अरी मेघा…..कहाँ गई
अचानक अपनी सास की आवाज से मेघा की आँख खुली । बमुश्किल आँखें मलती हुई अपनी सास के कमरे में पहुँची, हाथ का सहारा देकर उन्हें उठाया और पानी पिलाया। जाने कितने दिनों से यह सिलसिला मेघा के साथ चल रहा था | कई रातों से उसकी नींद भी पूरी नहीं हो पाई थी । सुबह छह बजे से जो उसका काम शुरु होता तो उसके कॉलेज जाने तक ख़त्म न होता। दौड़ते भागते कॉलेज पहुँचना और नियत कक्षाएँ लेने के बाद फ्री पीरियड में जब वो कुर्सी पर सिर टिकाकर बैठती तो उसके कानों में फिर वही वाक्य गूँजने लगता.. आखिर तुम करती क्या हो ? कहीं दूर बजता हुआ गीत उसे सुनायी दिया ‘कौन सुनेगा किसको सुनाएँ इसलिए चुप रहते हैं ‘ कभी वह सोचती कि भगवान ने न जाने किस मिट्टी से उसे बनाया है वह कभी बीमार भी नहीं होती – लेकिन बीमार हो जाए तो ? वह अक्सर सोचती रहती ।
सबके विरोध के बाद भी मेघा ने प्रतियोगी परीक्षा का फार्म भरा । लोगों के व्यंग्य और ताने मानो उसके मनोबल को तोड़ने के लिए कमर कस चुके थे । पारिवारिक जबावदारियाँ और परेशानियाँ मानो मुख्य परीक्षा से पहले ही उसकी परीक्षा लेने आ गयी थीं । इतने में किसी ने मानो फिर कहा – आखिर तुम करती क्या हो ? यह एक वाक्य मानो उसे हर पल चुनौती देता रहता, और वह दुगने उत्साह से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती रहती | अपनी परिस्थितियों पर वह विजय हासिल करने लगी थी, मन में इस दृढ़ संकल्प के साथ कि “मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं उसका निर्माता और नियंत्रण कर्ता है।‘
और आखिर एक दिन उसका परीक्षा परिणाम आया । समाचार पत्र मे मुख्य पृष्ठ पर उसका फोटो और परिणाम प्रकाशित हुआ था। मेघा आज बहुत खुश थी आखिर उसने उस सवाल का जबाव दे दिया था… आखिर तुम करती क्या हो?