आज बात अकबर आजम कादरी यानी कादरी बन्धुओं की फ़िल्म ‘ शहज़ादा अली ‘ की जोकि सात साल के लंबे किन्तु सुखद इंतज़ार के बाद ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम कर रही है. फिल्म एम एक्स प्लेयर पर उपलब्ध है। जीशान कादरी निधि बिष्ट एवं चाइल्ड आर्टिस्ट इज़हार खान के अभिनय से सजी फ़िल्म भावनात्मक रूप से मज़बूत है. अली के केंद्र में एक स्पेशल बच्चे की कहानी है. उसकी मनोविज्ञान की परतें हैं. एक ज़रूरत से ज्यादा केरिंग मां की मजबूरियां हैं.
एक अटकी हुई फ़िल्म के साथ बहुत सी दिक्कतें पेश आती हैं. फिल्म को बनाते हुए कादरी बंधुओं को कहीं न कहीं भरोसा ज़रूर रहा होगा कि हमारा सपना एक रोज़ व्यापक पटल पर अपनी जमीन अर्जित करेगा. वो दिन और दिन के उजाले देखने का दिन, कहना होगा विश्वास के दम पर ही कठिन युद्ध जीते जाते हैं. बहरहाल आज जबकि ‘शहज़ादा अली’ हम सबके बीच है, इस पर दो बातें करना ज़रूरी लगता है. पहली इसलिए क्योंकि यह बच्चों के मनोविज्ञान की पड़ताल करती फिल्म है. दूसरी बात यह कि यह मां बाप को संदेश है. स्पेशल बच्चों को लेकर मां बाप एक्स्ट्रा केरिंग होने के प्रक्रिया में बच्चे के मन में डर का संसार रच देते हैं. लेकिन बच्चे की जिज्ञासा अपनी जगह, उसे तो रोका ही नहीं जा सकता. बच्चा अली हो या उस जैसा कोई और सब में अपने आस पास के चीजों को लेकर बेहद उत्सुक ता रहती है. किस्से कहानियों के भीतर जाने का अदम्य आकर्षण होता ही है. बाल मन किसी जिज्ञासा को लेकर तब तक विचलित रहता है जब तक कि वो उस चीज के बारे में सबकुछ न जान ले.
‘शहज़ादा अली ‘ कहानी है दिल में सुराख लिए पैदा हुए बच्चे अली की. अली एक ख़ास बच्चा है. वो दूसरों की तरह जिंदगी का खुलकर मज़ा नहीं ले सकता क्योंकि शैतान सुराख़ बन कर दिल में बैठा है. लेकिन बच्चा तो फिर भी बच्चा होता है. अपने उम्र की हरेक चीज को जीना उसका शौक़ होता है. अली भी अपने उम्र के दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलना चाहता है. दोस्तों के साथ मिलकर थोड़ी सी शैतानियां करना चाहता है. लेकिन अम्मी की किस्सों ने उसे बहुत डरा दिया है. लेकिन एक मजबूर मां के सामने कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था.
अली जैसे ना जाने कितने बच्चे हमारे आस पास होंगे. लेकिन उनकी कहानी हम तक नहीं पहुंच पाती. ऐसे में एक का सामने आना ध्यान खींचता है.शहज़ादा अली में ऐसे ही बच्चे की कहानी लेकर आई है. अली शारीरिक विवशता के वजह से बाक़ी बच्चों की तरह बचपन नहीं जी सकता. अली को बीमारी का पता न चले . इसके लिए अम्मी एक काल्पनिक कहानी बुनती जाती है, ताकि बेटा अपनी शारीरिक विवशता को लेकर पीड़ित न महसूस करे. अली के अंदर एक झूठी ही सही लेकिन उम्मीद रहे, इस कोशिश में अम्मी ज्यादा ही केयरिंग बन जाती है. दूसरी तरफ़ पिता रोटी, कपड़ा, मकान की ज़रूरतों में खर्च हो रहे हैं. तमाम उतार चढ़ाव के बाद आखिर में एक ख़ूबसूरत एहसास को लेकर फिल्म की कथा मंजिल को पाती है. कहीं न कहीं एक संदेश भी मिलता है क्यों सुख, सुकून, जिंदगी में बदलाव हमेशा एक कीमत पर हासिल होते हैं.
सात वर्ष पहले का ही सही लेकिन कलाकारों का अभिनय कौशल हालातों से हिसाब से है. पिता के रोल में ज़ीशान कादरी ने सधा हुआ अभिनय किया है. जो किरदार की ज़रूरत थी ख़ुद को उस अनुरूप ढाल सा लिया था आपने. अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर में ही ज़ीशान ने दिखा दिया था कि वो काबिल अभिनेता भी हैं. आजकल भले ही सिर्फ़ लेखन पर फ़ोकस कर रहें हैं. मां के रूप में निधि बिष्ट ने भी किरदार को प्रभावी तरीके से निभाया. दोनों माता पिता के किरदार में सहज हैं. टाइटल रोल इज़हार ख़ान ने बहुत परिपक्वता से निभाया है. कहना होगा कि वो सक्षम कलाकार हैं.
अली को अपना बचपन जी लेने से बीमारी रोक रहीं थी. दिल का ऑपरेशन हो जाने बाद बच्चा अपने अंदर जमे डर को हमेशा के लिए निकाल फेंकता है. अम्मी भी उसे अब खुल कर जीने दे सकती थी. मां बेटे के रिश्ते के बीच ही कहीं कहानी अपना मतलब ढूंढ़ रही थी. फिल्म का मुख्य आकर्षण उसकी कहानी ही है. बच्चों की दुनिया के संवेदनशील पक्ष सामने हैं. मां बाप की उलझन है., धागो को जोड़ता बेहतर गीत संगीत है. नीलेश मिस रा के गीत गतिविधियों में हमारी रुचि बनाते हैं.लेकिन कहानी उतने इवेंट्स नहीं जेनरेट कर पाई है जितने होने चाहिए थे. उसमें हाई- लोज जरूर हैं मगर और होते तो अलग बात होती. आस पड़ोस के बच्चों में अपने ख़ास दोस्त को लेकर क्या कुछ चल रहा था, लाया जा सकता था. अली के किरदार के अनछुए पहलुओं में रुचि का विस्तार होता. फिर भी कहना चाहिए अकबर आजम कादरी की फिल्म बच्चों की दिलचस्प दुनिया की पड़ताल करती एक सराहनीय कोशिश है.