोई न सोचता है। न ही जानना चाहता है। मारा गया व्यक्ति तो केवल एक मौत मरता है पर जिस प्रकार उसके परिवार वालों को समाज से घृणा व उपेक्षा मिलती है वे हर दिन सैकड़ों मौतें मरते हैं। उनके आसपास रह रहे लोग ही नहीं अपितु उनके रिश्तेदार तक उनका बहिष्कार कर देते हैं।
डायरेक्टर प्रतिभा शर्मा कृत ‘नयी अम्मी’ लघु फ़िल्म एक व्यक्ति के पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने तथा उसके बाद उसकी बेवा पत्नी के सामजिक उपेक्षा व उसके संघर्ष की कथा है। यह संघर्ष वास्तव में एक माँ का संघर्ष है। प्रतिभा शर्मा हिंदी सिनेमा व रंगमंच की एक महत्वपूर्ण हस्ती हैं। उनकी निर्देशित अनेक लघु फिल्में गंभीर विषयों पर केंद्रित होती है। जो समाज की विद्रूपताओं से दर्शकों को रूबरू कराती हैं। उसकी कड़वी सच्चाई को मार्मिकता के साथ उजागर करती हैं। इनके मूल में कहीं न कहीं स्त्री सशक्तिकरण की अवधारणा निहित होती है। उनकी लघु फ़िल्म ‘नयी अम्मी’ एक विधवा माँ के संघर्ष की कथा है। मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित ‘नयी अम्मी’  फ़िल्म का आंरभ मुस्लिम बस्ती के दृश्य से होता है। बस्ती की एक गरीब मलिन चॉल में नायिका अपने चार बच्चों के साथ अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त है। उसके बच्चे पड़ोस के बच्चो के साथ खेल रहे हैं तभी पुलिस के दो अफसर उसके पति इरफ़ान की लाश सहित उसके घर पहुंचते हैं। मृत पति की लाश देखकर वह चीख़ उठती है। पुलिस उसे लेकर थाने चली जाती है। रात में वह घर आती है। घर मे कोई परिचित स्त्री उसकी गैरमौजूदगी में उसके बच्चों को संभालती है। वह इरफ़ान के विषय मे उससे पूछती है और जवाब सुनकर तुरंत ही चली चली जाती है। नायिका अकेले ही अपने बच्चों से लिपट कर विलाप करती है। अगले दिन वह देखती है कि पड़ोस के बच्चों का व्यवहार एकदम से बदल गया है। जो बच्चे अभी तक उसके बच्चों के साथ प्रेमपूर्वक खेलते थे वे हामिद और शाहिद से मारपीट कर रहे हैं। वे तुरंत ही दोनों को ऊपर बुला लेती है। उसे समझते देर नही लगती कि इसके पीछे क्या कारण है। वह रात भर सो नही पाती है। बार बार बच्चो वाली घटना उसकी आँखों के सामने कौंधती है। बच्चों के प्रति एक अनजाना भय उसे सताने लगता है। वह उसी समय उठती है और इरफ़ान के सामान की तलाशी लेती है। उसे मचान पर कुछ ज़रूरी काग़ज़ जो प्रोपर्टी के हो सकते हैं और नोटों का एक बंडल मिलता है। वे हैरान और असमंजस में रह जाती है।
फ़िल्म की कथा एक अंतराल पाती है। कुछ समय बीत गया है इसके साथ ही परिदृश्य भी बदल जाता है। वह अपने बच्चो के साथ एक नयी जगह व नये घर मे हैं। सब कुछ स्वच्छ व साफ़ है। घर का सामान थोड़ा पैक है और थोड़ा बाहर। वह एक नए समाज मे प्रवेश करती है। हामिद और शाहिद को एक अच्छे स्कूल में डालती है। दोनों बच्चियों को क्रैश के हवाले करती है और अपनी मंज़िल पर निकल पड़ती है। इन सबके बीच सबसे पहले वह अपने अतीत को खुद से अलग करती है। मलिन अतीत से छुटकारा पाती है। एक नए रूप में। वह नए घर व समाज मे नयी पहचान के साथ आगे बढ़ती है। उसके बच्चो के लिए भी अब नयी अम्मी का जन्म होता है। इस प्रकार इतने बड़े समाज मे वह अकेले ही चार बच्चों का पालन पोषण, एक बेहतर भविष्य और समाज मे इज़्ज़त के साथ जीने का मार्ग प्रशस्त करती है।

फ़िल्म का कथानक अनेक प्रसंगों में मार्मिक और संवेदनशील है। फ़िल्म में कहीं भी नायिका का नाम नही है उसे केवल बच्चो की अम्मी के रूप में चित्रित किया गया है। वे इरफ़ान की विधवा है और बच्चो की माँ यही उसका परिचय है। ऐसा किरदार समाज मे कोई भी स्त्री हो सकती है जो अपने बच्चो के लिए अकेले ही समाज मे रहकर संघर्ष करती है। उसमें दूरदर्शिता है अतः अपने बच्चो के साथ पड़ोस के बच्चों का व्यवहार देखकर वह चिंतित हो जाती है। बालमन कोरा व निर्मल होता है।

बच्चे वही करते हैं जो उनके बड़े उनके सामने करते हैं। बच्चों का बेरुखा व्यवहार देख वह तुरंत समझ जाती है कि आस पड़ोस के लोगों के मन मे उसके बच्चों के प्रति नकारात्मक व उपेक्षित समझ विकसित हो रही है। उसके प्रति समाज मे नफ़रत पैदा पनप रही है। वह जानती है कि यह केवल शुरुआत भर है आगे उसके बच्चों को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। तरह- तरह से सामाजिक उपेक्षा व तिरस्कार झेलना पड़ेगी। ये सोचकर ही उसे रातभर नींद नही आती है। यहाँ तक कि जो स्त्री उसकी गैरहाजिरी में उसके बच्चो को संभालती है। इरफान के विषय मे सुनकर तुरंत चली जाती है। वह स्त्री सांत्वना देने या विधवा के आंसू पौंछने के लिए भी नही रुकती। ऐसी परिस्थिति में केवल पड़ोस ही नही बल्कि रिश्तेदार भी उससे मुंह मोड़ लेते हैं।

फ़िल्म का कथानक बहुत सुगठित है। फ़िल्म के आंरभ में ही पुलिस का पर्दापण दर्शकों में जिज्ञासा व मन में अनेक प्रशन उत्पन्न करता है। इरफ़ान पुलिस एनकाउंटर में मारा गया या किसी दुर्घटना में यह प्रशन लंबे समय तक दिमाग़ में खलबली मचाए रहता है। इस का पटाक्षेप तब होता है जब नायिका को नोटों का बंडल प्राप्त होता है। दूसरा प्रशन उठता है कि क्या इरफ़ान की पत्नी अपने पति के ग़लत कामों के बारे में जानती थी या नहीं। तीसरा प्रशन कि क्या उसे पति द्वारा छोड़े गए नोटो के बारे में ज्ञान था या नहीं। चौथे, यदि पति आर्थिक सहायता छोड़ कर नहींं जाता तब परिदृश्य क्या होता?  उसकी पत्नी नए घर व नए समाज मे कैसे प्रवेश करती।

असल मे फ़िल्म में जो कुछ प्रत्यक्ष दिखाया जाता है वे बहुत हद तक स्थिति और घटनाक्रम को समझने में सहायक होता है। पर जो कुछ नहीं दिखाया जाता उसे दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया जाता है। पर्दे पर नही दिखायी जाने वाली घटनाएं भी काफ़ी कुछ कहती हैं। अतः यह माना जा सकता है कि इरफ़ान और उसकी पत्नी के बीच सांकेतिक रूप से नोटों के विषय मे बातचीत हुई होगी। इरफ़ान अपना अंजाम जानता था अतः वे पत्नी व बच्चो के लिए कुछ आर्थिक सहायता छोड़ कर जाता है। यदि इरफ़ान पत्नी के लिए नोटों का बंडल न भी छोड़ कर जाता तब भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए उसकी पत्नी कुछ न कुछ कदम अवश्य उठाती। क्योंकि उसे बच्चों की चिंता पैसे मिलने से पहले होती है। पैसे मिलने के बाद नहीं। वह जानती है कि जीवन मे अब उसे अकेले ही संघर्ष करना है। बच्चों की परवरिश करनी है अतः सबसे पहले वह अपने अतीत को समाप्त करती है। वे जानती है कि समाज उसके अतीत के कारण उसके बच्चों की उपेक्षा व अवहेलना करेगा। वे खुद को नए रंग रूप में ढालती है। एक नयी पहचान देती है। उसका एक नया अवतार होता है। वे अब बेबस नही है उसके बच्चे अपनी माँ के नए रूप को देख कर उसे नयी अम्मी बुलाते हैं।

‘नयी अम्मी’ घर की चारदीवारी में बंद केवल बच्चे पैदा करने तक सीमित नही है बल्कि यह आधुनिक नारी है जो माँ भी है। जो बेबस नही है। वे जीवन मे अकेले संघर्ष करना जानती है। अकेले ही अपना व अपने बच्चों का भरण पोषण कर सकती है। उन्हें अच्छी शिक्षा दीक्षा देकर उनके लिए बेहतर भविष्य व बेहतर समाज का निर्माण कर सकती है। यही तो असली स्त्री सशक्तिकरण है। यही फ़िल्म का मूल संदेश भी है।

फ़िल्म में गिने चुने ही संवाद हैं। बाक़ी संवाद चरित्रों के हावभाव करते हैं। फ़िल्म का संगीत इस पूरी फिल्म में प्राण डाल देता है। नायिका की संवेदना, मार्मिकता व उसकी पीड़ा संगीत का साथ पाकर मन को और भी अधिक  विकल कर देती है। थाने से रात में जब वह घर लौटती है तब अपने बच्चों से लिपट कर रोटी है। एकबारगी उसकी करुण क्रदन व विलाप सुनकर दर्शकों की आंखे नम हो जाती है। पाशर्व में बजता संगीत पति को खो चुकी स्त्री की पीड़ा समेत उस दृश्य को और भी मार्मिक बना देता है। अंघेरे कमरे में बच्चों से लिपट कर रोती अकेली विधवा की बेबसी मन को भिगो देती है। ऐसा लगता है कि पति के जाने के बाद उसका जीवन भी खाली कमरे सा अन्धकारमय व शून्य हो गया है। फ़िल्म का डाइरेक्शन बेजोड़ है। आंरभ से अंत तक दर्शकों में कौतूहल व जिज्ञासा बनी रहती है। 13 मिनट की लघु फ़िल्म अपने बेजोड़ अभिनय से दर्शकों को बांधे रखती है। नयी अम्मी के किरदार में सीमा आज़मी केंद्रीय भूमिका हैं। उनकी गज़ब की एक्टिंग दर्शकों को भाव विभोर कर देती है। बाक़ी कलाकारों ने भी कमाल की एक्टिंग की हैं। कुल मिलाकर फ़िल्म बहुत ही अच्छी बन पड़ी है। यह अपने विषय को भी सार्थक करती है।

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