NCERT की कक्षा 1 की हिंदी की पाठ्यपुस्तक “रिमझिम” में ‘आम की टोकरी’ कविता को सन 2006 में शामिल किया गया। जिस पर अचानक कुछ आलोचको की निगाह अब 2021 में यानि पूरे 16 साल बाद गयी, आलोचको के साथ-साथ एक फिल्मी कलाकार जो आजकल हिन्दी साहित्य में मिथको के सहारे जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं वे भी मैदान में उतर आए, अपने लेख की शुरुआत करने से पहले मैं कविता को हूबहू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-
“आम की टोकरी”
भर कर लाई टोकरी।
टोकरी में आम है,
नहीं बताती नाम है।
दिखा दिखाकर टोकरी,
हमें बुलाती छोकरी।
हमको देती आम है,
नहीं बुलाती नाम है।
नाम नहीं है पूछना,
आम हमें है चूसना।
एनसीईआरटी देश की शिक्षा और अनुसंधान की एक बड़ी संस्था है जिसमें पाठ्यचर्या का कार्य देखने के लिए एक अलग विभाग है जिसका काम देश की शिक्षा व्यवस्था के लिए बेहतरीन पाठ्यक्रम तैयार करने का जिम्मा है, स्कूली शिक्षा यानि औपचारिक शिक्षा में पाठ्यक्रम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। सामान्यतः पाठ्यक्रम के दो अर्थ हैं: (i) वे पाठ्यक्रम जिनमें से छात्र अपनी पसंद के विषय चुनते हैं और (ii) एक विशिष्ट शिक्षा कार्यक्रम. बाद वाले मामले में पाठ्यक्रम, अध्ययन के लिए दिए गए कोर्स की शिक्षा, ज्ञान और उपलब्ध मूल्यांकन सामग्री का सामूहिक वर्णन करता है। पाठ्यक्रम निर्माण के लिए ही एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ आया जिसे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या- 2005 के नाम से जाना जाता है, जिसकी सिफ़ारिशों मे से मुख्य थी- स्कूल के बाहर जीवन से ज्ञान को जोड़ना। इस एक पंक्ति से अगर मैं उपरोक्त कविता के संदर्भ में बातचीत शुरू करता हूँ तो बात ज्यादा आसान होगी।
उपरोक्त कविता की आलोचना करते हुए आलोचक कह रहे हैं- ये किस ‘सड़क छाप’ कवि की रचना है? कृपया इस पाठ को पाठ्यपुस्तक से बाहर करें। क्या हम अपने बच्चों को साहित्यिक शिक्षा दे रहे हैं या डबल मीनिंग वाली कविता सिखा रहे हैं। यह किसी बॉलीवुड गाने के बोल हैं। कुछ को ‘छोकरी’ शब्द पर आपत्ति है तो कुछ को ‘चूसना’ शब्द पर। कुछ आलोचको का तो यहाँ तक कहना है कि यह कविता बाल मजदूरी सिखा रही है।
‘छोकरी’ शब्द एक स्थानीय शब्द है जो हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आम बोलचाल की भाषा है। कौरवी में भी ये शब्द खूब इस्तेमाल होता है। ‘चूसना’ शब्द के अलग-अलग जगह प्रयुक्त होने पर इसका अर्थ बदल जाता है। कितने ही स्थानो पर दशहरी आम को चूसा ही जाता है तो किन्हीं स्थानो पर आम की अन्य प्रजातियों को यथा- चोसा, सफेदा, लंगड़ा या अन्य को। कुछ स्थानो पर आम खाना प्रयोग करते हैं तो कहीं आम खाया नहीं जाता बल्कि चूसा जाता है। देश के प्रधानमंत्री से एक साक्षात्कार में फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार पूछते हैं- “आप आम खाते हैं या चूसते हैं?” अगर आम चूसना अश्लील भाषा होती या द्वि-अर्थी होता तो माननीय प्रधानमंत्री उक्त एंकर को टोकते कि आप राष्ट्रीय चैनल पर द्वि-अर्थी भाषा का प्रयोग न करें। दिल्ली में लोग गन्ना खाना बोलते हैं, लेकिन अंदाजा लगाइए उन्हें कितना अजीब लगता होगा जिन्होने अपने यहाँ ‘गन्ना चूसा जाता है’, ही सुना है।
उक्त विवाद के संदर्भ में जब मैंने सोशल मीडिया पर खोजबीन शुरू की तो मुझे अर्चना तिवारी का लिखा हुआ कुछ मिला जिसे मैं यहाँ उद्धरत कर रहा हूँ- अर्चना लिखती हैं-  “इस कविता को जब मैंने पहली बार पढ़ा तो मस्तिष्क में अपने ननिहाल का एक दृश्य घूम गया जब बाग से आम तोड़कर लाया जाता था तो दालान में ढेर लगा कर रख दिया जाता था। ऐसे में हम बच्चों को खेलने का एक नया खिलवाड़ मिल जाता था। हम छोटी-छोटी डेलरियों (बाँस की टोकरी) में उन्हें रखकर झूठ-मूठ की दुकान लगाते थे। आम तौर पर कृषक परिवार में अनाज आदि तोलने के लिए तराजू और बटखरा होता ही है। हम उसमें तौल-तौल कर ग्राहक बने बच्चों को देते थे। पैसे के रूप में टूटे घड़े की चिप्पियाँ प्रयोग करते थे। यह हमारा सबसे पसंदीदा खेल होता था। कभी-कभी तो बड़े भी इसमें शामिल हो जाते थे और सचमुच का पैसा मिल जाता था। न सिर्फ आम बल्कि कोइया (महुआ का फल), अनाज आदि के ढेर के साथ भी ऐसा ही खेल चलता।“
वे आगे कहती हैं- ‘छोकरी’ शब्द देशज भाषा का शब्द है। इस शब्द का प्रयोग न जाने कितने लेखकों ने अपनी रचनाओं में किया होगा। जिनमें से कई तो हिंदी साहित्य की अद्वितीय रचनाएँ होंगी। आपके अनुसार उनको भी साहित्य से बहिष्कृत किया जाना चाहिए।
हिंदी में अनेकार्थी शब्द होते हैं जिसमें एक शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। ऐसे ही शब्दों के अलंकरण से भाषा चमत्कृत होती है। एक शब्द के दो अर्थ होना गलत है तो साहित्य से ‘अलंकार’ भी खारिज करने की अपील कीजिए  क्योंकि वहाँ एक शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। आपको तो द्विअर्थी ही नागवार लग रहा है।“
इस कविता की किसी भी पंक्ति से यह नहीं ज्ञात होता कि छह साल की छोकरी आम बेच रही है। किंतु यह अवश्य लगता है कि कोई छोटी सी बच्ची टोकरी में आम भरकर उसके आस-पास जो भी है उनको अपनी भोली अदाओं को दिखाते हुए खेल रही है। आपको इसमें बाल मजदूरी दिख गई। तो साहब इस आपदा में न जाने कितने बच्चे ठेले पर सब्जी बेचते शायद आपको नज़र आए भी होंगे। तो साहब उन बच्चों के लिए भी कुछ कीजिए। छह साल की छोकरी तो केवल कविता में है। हकीकत में जो छोकरियाँ घर-घर काम कर रही हैं उनके लिए भी कुछ कीजिए साहब। हाँ इतना अवश्य है कि ट्विटर पर कविता की छोकरी के लिए आपत्ति जताकर दो पंक्तियाँ लिख देने से रातों रात आप चर्चित हो गए किंतु हकीकत में किसी छह साल की छोकरी के भविष्य के लिए कुछ करेंगे तो आपको कौन जानेगा?
सोशल मीडिया पर ही शिखा वसु वैरागी   लिखती हैं- “मैं देख रही हूं कि एनसीईआरटी की कक्षा 1 की हिंदी की पाठ्यपुस्तक रिमझिम में यह ‘आम की टोकरी’ कविता पर सोशल मीडिया में बड़ा विवाद हो रहा है। बहुतायत लोग कह रहे हैं कि ऐसी कविता नहीं होनी चाहिए पाठ्य पुस्तकों में और कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें यह कविता सामान्य कविता की तरह ही लग रही है।
मैंने भी अभी कुछ महीने पहले एनसीईआरटी कक्षा एक की तीनों पाठ्य पुस्तकों की ट्रेनिंग ली थी। उस समय यह कविता भी आंखों के सामने से गुजरी थी..  लेकिन सच कहूं तब ऐसा भाव आया ही नहीं था कविता को पढ़कर कि यह स्त्री विरोधी, बाल श्रम को बढ़ावा देने वाली और अश्लील कविता है।
प्रथम दृष्टया हम व्यस्क लोगों को यह कविता बेढंगी जरूर लगती है। लेकिन यदि 6 साल के छोटे बच्चे के मानसिक स्तर पर जाकर सोचेंगे तो कविता मस्ती वाली लगेगी। और छोटे बच्चों के लिए लिखी इस कविता को यदि परिपक्व व्यस्क की नजर से देखेंगे तो कविता अश्लील लगेगी। क्योंकि खुराफात और कुतर्क हमारे मन-मस्तिष्क में भरा है। समस्या यह है कि हमने ही भाषा के सामान्य बोलचाल के शब्दों को भी अश्लीलता से जोड़ रखा है। इसलिए हमें इस कविता के कुछ शब्दों में भी अश्लीलता नजर आ रही है। जबकि एक बालमन में झाकेंगें तो ‘अश्लीलता’ शब्द उस बालमन से कोसों दूर होगा।
इतने छोटे बच्चे तो शायद वहां तक सोच ही ना पाएं.. जहां तक हम आप अपनी सोच को ले जा पा रहे हैं। तमाम क्षेत्रीय भाषाओं में लड़का-लड़की, छोकरा-छोकरी, मोढ़ा- मोढ़ी, लाइका-लाइकी, बबुआ-बबुनी आदि शब्द प्रयोग किए जाते हैं। हो सकता है अलग-अलग क्षेत्रों के शब्द दूसरे क्षेत्रों में अटपटे लगते हों लेकिन वहां के लिए तो वह शब्द सामान्य बोलचाल की भाषा के ही होंगे। चूंकि इस कविता के कवि उत्तराखंड के हैं। संभवतः उन्होंने ऐसे शब्दों का प्रयोग कविता को रुचिकर, तुकबंदी तथा बच्चों को समझाने और कविता से जुड़ाव के लिए ही किया होगा। मुझे भी कविता पढ़कर ऐसा ही लगा।
एक 6 साल के बच्चे के नजरिए से यह कविता कैसी है.. यह जानने के लिए मैंने अभी अपने 7 साल के बेटे ‘वसु’ को यह कविता दो-तीन बार पढ़वाई और फिर पूछा कि तुम्हें यह कविता पढ़कर क्या समझ आया..!! उसका जवाब भी एकदम बच्चों वाला ही रहा। उसने बोला कि,  इसमें एक लड़की है जो टोकरी में आम बेच रही है। तो इस तरह देखा मैंने कि बाल मनोविज्ञान भी बस ‘आम’ मतलब फल पर ही केन्द्रित हुआ। टोकरी में फल बेचने का अभिनय हमने भी अपने बचपन में बहुत किया होगा और अभी भी बच्चे फल या सब्जियां बेचने का अभिनय अपने घर पर या विद्यालय में करते हैं। इसका ये मतलब तो नहीं हुआ कि हम बालश्रम को बढ़ावा दे रहें।
अंत में एक बात और.. इस कविता के नीचे शिक्षकों के लिए एक फुट नोट भी लिखा हुआ है। इसमें लिखा है कि..  बच्चों से बात करें और पूछे कि क्या वह किसी ऐसे बच्चे को जानते हैं जो स्कूल जाने के बजाय बाल मजदूरी कर रहे हैं। अगर हां तो उन्हें बताएं कि वह कैसे इन बच्चों की मदद कर उन्हें स्कूल में दाखिला लेने को प्रेरित कर सकते हैं। अगर इस फुटनोट को देखा जाए और समझा जाए तो मुझे नहीं लगता कि यह कविता कहीं से भी बाल श्रम को बढ़ावा देने वाली है। जैसा लोग बोल रहे हैं।“
किसी भी रचना को पाठ्यक्रम में शामिल करने की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। “आम की टोकरी” को पाठ्यक्रम में रखने के पीछे समिति की क्या मंशा रही होगी इस बात से मैं अनभिज्ञ अवश्य हूँ लेकिन प्राथमिक, माध्यमिक और बी.एड के छात्रो को पढ़ते समय ये अवश्य जाना कि भाषा सिखाना भी पाठ्यक्रम का एक अहम हिस्सा होता है, हम बच्चो के शब्द ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि करते जाते हैं, मनोवैज्ञानिक स्तर पर विचार करें तो भी प्रथम कक्षा के स्तर पर भारी भरकम शब्दों या कलिस्ट भाषा के शब्दों वाली रचना तो इस स्तर के बच्चो के पाठ्यक्रम में कतई नहीं रखी जाएगी।
मुझे लगता है कि आलोचकों से इस पूरे विमर्श में एक बड़ी त्रुटि हुई है- आलोचना कविता मे प्रयुक्त शब्दों या उन्हें द्वि-अर्थी साबित न करके इस बात पर होनी चाहिए थी कि क्षेत्र विशेष में बोले जाने वाले शब्दों से ओतप्रोत रचना को क्या “राष्ट्रीय पाठ्यक्रम” में रखा जाना चाहिए, तब आलोचना का महत्व समझ में आता लेकिन यहाँ बात इसके चयन पर न होकर शब्दों पर सिमट गयी।
गौर करें नयी शिक्षा नीति-1986 में क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देने की वकालत ज़ोर-शोर से की गयी थी, उसमें पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा में मातृभाषा/स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है। साथ ही मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है। ‘नवोदय विद्यालय’ की संकल्पना में भी इसकी पुरजोर वकालत कि गयी थी कि हिन्दी क्षेत्र के छात्र कुछ समय अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में जाकर पढ़ाई करेंगे और अहिन्दी भाषी छात्र हिन्दी भाषी क्षेत्र में जाकर, ज्सिके पीछे क्षेत्रीय भाषाओ का ज्ञान देना प्रमुख था। वर्तमान सरकार का एक प्रोजेक्ट है- “एक भारत श्रेष्ठ भारत जिसके अंतर्गत अनेक कार्यक्रम स्कूल स्तर पर चलाये जा रहे हैं- “सिक्किम प्रोजेक्ट” उसमें से एक है जिसका उद्देश्य भी यही है कि हम अलग-अलग जगहों की भाषा और संस्कृति को आत्मसात करें। “एक भारत श्रेष्ठ भारत” परियोजना का उद्देश्य यह है कि इस परियोजना / गतिविधि में, छात्र अपने आम फोनेटिक और वैज्ञानिक रूप से व्यवस्थित वर्णमाला और लिपियों, उनके आम व्याकरण संरचनाओं, उनके मूल और संस्कृत और अन्य शास्त्रीय भाषाओं से शब्दावली के स्रोतों के साथ शुरू, साथ ही उनके समृद्ध अंतर-प्रभाव और मतभेदों के साथ शुरू होने वाली अधिकांश प्रमुख भारतीय भाषाओं की उल्लेखनीय एकता के बारे में जानेंगे।
मेरी बात को मैं और पुख्ता तरीके से कहूँ उसके लिए मैं कुछ विद्वान साथियों की राय साझा कर रहा हूँ-
डॉ. अमीता नीरव का कहना है- “यहाँ कवि के शब्द चयन पर आपत्ति नहीं है कविता के चयन पर आपत्ति है।“ लीना दरियाल जी का भी कहना है- “कविता पर आपत्ति न होकर एनसीईआरटी के इसके चयन पर आपत्ति है।“
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक चिंतक मित्र हरिकृष्ण कविता को सामान्य मानते हैं लेकिन उनका कहना है-“प्रश्न भाषा में आपत्ति या द्विअर्थ ढूँढने का नही है। प्रश्न यहाँ भाषा का है। एक बच्चे को क्या इसी भाषा से शुरुआत कराई जाएगी? गंभीरता से सोच कर देखें।“
यतीन्द्र नाथ सिंह कहते हैं –“जिन्हें छोकरी शब्द में एतराज है वे कृष्ण से सम्बंधित रचना देखे-  ताही अहीर की छोकरियां, छछिया भरी छाछ पे नाच नचावे।“
भारत सैनी का मानना है-“इस पर आपत्ति जताने वाले वे लोग हैं जिन्होंने सिर्फ़ आइटम सॉंग्स में ही छौकरी शब्द सुना हैं।“ यानि वे लोगो के शब्द ज्ञान पर सवालिया नजरिया रखते हैं, बात सही भी है- हमने शब्दों को जिन अर्थो मे देखा-सुना है, हम उन दायरों से बाहर निकलना ही नहीं चाहते।
जाने-माने एक्टिविस्ट मुकेश असीम का मानना है- “यह भी एक संस्कृत निष्ठ ब्राह्मणी भाषा वाला पूर्वाग्रह है जो वास्तविक जनभाषा से आये शब्दों को हेय मानता है और कृत्रिमता का शिकार बनाकर हिन्दी का कचूमर निकालकर उसे बेजान बनाने पर बजिद है पिछले डेढ सौ साल से।“
इस विषय पर जाने-माने साहित्यकार ओमप्रकाश कश्यप का कहना है –“बात बच्चों की हो तो लोग कुछ ज्यादा ही शुद्धतावादी हो जाते हैं. लम्बे समय तक पत्रकारिता कर चुके एक ‘शुक्लजी’ को चूसना, छोकरी जैसे शब्दों पर आपत्ति लगी. वे जिस इलाके के हैं वहाँ छोकरी भी बोला जाता है और छोरी भी। आम खूब होते हैं, इसलिए उसे चूसा भी जाता है। इस कविता में खिलंदड़ापन है। आम बांटने निकली बच्ची की उदारता की झलक भी है, साथ में इतनी समझदारी भी नाम से पुकारने के बजाए प्यार से आमंत्रित करती है। बच्चे भी नाम जानने की चिंता छोड़कर आम खाने पर ध्यान देते हैं. इस तरह एक सब और सब एक बन जाते हैं। कुछ लोग इसे बालश्रम को बढ़ाने वाली कविता बता देते हैं, बिना यह सोचे कि बच्ची आम बेचने नहीं, बांटने निकली है। कुछ का कहना है कि छह साल की छोकरी, भरी हुई टोकरी कैसे उठा सकती है। उन्हें कैसे समझाया जाए कि कविता में बिंब महत्वपूर्ण होते हैं।“
केंदीय विद्यालय में कार्यरत शिक्षिका स्वाति सिंह का मत कुछ इस प्रकार है-“ यह कविता तो खुद अपने अंतर्निहित शिक्षा के उद्देश्य को भी प्राप्त नहीं करती। पहला प्रश्न देखें,यह बाल मजदूरी उन्मूलन के उद्देश्य से है परंतु इस कविता में पंक्ति “नहीं बताती दाम है”, यह बच्चों को व्यवहारवाद से भी दूर रखता है। अगली पंक्ति में “नहीं बुलाती नाम है”, कोई औचित्य ही नहीं इसका क्योंकि कोई भी बेचने वाला /वाली किसी का नाम ले कर नहीं बेचते। भाषा तो जन मान्यता की चीज है, कहीं मान्य है और कहीं आपत्तिजनक हो सकती है। परंतु एनसीईआरटी द्वारा इसका चुनाव NCF – 2005 मानदंडों की बखूबी खिल्ली उड़ाता है। इसका शिक्षण अधिगम उद्देश्य ही कुछ नहीं है।“
अक्षर ज्ञान अभियान के संस्थापक सदस्य और शिक्षक मनोज कुमार कहते हैं-“यह भी तो देखा जाए कि किस उम्र के लिए यह कविता लिखी गयी है। उस उम्र के बच्चे इसे बड़े ही चाव से याद भी करते है। अपने परिवेश से जुड़े होने से व आम बोलचाल होने के कारण यह कविता बच्चो को भा जाती है।“
लेखिका नीता टंडन अपनी राय रखती है-“इसमें छोकरी शब्द में कोई अश्लीलता नहीं है, कुछ स्थानों पर घरों में भी लड़की को छोकरी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में और कहीं कहीं राजस्थान में भी। कविता सहज व सरल है। इस शब्द पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।“
कवि व शायर ए एस खान अली इस विषय पर कहते हैं- “उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से में छोकरी शब्द का प्रयोग आम चलन में है, यह छोटी बच्चियों के लिए ज्यादा प्रयोग होता है और आमतौर पर वहां जिस बच्चे का नाम न पता हो तो चलते फिरते भी कह देते हैं, छोकरी कहाँ जा रही है? यह कोई आपत्तिजनक शब्द नहीं है? धौलपुर के कई गांवों में लड़का-लड़की को मोड़ा-मोड़ी शब्द से संबोधित किया जाता है वहां की प्रादेशिक भाषा है।“
आलोक रंजन जी कविता की तुकबंदी से परेशान हैं, उनके मतानुसार कविता में कोई लॉजिकल स्टोरी नहीं उभर कर आ रही। बस ज़बरदस्ती की तुकबंदी है। उनका कहना है कि बच्ची के लिए अगर लिखा गया है तो और भी सरल और मज़ेदार लिखा जाना चाहिए था। उन्हें अंतिम दो पैराग्राफ में तर्कशीलता और निरंतरता नहीं लगी। लड़की किसका नाम नहीं बुला रही है? आम चूसने वाले को किसका नाम नहीं पूछना है? ये स्पष्ट नहीं है।
कवयित्री अपराजिता गजल कहती हैं- ‘”एक प्रान्त में जो शब्द बेहद सामान्य है, वही शब्द दूसरे प्रान्त में उपहास या अपमान का प्रतीक भी हो सकता है। ऐसे किसी शब्द को देश भर की हिंदी में सामान्य रूप से स्वीकारा ही नहीं जाएगा, तो शामिल करने की कोशिश करना ही गलत है।“
उनका ये भी कहना है-“ हम ये भी देखें कि ये ‘हिंदी’ भाषा के पाठ्यक्रम में शामिल है, किसी स्थानीय भाषा के पाठ्यक्रम में नहीं। ऐसे स्थानीय शब्द, जिनका अलग-अलग प्रान्त में अलग-अलग भाव के लिए प्रयोग हो, उन्हें छोटे बच्चों के ‘राष्ट्रीय भाषा’ के पाठ्यक्रम में शामिल करने का कोई औचित्य नहीं दिखता।“
इस पूरे विमर्श में ये बात साफ तौर पर स्पष्ट है कि स्थानीय शब्दों से परिचित करनी के उद्देश्य से इस कविता को पाठ्यक्रम में रखा गया जो कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या का एक उद्देश्य भी है। इस विरोध से इतना अवश्य हुआ कि ट्विटर पीआर एनसीईआरटी बेस्ट ट्रेंड पर आ गया।
एक बात और आवश्यक है कि यदि शब्दो के प्रयोग पर यूं कविताओं को खारिज किया जाएगा तो लड़की की काठी… कविता को पर्यावरण विरोधी करार देना होगा। रामधारी सिंह दिनकर की कविता “चाँद एक दिन” का एक अंश देखिये-
कभी एक अँगुल भर चौड़ा, कभी एक फ़ुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज़, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अगर अश्लीलता खोजनी है तो ये पंक्तियाँ भी आपको अश्लील लगेंगी। छोकरी (छोरी) शब्द पर आपत्ति है तो महाश्वेता देवी की प्रसिद्ध कहानी- “क्यूँ, क्यूँ छोरी” पर भी आपको सवाल करने होंगे, वहाँ भी कहानी की मुखी पात्र को काम करते दिखाया गया है, साँप को काटने-खाने के प्रसंग पर मेनका गांधी को आगे आना होगा, जो जीव-जंतुओं की चिंता करती है, क्योंकि ऐसे प्रसंग साँप के शिकार को बढ़ावा देने वाले भी प्रतीत होंगे। कालीदास के “रघुवंशम” और अभिज्ञान शाकुंतलम” में नारी- सौंदर्य के नाम पर परोसी गयी अश्लीलता पर भी आलोचको को अपना मुँह चाहिए।
कहने का तात्पर्य ये है कि अगर यूं ही व्याख्याएँ, आलोचनाएँ होती रही तो कविता लेखन पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाया जाना उचित होगा, किनकि कवि कभी व्यंजना में बात कहेगा तो कभी उपमाँ देगा, तब तरह-तरह के बवाल होने लाजिमी होंगे। यूं तो किसी भी चीज को देखने-समझने का सबका अपना नजरिया, सबकी अपनी सोच है। बात जब निकली ही है तो अनेक ख्याति कवियों की रचनाओं को पुनः पुनः देखिये, बहुत कुछ मिलेगा जो आपत्तिजनक है। चलते-चलते महादेवी वर्मा जी की कविता-
आओ प्यारे तारों आओ
तुम्हें झुलाऊंगी झूले में…
अब बताइये साहब कितना अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है, तारों को कोई कैसे झूले में झुला सकता है?

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