वर्मा मलिक
एक पुरस्कार समारोह ने शाहरुख़ ख़ान और सैफ़ अली ख़ान ने नील नितिन मुकेश का मज़ाक उड़ाते हुए पूछा कि उसके नाम में कोई सरनेम क्यों नहीं है। नील को यह मज़ाक घटिया लगा और उसने शाहरुख़ को शट-अप होने को कह दिया। 
आज हम जिस गीतकार की बात करने जा रहे हैं, उसके नाम में दो दो सरनेम हैं – पहला नाम कोई है ही नहीं। जी हाँ वे वर्मा मलिक के नाम से फ़िल्मों में गीत लिखा करते थे।  वैसे बैसाखी वाले दिन 13 अप्रैल 1925 को फ़िरोज़पुर (पाकिस्तान वाले पंजाब) में जन्में इस गीतकार को माता-पिता ने नाम दिया था बरकत राय मलिक। 
छोटी उम्र में ही बरकत राय में कविता और गीत लिखने के लक्ष्ण दिखाई देने लगे। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में युवा बरकत ने काँग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली और देश-प्रेम के गीत लिखने लगे। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। मगर आयु छोटी होने के कारण उन्हें छोड़ भी दिया गया।
भारत के विभाजन के समय बरकत राय मलिक करीब 22 वर्ष के रहे होंगे। उस समय की मारकाट से बचने के लिये बरकत राय मलिक विभाजन के समय शरणार्थी बन कर भारत आ गये। अपने एक टीवी इंटरव्यू में वर्मा मलिक ने बताया के वे पाकिस्तान के शहर शेख़ुपुरा से बचते हुए भारत पहुंचे थे।  हालात कुछ ऐसे बने कि उनके पाँव में गोली भी लग गयी। वे अंततः दिल्ली में आ कर बस गये। कलाकार मन और कलम का धनी बरकत राय समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर पेट की आग बुझाने के लिये काम क्या करे।
संगीतकार हँसराज बहल के भाई से वर्मा मलिक की दोस्ती थी। ज़ाहिर है कि अगला क़दम दोनों की मुलाक़ात ही होना था। इसलिये बरकत राय उस ज़माने के बम्बई की ओर कूच कर दिये। वहां हँसराज बहल ने उनके गीत सुने और मामला जमने लगा। 
उनकी मातृभाषा पंजाबी थी और उस ज़माने के हिसाब से उनकी पढ़ाई उर्दू भाषा में हुई थी। वे उर्दू और पंजाबी के अच्छे जानकार थे और दोनों भाषाओं में लिखते थे। हँसराज बहल ने उन्हें पंजाबी फ़िल्मों में पहला ब्रेक दिया। हँसराज बहल को उनका नाम फ़िल्मों के हिसाब से जमा नहीं। और बरकत राय मलिक बन गये वर्मा मलिक। इस नाम के पीछे का गणित किसी को नहीं पता। इसके बाद वर्मा मलिक ने पंजाबी फ़िल्मों के लिये बहुत से लोकप्रिय गीत लिखे।  
पंजाबी फ़िल्मों में हँसराज बहल, सरदूल क्वात्रा और एस मोहिन्दर ने उनके गीतों को बेहतरीन धुनों में पिरोया। फ़िल्म ‘दो लच्छियाँ’ (1960) में कुछ बेहतरीन गीत बुने गये – ‘हाय नी मेरा बालम है बड़ा ज़ालम ’, ‘भांवे बोल ते भांवे ना बोल’, ‘ओ मज्झ गाँ वालिया…’ जैसे गीत हँसराज बहल और वर्मा मलिक की जोड़ी ने ही पँजाबी फ़िल्मों को दिये। 
वर्मा मलिक की कुछ सफल पँजाबी फ़िल्मों में शामिल थीं – ‘दो लच्छियां’, ‘छाई’, ‘भाँगड़ा’, ‘यमला जट्ट’, ‘पिण्ड दी कुड़ी’ और ‘गुड्डी’। वर्मा मलिक ने करीब चालीस पंजाबी फ़िल्मों के गीत लिखे। पंजाबी फ़िल्मों में लिखने और हँसराज बहल के साथ ने वर्मा मलिक में सिनेमा के गीतों की गहरी समझ पैदा कर दी। उन्होंने दो फ़िल्मों के संवाद भी लिखे और एक फ़िल्म का निर्देशन भी किया।
मगर 1960 के दशक में पंजाबी फ़िल्मों की प्रोडक्शन जैसे रुक सी गयी। ज़ाहिर है इसका असर वर्मा मलिक पर भी पड़ा और पंजाबी फ़िल्मों का नम्बर 1 गीतकार बेरोज़गार जैसा हो गया।   
एक बार फिर हँसराज बहल ही काम आए। उन्होंने ही वर्मा मलिक को हिन्दी फ़िल्मों में भी ब्रेक दिया था। हालांकि यह ब्रेक उन्हें 1953 में फ़िल्म ‘चकोरी’ के लिये दिया था मगर उस फ़िल्म का गीत संगीत हिट नहीं हो पाया था।
1969 में फ़िल्म ‘दिल और मुहब्बत’ के लिये वर्मा मलिक का गीत ‘आँखों की तलाशी दे दे मेरे दिल की हो गयी चोरी’ ज़बरदस्त हिट हुआ। यह गीत जॉनी वॉकर पर फ़िल्माया गया था।  इस फ़िल्म में संगीत ओ. पी. नैय्यर का था। मगर वर्मा मलिक को अभी भी छिटपुट काम ही मिल रहा था। 
वर्मा मलिक को बम्बई में रहते हुए यह तो समझ में आ गया था कि हिन्दी की जानकारी बहुत ज़रूरी है। पंजाबी से काम नहीं चलने वाला। उन्होंने बाक़ायदा हिन्दी सीखनी शुरू कर दी। अपने साक्षात्कार में वे बताते हैं कि उन्होंने हिन्दी नवभारत टाइम्स समाचार पत्र से सीखनी शुरू की। वे रोज़ाना इस समाचार पत्र को पढ़ते। नतीजा हुआ कि उन्हें हिन्दी बेहतर ढंग से समझ आने लगी औऱ वे हिन्दी शब्दों का प्रयोग अपने गीतों में भी करने लगे।
‘प्रिय प्राणेश्वरी’ गीत का एक दृश्य
इसका बेहतरीन उदाहरण है फ़िल्म ‘हम तुम और वो’ का गीत ‘प्रिय प्राणेश्वरी, सिद्धेश्वरी…’ इसके अन्तरे में तो हिन्दी के ख़ासे साहित्यिक शब्दों का इस्तेमाल हुआ है… “ये चक्षु तेरे चंचल चंचल / ये कुंतल भी श्यामल श्यामल / ये अधर धरे जीवन ज्वाला / ये रूप चन्द्र शीतल शीतल / ओ कामिनी, ओ कामिनी प्रेम विशेष करें…”
वर्मा मलिक ने अपने गीतकार जीवन में शंकर जयकिशन, कल्याण जी आनन्द जी, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, सोनिक ओमी, जयदेव, आर. डी. बर्मन, बप्पी लाहिरी, चित्रगुप्त और राम लक्ष्मण जैसे संगीतकारों के साथ गीत लिखे।
फिर एक ऐसी घटना घटी जिसने वर्मा मलिक  के जीवन पर गहरा असर किया। उनकी पत्नी का निधन हो गया और उनका अपना स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा। उनसे जब सवाल किया गया कि क्या उन्हें फ़िल्म इण्डस्ट्री से कोई शिक़ायत है। तो उनका जवाब था, “किस से करें गिला, किस से करें शिकायत… कमाया भी यहीं से है, यहीं से नाम पैदा किया।… फिर शिकायत किस से?” उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “जीवन के पांच चरण होते हैं – काम, नाम, दाम, आराम और विश्राम।” काम करके नाम और दाम तो कमा चुके फ़िलहाल आराम कर रहे हैं। विश्राम वाला समय भी दूर नहीं। 
वर्मा मलिक ने अपने पुराने गानों के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही, “पुराने गाने याद नहीं रखता… वरना आगे कैसे लिखूंगा?” यह ज़िन्दगी की नाव अब जैसे चले चलाओ…
राजकुमार कोहली के साथ वर्मा मलिक के बहुत प्यारे संबन्ध थे। कोहली जी की पंजाबी और हिन्दी फ़िल्मों के लिये उन्होंने गीत लिखे। नॉस्टेलजिक होते हुए उन्होंने बताया कि उनकी अपनी शादी में उनकी अपनी पंजाबी फ़िल्म का गीत बैण्ड वाले बजा रहे थे तो उनके भाई के पोते की शादी में वर्मा मलिक का गीत – ‘आज मेरे यार की शादी है’ बजाया जा रहा था। सच कहा जाए तो आदमी सड़क का फ़िल्म का यह गीत तो भारत में शादी-एंथम बन गया है। हर शादी में बैण्ड ये गीत बजाते ही हैं। 
अभिनेता प्राण के साथ वर्मा मलिक के बहुत मधुर संबन्ध रहे। उनके लिये फ़िल्म कसौटी में – हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है जैसा लोकप्रिय गीत लिखा। फ़िल्म ‘धर्मा’ की कव्वाली राज़ की बात कह दूं तो… हिन्दी सिनेमा की सार्वाधिक लोकप्रिय कव्वालियों में से एक है। प्राण साहब उन्हें एक्शन करके बताया करते थे कि उन्हें कैसे शब्दों की दरकार है तो वहीं वर्मा मलिक प्राण साहब को समझाया करते थे कि उनके शब्दों पर किस प्रकार के एक्शन किये जा सकते हैं।
बेईमान फिल्म का पोस्टर
वर्मा मलिक फ़िल्मी गीतों में भी प्रयोग करने से नहीं चूकते थे। फ़िल्म बेईमान के गाने ‘जय बोलो बेईमान की’ में बेईमान की पूरी परिभाषा लिख देते हैं कि बेईमान किन तत्वों से बनता है।  “बेईमान के बिना मात्रे होते अक्षर चार / ब से बदकारी ई से इर्ष्या म से बने मक्कार / ना से नमक-हरामी समझो हो गए पूरे चार / चार गुनाह मिल जाएँ होता बेईमान तैयार / अरे उससे आँख मिलाये क्या हिम्मत है शैतान की / जय बोलो बेईमान की…”
इसी गीत में वर्मा मलिक एक और प्रयोग करते हैं कि बंध की एक पंक्ति में एक ही वर्ण से शुरू होने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं, जैसे – “बेईमानी से बनते हैं बंगले, बाग़ बग़ीचे” और फिर साधुओं के लिये कहते हैं –  “चिमटा चरस चिलम और चेले”। यह सब कोई ऐसा कवि ही कर सकता है जिसे अपने फ़न में महारथ हासिल हो। 
वर्मा मलिक निर्देशक का काम भी आसान कर देते हैं। गीत को कैमरा एंगल के हिसाब से निर्देशक को समझा भी देते हैं। जैसे कोई व्यक्ति पूजा कर रहा है तो शब्द हैं – “आज नहीं तो कल मिलता है, हर पूजा का फल मिलता है”। कैमरा खेत में किसान पर मुड़ जाता है तो – “आज नहीं तो कल मिलता है हर मेहनत का फल मिलता है”। उसके बाद कैमरा एक बदमाश को दिखाता है जिसे हथकड़ी लगी हुई है। वर्मा मलिक वहाँ लिखते हैं, “आज नहीं तो कल मिलता है… हर करनी का फल मिलता है”। बात वहीं नहीं समाप्त करते। बात को विश्वास की कसौटी पर ले जाते हैं, –  “और अगर निश्चय हो तो … जिस भी नदी को गँगा समझो उसी में गँगाजल मिलता है।”
वर्मा मलिक के कुछ लोकप्रिय और श्रेष्ठ गीतों की यदि सूचि बनाई जाए तो ये गीत अवश्य उसमें शामिल करने होंगे…
  1. दो बेचारे बिना सहारे… विक्टोरिया नं 203 (1972)
  2. आज मेरे यार की शादी है (आदमी सड़क का – 1977)
  3. इकतारा बोले सुन सुन, क्या कहे ये तुम से – (यादगार -1970)
  4. जय बोलो बेईमान की (बेईमान – 1972)
  5. सबसे बड़ा नादान वही है जो समझे नादान मुझे (पहचान – 1970)
  6. राज़ की बात कह दूं तो – (कव्वाली – धर्मा – 1973)
  7. आँखों की तलाशी दे दे मेरे दिल की हो गयी चोरी (दिल और मुहब्बत – 1969)
  8. प्रिय प्राणेश्वरी, सिद्धेश्वरी यदि आप हमें आदेश करें (हम, तुम और वोह – 1972)
  9. तेरी दो टकयाँ दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए (रोटी कपड़ा और मकान – 1974)
  10. कान में झुमका, चाल में ठुमका, लगे पच्चासी झटके (सावन भादों – 1970)
वर्मा मलिक जी को अपने कैरियर में दो बार फ़िल्मफ़ेयर सम्मान से नवाज़ा गया। दोनों फ़िल्मों के हीरो मनोज कुमार थे। संगीतकार शंकर (जयकिशन) थे और आवाज़ थी मुकेश की। पहला सम्मान 1970 की फ़िल्म पहचान के लिये – “सबसे बड़ा नादान वही है जो समझे नादान मुझे / कौन कौन कितने पानी में सबकी है पहचान मुझे।” और दूसरा सम्मान मिला 1972 की फ़िल्म बेईमान के लिये – “ना इज्ज़त की परवाह, ना फ़िकर कोई अपमान की / जय बोलो बेईमान की जय बोलो।” 
वर्मा मलिक जी के पुत्र राजेश मलिक हिन्दी फ़िल्मों में असिस्टेण्ट डायरेक्टर का काम करते हैं। अपने पुत्र के बहुत कहने पर भी जब वर्मा मलिक ने एक बार क़लम को छोड़ा तो फिर गीत नहीं लिखा। 
15 मार्च 2009 को वर्मा मलिक इस दुनियाँ को विदा कह गये। यहाँ तक कि अगले दिन मुंबई तक के समाचार पत्रों में इस बारे में कोई समाचार प्रकाशित नहीं हुआ। वर्मा मलिक तो शायद इस सबके लिये पहले से ही तैयार थे। इसीलिये तो उन्होंने कहा था, “किस से करें गिला, किस से करें शिकायत…!”
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

3 टिप्पणी

  1. वर्मा मलिक पर सारगर्भित आलेख। फिल्मों की आपकी जानकारी अद्भुत है। कई फिल्मी हस्तियों पर आपके महत्वपूर्ण, जानकारी से परिपूर्ण आलेख पढ़े इसी में। आपको इन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित करवाना चाहिए।

  2. अद्भुत, अनोखी ,अविस्मरणीय शोध है एक भुलाए हुए
    गीतकार का ।अमर गीतों के रचयिता को नमन ।आपकी
    कलम ऐसे विचारों का सृजन कर रही है ,साधुवाद
    प्रभा

  3. वर्मा मलिक ने समाचार पत्र से हिन्दी सीखी, उनकी मृत्यु पर वही समाचार पत्र ख़ामोश रहे, कैसी विडम्बना है। यह अद्भुत गीतकार अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से काव्य-जगत् में सदैव जीवंत रहेगा।
    गीतकारों की इस अनुपम श्रृंखला को रोचक ढंग से प्रस्तुत करने वाली आपकी लेखनी को प्रणाम।

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