11 अगस्त 2016 का दिन, मैं उस दिन ऑस्ट्रेलिया जा रही थी, लंदन से रवाना होने से पहले नीना जी से फोन पर बात करने की कोशिश व्यर्थ गई वे अस्पताल में चेतन और अचेतन के बीच की स्थिति में झूल रही थीं,  ऐसे में बात करना संभव नहीं हो सका। इसके पहले भी अस्पताल आना जाना उनके लिए एक साधारण सी बात थी, पर उस दिन जैसे मन के भीतर एक गहरी उदासी और अनिष्ट का पूर्वाभास हुआ जिसकी पुष्टि 15 अगस्त की सुबह तेजेंद्र शर्मा जी की मेल से हुई। 
लंदन से हज़ारों मील दूर मन से उनकी शांति की प्रार्थना भर कर सकती थी। उनके जीवन और कृतित्व का महोत्सव मनाने के लिए जब कुछ मित्र ज़किया जी के घर पर एकत्र हुए, तब भी ऑस्ट्रेलिया में होने के कारण सम्मिलित न हो सकी। इस बात का ख़ेद बना ही रहा। दिव्या जी ने जब वातायन की ज़ूम गोष्ठी में नीना जी पर बोलने के लिए अनुरोध किया तो उनको हाँ कहने के लिए मुझे कुछ सोचना ही नहीं पड़ा, आभारी हूँ दिव्या जी की मुझे यह अवसर देने के लिए कि मैं उनकी यादों को सबके साथ साझा कर सकूँ। 
साथ ही आभार बड़े भाई सदृश डॉ कृष्ण कुमार का जिन्होंने लैस्टर में नीना जी की ख़ास मित्र मधु जी से सम्पर्क कर नीना जी की गज़लें हासिल कीं। हृदय से आभारी हूँ मैं मधु जी की जिन्होंने लॉकडाउन में सेल्फ आईसोलेशन के बावज़ूद मुझे उनका एक कसेट भेजा। उनकी गज़लों की मुझे सीमित जानकारी भर थी। मुझे लगा कि नीना जी की रचनाओं पर बात करते समय उनकी गज़लों को शामिल किए बिना बात अधूरी ही रहेगी।
नीना जी से पहली बार मैं अपने घर पर तेजेंद्र जी द्वारा आयोजित कथा यूके की गोष्ठी में मिली थी। उस दिन की गोष्ठी में वे अपनी बहु चर्चित और प्रिय कहानी, ‘आख़िरी गीत’ पढ़ने के लिए लैस्टर से आई थीं । यह संक्षिप्त सी मुलाकात कब गहरी दोस्ती में बदल गई, पता ही नहीं चला। यह उनके स्वभाव की ही विशेषता थी उनके उपन्यास ‘तलाश’ की सरगम की तरह, जो कहती है, ‘’ कुछ लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे जिससे भी मिलते अपना बना लेते हैं।’’
पहली भेँट के बाद उनके निकट आने के अनेक अवसर मिलें जिनमें टुकड़ों-टुकड़ों में उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं से परिचित और प्रभावित होती गई। हर व्यक्ति में अच्छाई देखने की सकारात्मक मनोवृत्ति और अपने लेखन के प्रति एकाग्र प्रतिबद्धता के साथ-साथ उनमें एक सहज आत्मीयता थी जिसके कारण वे शीघ्र ही सबके साथ जुड़ जाती थीं। बातचीत के दौरान उनकी कहानियों के बारे में चर्चा होना स्वाभाविक था। जब कभी वे मुझे अपनी कोई नई कहानी पढ़ने के लिए भेजतीं उन्हें मालूम था कि मैं अपनी दो टूक राय दूंगी। वे अपनी बात को डिफैण्ड किए बिना कहानी के बारे में मेरे कमेंट्स बेहद ध्यान से सुनतीं । उनके व्यक्तित्व की यह विशेषता – अपने लेखन को बेहतर बनाने की ललक उन्हें उन लेखकों से अलग करती है जो केवल अपनी प्रशंसा करने वालों से ही घिरे रहना पसंद करते हैं।
नीना जी का व्यक्तिगत जीवन जैसे दुर्घटनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त था। 18 वर्ष तक शास्त्रीय संगीत, कविता और कहानी की दुनिया में निमग्न नीना जी को उनकी बड़ी बहन की असामयिक मृत्यु ने उनकी सहमति पूछे बिना एक साथ अपने से बड़ी उम्र के जीजा की दूसरी पत्नी और उनके दो बेटों की माँ बना दिया। यह जिम्मेदारी जैसे यथेष्ट नहीं थी, शादी के दो वर्षों बाद पति को स्ट्रोक हो गया अगले बीस वर्ष पक्षाघात से अशक्त पति की सेवा सुश्रुषा करते बीते। और फिर पति की मृत्यु के बाद शुरुआत हुई उनकी अपनी बीमारियों की जिसका अंत कैंसर से मृत्यु में हुआ। इस संदर्भ में निराला की कविता ‘दु ख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।’’ स्मरण हो रही हैं।
व्यक्तिगत जीवन में हादसों की सुनामी झेलने के बावजूद सकारात्मक सोच बनाए रख पाने को मैं उनकी एक अनुकरणीय विशेषता मानती हूँ। उन्होंने जीवन के नकारात्मक अनुभवों से अवसन्न होने की अपेक्षा उनको सृजनात्मक प्रेरणा में परिणित किया। अपने मिलने वालों से हमेशा इतनी ज़िंदादिली से मिलती थीं कि अपने अंतर्मन की पीड़ा का अहसास तक नहीं होने देती थीं। अपनी बीमारी से धीरे-धीरे अशक्त होजाने के बावजूद जब उनसे मिलने के लिए हम दोनों लैस्टर गए तो उन्होंने बाकायदा स्वागत की तैयारी की हुई थी, रसोई में ताज़े पकौड़ों के साथ चाय की ट्रे सजी रक्खी थी। बैठक की खिड़की से पीछे के बगीचे में लगे फूल पौधे उनके बाग़बानी के शौक का ऐलान कर रहे थे।
अंतिम दिनों में दर्द से बेहाल होने के बावज़ूद उनकी सकारात्मकता में कोई कमी नहीं आई। रात भर असह्य दर्द झेलने के बाद वे इस निर्लिप्तता से उसका ज़िक्र करती थीं जैसे वे अपने नहीं किसी अन्य के दर्द की बात कर रही हों। और जरा सी राहत मिलते ही लैपटॉप खोल कर लेखन में जुट जाती थीं। अब लगता है कि उनमें अपने बचे हुए दिनों में अपने अंतर्मन की भावनाओं को शब्दों में बांधने का इतना उतावलापन क्यों था। यही उतावलापन बीमारी की अवस्था में ‘कुछ गाँव-गाँव कुछ शहर शहर’ उपन्यास के अंग्रेज़ी और गुजराती भाषा में अनुवाद करवाने की लगन में भी था। पर कैंसर ने उन सारे मनसूबों को पछाड़ दिया। आज जब वे हमारे बीच नही हैं, उनकी सरल मुस्कान, हर किसी और हर स्थिति में अच्छाई देखने की सकारात्मकता और साहित्य रचना के लिए प्रतिबद्धता को सादर नमन!
नीना जी की रचना प्रक्रिया का आरम्भ नौ वर्ष की आयु में हुआ, जब उनकी एक कविता मिलाप हिंदी समाचार पत्र और रेडियो में प्रसारित होकर सम्मानित हुई। सोलह वर्ष की आयु में उनका कहानी संग्रह ‘अठखेलियाँ’ प्रकाशित हुआ। अपने व्यक्तिगत जीवन के हादसों के बीच उनका लेस्टर से विनोद सूरी के सबरस रेडियो पर गज़लें और गीतों भरी कहानियाँ पढ़ना, उनकी नाटक मण्डली में अभिनय और कहानी और उपन्यास लिखना अनवरत रूप से चलता रहा। इसके अतिरिक्त विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दिल्ली, गाज़ियाबाद, लखनऊ, न्यू-जर्सी, न्यूयॉर्क, कनाडा आदि में आयोजित काव्य गोष्ठियों में सक्रिय रूप से भागीदार रहीं।
नीना एक ऐसी गज़लकार थीं जो भावनाओं को गज़ल की शक्ल दे देतीं थीं। उनकी गज़लों में मुझे उनके व्यक्तित्व का एक अलग रूप देखने को मिला। उनके कथा साहित्य में समसामयिक जीवन के यथार्थ के प्रति सजगता है, पर गज़ल लिखते समय जैसे भावनाओं के बाँध को खुल कर बहने दिया है: 
”सुलझाओ न उलझी जुल्फ़ों को हम और उलझ ही जाएंगे” में सामाजिक सरोकारों से दूर रोमांटिक भावनाओं का शोर सुनाई देता है। नीना जी की ग़ज़ल, ‘सुलझाओ न उलझी ज़ुल्फ़ों को, है।‘ये तो कभी सोचा भी न था’ शीर्षक गज़ल में प्रवंचित मन की वेदना है: 
दिल्लगी करके पड़ेगा पछताना ये तो सोचा भी न था
इतना मुश्किल होगा फिर पलकों का उठाना 
ये तो सोचा भी न था 
मस्त रहते थे बस अपने ही खयालों में 
कभी हक़ीकत से भी पड़ेगा टकराना 
ये तो सोचा भी न था
कतराने लगे हर अपनों से परायों से 
कभी तन्हाइयों में पड़ेगा मन को बहलाना
ये तो सोचा भी न था
इनायत थी बहुत पहले ही से गमों की 
आपसे मिलेगा एक और नज़राना 
ये तो सोचा भी न था
मर्ज़ जो दिया है तो दवा भी बता दो
नामुमकिन हो जाएगा इस दर्द को छिपाना
ये तो सोचा भी न था 
अब रहने भी दो तुम ये अपने सितम’
नीना’ पर करोगे तुम वार कतलाना 
ये तो सोचा भी न था
उनका ग़ज़लों और गीतों का पहला संग्रह ‘कसक’ सन 1999 में. ‘नयामत’ 2001में , 2003 में ‘अंजुमन’, 2005 में ‘चश्म-ए-ख्वादीदा’ ,और 2010 में ‘मुलाकातों का सफ़र’ प्रकाशित हुए। उनका पहला उपन्यास ‘रिहाई’ 2007 में प्रकाशित हुआ जिसके लिए उनको लखनऊ से सुमित्रा कुमारी सिन्हा सम्मान दिया गया। 2010 में प्रकाशित ‘तलाश’ के लिए कथा यूके द्वारा पद्मानंद साहित्य सम्मान से नवाजा गया। उसी वर्ष उनका पहला कहानी संग्रह ‘फ़ासला एक हाथ का’ और अगले वर्ष उनके द्वारा सम्पादित ‘हिंदी की वैश्विक कहानियाँ’, 2014 में दूसरा कहानी संग्रह ‘शराफ़त विरासत में नहीं मिलती’ तथा लैस्टर के इतिहास पर आधारित ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ नामक उपन्यास प्रकाशित हुए। उनका अंतिम कहानी संग्रह ‘एक के बाद एक’ जब प्रकाशित होकर उन तक पहुँचा, नीना जी अस्पताल में थीं और अपनी पुस्तक देखने के आत्मसंतोष को एक कमज़ोर-अधूरी सी मुस्कान से अभिव्यक्त भर कर सकीं। 
अब बात करते हैं उनके कथा साहित्य की।
नीना जी के कथा साहित्य के संदर्भ में संवेदना और शिल्प की चर्चा करनी आवश्यक है। संवेदना से तात्पर्य लेखक की उस शक्ति या सामर्थ्य से है जिसके द्वारा वह एक सामान्य से विषय या घटनाक्रम को विशिष्ट दीप्ति प्रदान करके पाठक के लिए सम्प्रेष्य बनाता है। साधारण व्यक्ति की दृष्टि में सामान्य, तुच्छ या नगण्य प्रतीत होने वाला विषय लेखक को विशिष्ट लगता है क्योंकि वह उसे एक नये सिरे से देखता है। टी ऐस इलियेट ने इसको ‘कलात्मक ऊर्जा’ के रूप में परिभाषित किया है। कथा साहित्य में जब हम संवेदना की बात करते हैं तो उससे तात्पर्य समग्र जीवन बोध से होता है। उसमें लेखक का कथ्य, जिसे पारिभाषिक शब्दावलि में कथावस्तु और उद्देश्य कह सकते हैं, के साथ सांस्कृतिक बोध अपरिहार्य है। रचना की सफलता के लिए संवेदना और शिल्प दोनों का महत्व हैं। नीना जी की रचनाओं के संदर्भ में मेरी दृष्टि यह जानने की रही है कि वे विषय वस्तु को भावुकता के स्तर पर ले जाकर छोड़ देती हैं या उसकी गहराई तक उतर कर जीवन बोध का गांभीर्य प्रदान करती हैं। 
प्रारम्भिक दो उपन्यास ‘रिहाई’ और ‘तलाश’ में कहानी कहने के उतावलेपन में और रोचकता बनाए रखने के प्रयत्न में शिल्प पर से ध्यान ओझल हुआ प्रतीत होता है। विशेष रूप से ‘तलाश’ में अपनी नई कहानी की थीम की तलाश में सिंगापुर और थाइलैण्ड की क्रूज़ पर आई मीनाक्षी हर बार किसी सहयात्री से मिलकर अपने अत्तीत के प्रसंगों को जीती है। हर नई मुलाकात उसको अपने कॉलेज के दिनों और अली के साथ बिताए समय का स्मरण कराती है। उपन्यास में वर्तमान के समानांतर चलने वाली अतीत की स्मृतियाँ कभी अंतर्धारा की तरह और कभी मुख्य धारा बनकर मीनाक्षी के मन को उद्वेलित करती रहती हैं। अतीत के प्रेम प्रसंग भावुकता के स्तर पर रोचक बन पड़े हैं, पर अतीत और वर्तमान के ताने बाने बुनने में आई कुछ पुनरावृत्तियों से शिल्प की कसावट में कमी आई है। हरबार किसी नये व्यक्ति से मिलकर अत्तीत में खोने की पुनरावृत्ति,  यदि फ्रेंच की अभिव्यक्ति उधार लूँ तो déjà vue जैसी लगती है और आगे क्या होने वाला है इसका पूर्वानुमान करके पाठक की जिज्ञासा को क्षति पहुँचती है। अंत में सिंगापुर में अली से भेंट होने के साथ मीनाक्षी की तलाश पूरी होकर भी उसका जीवन अकेला ही रह जाता है। मीनाक्षी अली की पत्नी रेहाना और उनके दो बच्चों की खुशी के लिए अपने प्रेम का बलिदान करती है। प्रेम में त्याग की उदात्त और उदार भावना का प्रतिमान स्थापित करने में नीना जी के व्यक्तित्व की झलक प्रतिबिम्बित हुई है।
संवेदना और शिल्प के सामंजस्य की दृष्टि से अपने कहानी संग्रह ‘फासला एक हाथ का’ और ‘शराफ़त विरासत में नहीं मिलती’  में नीना जी ने ‘तलाश’ से आगे की यात्रा की है। ‘तलाश’ में वर्णित अतीत के प्रेम की जुगाली और नॉस्टैल्जिया के अतिरेक की जगह इन संग्रहों की कहानियों में वे अपने परिवेश के यथार्थ सरोकारों से जुड़ी हैं। संग्रह की भूमिका में नीना जी ने लिखा कि ‘ इस कहानी संग्रह में आपका परिचय रिश्तों की बहुत सी श्रृंखलाओं से होगा। कभी आप इनमें उलझेंगे और कभी स्वयं ही बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेंगे। … इनमें दो संस्कृतियों के टकराव की कहानियाँ हैं।’ वस्तुत: इन कहानियों में मानवीय सम्बंधों और सामाजिक विकृतियों के अलग-अलग स्वर उभरते हैं। पति-पत्नी के पारस्परिक सम्बंध के चरमराने को अलग-अलग कोणों से देखने की चेष्टा की गई है। कहीं पर पत्नी अपने पति का अन्याय सहती हुई विक्टिम है, तो अन्यत्र स्त्री विमर्श के अस्फुट स्वर सुनाई देते हैं। 
‘गुज़रे लम्हों का हिसाब’ में पति के समलैंगिक सम्बंध की जानकारी मिलने पर वह उससे मुक्त होकर अपने लिए एक अलग रास्ता चुन लेती है। इस संदर्भ में एक तीसरा कोण ‘अंतिम गीत’ कहानी में है, अपनी पत्नी को अन्य पुरुष के साथ देखकर उसकी खुशी के लिए पति चुपचाप उसके जीवन से बाहर चला जाता है। ‘पुराना पैकेज’ एक आत्मकथात्मक कहानी है। 18 वर्ष की आरती को बड़ी बहन की मृत्यु के बाद उसके दो बच्चों की देखभाल के लिए उससे दुगनी उम्र के जीजा के साथ शादी करने को विवश करके ‘उसके अरमानों का कत्ल करके उम्र की कैद में बंद कर दिया गया।‘ ‘कुर्सी पलट गई’ में यह थीम दोहराई गई है जो इस बात का संकेत करती है कि वे अपने प्रति हुए अन्याय की चोट से आजीवन उबर नहीं पाई थीं। कुछ कहानियों में दो संस्कृतियों के मेल से हुए विवाह में संस्कृतियों का टकराव है। उनकी दृष्टि अब अपने परिवेश की सामाजिक विषमताअओं का निरूपण करती है। “ऐसा क्यों?’ दस वर्षीय जेनी की कहानी है जो अपनी माँ के बॉय फ्रेण्ड के यौन-उत्पीड़न से बचने के लिए घर छोड़ने को विवश है। सामाजिक सरोकारों को यथार्थदृष्टि से निरूपित करते समय कहानियों में तटस्थता का निर्वाह कर पाना कहानीकार के रूप में उनकी विकसन शीलता का परिचायक है।
कहानी संग्रह की भूमिका में नीना जी ने स्वयं अपनी कहानियों की कमज़ोरियों को सँवारने की बात कही है। यह प्रयत्न शिल्प की दृष्टि से सुघटित कहानियों के रूप में आया है। इन कहानियों में एक क्रमिक विकास और कसावट परिलक्षित होते हैं। पूरी कहानी की बगडोर अपने हाथ में रखने की जगह वे उसे अपने पात्रों को पकड़ा देती हैं फलस्वरूप कथानक का विकास पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप से होता हैं। कहानी अनावश्यक विवरण के ढीलेपन से मुक्त हो जाती है। 
‘शराफ़त विरासत में नहीं मिलती’ इस संग्रह की सबसे लम्बी कहानी है जिसमें तीन बहनों के जीवन के उतार चढ़ाव को अत्यंत कुशलता से दिखाया है। बड़ी बेटी की शादी भारत से आयातित विपुल से होती है। विपुल पश्चिम के सामाजिक- सांकृतिक परिदृश्य में फिट नहीं हो पाया और बीबी की कमाई पर रंगरेलियाँ मनाता रहा। बिचली बेटी ने अपने परम्परावादी पिता की अनुमति बिना अपने सहपाठी डॉक्टर ऐंड्रू से शादी की। तीसरी बेटी को कभी भी माता पिता का प्यार नहीं मिला। उनके प्यार से वंचित होकर वह ड्रग्स, ड्रिंक्स, बलात्कार, और गर्भपात के अनुभवों से गुज़रने के बाद अपनी सहेली के बड़ी उम्र के विधुर पिता में प्यार की पूर्णता पाती है। कहानी का कथानक संश्लिष्ट है । नीना ने कुछ गम्भीर मुद्दों को समेटा है। विवाह की सफलता-असफलता केवल स्वजाति में सम्बंध करने पर निर्भर नहीं हो सकती। तीसरी बेटी होने के कारण माँ बाप की अवहेलना से दुखी स्मृति उस सामाजिक व्यवस्था की विक्टिम है जहाँ बेटे के जन्म पर खुशियाँ और बेटी के होने पर शोक मनाया जाता है। पापा से प्यार पाने के लिए तरसने वाली तीसरी बेटी स्मृति अपनी सहेली रोहेला के विधुर डैडी में वह प्यार पाकर उनके साथ चली जाती है। स्मृति के लिए यह कहानी का सुखद अंत होकर भी सवाल पूछता है कि क्या बेटियों के लिए हमारे समाज की मानसिकता कभी बदलेगी भी या नहीं?
लैस्टर के इतिहास पर आधारित उपन्यास ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ नीना के तीन वर्षों के शोध और श्रम का परिणाम है। भूमिका में वे लिखती हैं,’मैं 1973 से लैस्टर में हूँ। यहाँ की इकौनोमी का उत्कर्षापकर्ष देखा है। माइनर्स की दो हड़ताल देखी हैं जो ब्रिटेन की इकौनोमी के अपकर्ष का कारण बनी … पर कुछ ऐसा नहीं लिखना चाहती थी जो उपन्यास लेस्टर का इतिहास बन कर रह जाए। मेरा उद्देश्य यहाँ के रहन-सहन और एशियंस पर उसके प्रभाव के विषय में लिखना था।’ उपन्यास में लैस्टर के इतिहास के समानांतर इदी अमीन द्वारा अफ्रीका से निकाले गए एक गुज़राती परिवार की कहानी बुनी गई है। 
लैस्टर के इतिहास से सम्बंधित अंश ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वर्क वीसा लेकर आए भारतीय श्रमिक और ब्रिटिश पासपोर्ट के अधिकार से अफ्रीका से आए परिवारों ने किस तरह लैस्टर के मूल अंग्रेज नागरिकों को धीरे धीरे हाशिये पर ला दिया, अपनी कर्मठता और किफ़ायती से मकानों और कारख़ानों के स्वामी बन गए, इसके वर्णन का ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्व है ही साथ ही युगाण्डा से आए परिवार सुरेश भाई, सरोज उनकी वृद्ध माँ सरलाबेन और निशा के प्रसंग में नीना जी ने प्रवासी जीवन के दो अत्यंत गहरे बिंदुओं को रेखांकित किया है। मूल रूप से गुजरात के नवसारी नामक स्थान से आई सरलाबेन वहाँ लौट जाने की लालसा में लैस्टर को कभी पूरी तरह से नहीं अपना सकीं। 
मगर अंत में जब उन्हें नवसारी जाने का अवसर मिला तो वे अपने आप से पूछती हैं कि नवसारी में किसके लिए जारही हैं। वे आत्मीय स्वजन जिन्हें वे छोड़ कर अफ्रीका गई थीं, वे तो अब इस संसार से जा चुके हैं। वहाँ उनको पहचानने वाला तक कोई न होगा। वस्तुत: नौस्टैल्जिया एक भावना भर है, जिस जमीन को छोड़कर हम दूसरे देशों में आकर बसते हैं वहाँ वापस जाकर भी उसी जगह नहीं लौट सकते हैं जिसे छोड़कर आए थे। वहाँ की धरती और लोग कहीं आगे बढ़ चुके होते हैं।
दूसरा बिंदु प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी के भविष्य का अंकन करता है। सुरेश भाई जीवन भर कॉर्नर शॉप चलाते रहे और उनकी पत्नी सरोज होज़री के कारखाने में काम करते हुए अपने अंग्रेज़ सहकर्मियों के षड़यंत्र की भागीदार बनी। पर उनकी बेटी निशा युनिवर्सिटी से उच्च डिग्री हासिल करके अपना करीयर बनाती है। उसके पास एक से अधिक जॉब के ऑफर हैं जिनमें से वह अपना मनपसंद जॉब चुन सकती है। प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी न तो कॉर्नर शॉप खोलेगी और न कारखानों में काम करेगी और ना ही प्रजातिवाद को चुप रहकर सहेगी। सायमन के साथ उसकी निकटता का प्रसंग दूसरी पीढ़ी के भारतीयों के सामाजिक समंवय का अगला कदम है। इन गम्भीर मुद्दों को नीना जी ने अत्यंत कुशलता से अभिव्यक्त किया है। नीना जी ने ‘तलाश’ की नौस्टैल्जिया से प्रारम्भ कर ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ में प्रवासी मानसिकता के मोहभंग के चित्रण द्वारा जीवन बोध की परिपक्वता तक का एक लम्बा रास्ता तय किया है। मैं इसे उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानती हूँ।
कभी सोचा तक नहीं था कि नीना जी के लिए इस तरह से लिखना होगा। वे तो हमेशा मुझे यही दिलासा देती रहीं, ‘अरे मैं इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं,  देखियेगा कैंसर की लड़ाई में मैं कैंसर को हरा कर छोड़ूंगी।’उनकी यह जिजीविषा अंत तक उनके साथ रही। यह मुस्कुराहट और जिजीविषा अंत तक उनका सम्बल बनी रहीं और अब उनकी रचनाओं में जीवित है। सच तो यह है कि लेखक कभी मरता नहीं, वह अपनी रचनाओं में सदा के लिए जीवित रहता है।
डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान, स्वर्ण पदक, स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास पर शोध कार्य करके पी एच डी और फ़्रेंच भाषा में डिग्री प्राप्त की। 1971 से यूके में रह कर अध्यापन कार्य, शिक्षण कार्य के लिए महारानी एलिज़ाबेथ द्वारा एम बी ई, लंदन बरॉ औफ ब्रैंट, इन्डियन हाई कमीशन तथा प्रवासी संसार द्वारा सम्मानित की गई। ब्रूनेल विश्वविद्यालय के अंतर्गत पी जी सी ई का प्रशिक्षण और सम्प्रति केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतर्राष्ट्रीय शाखा में हिन्दी की मुख्य परीक्षक के रूप में कार्यरत। संपर्क : arunaajitsaria@yahoo.co.uk

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.