उम्रकैद की लंबी सजा को तेरह साल में निबटा कर आज वह अपने घर के सामने खड़ा था। टकटकी लगाए वह देर तक उस दरवाजे को घूरता रहा जिससे वह अनेकों बार इस घर के भीतर-बाहर गया था। लंबी सांस भर, बहुत संयत मन से उसने जेब से चाबी निकाली और ताले में डालकर घुमाई। ताला ढीठ-सा अड़ा रहा। इसी दशा में टंगे-टंगे यह ताला भी उम्र कैद जितनी लंबी अवधि काट चुका था। यों दरवाजा जोर से धकेलने पर संभवतः ताला खोलने की जरूरत ही न पड़ती मगर यह विकल्प उसके दिमाग में आया ही नहीं। एक आँख बंद कर उसने ताले की मोरी के भीतर झांकते हुए चाबी घुसेड़ कर पूरी ताकत से मरोड़ दी। कड़-कड़ की आवाज के साथ कराहता वह ताला आखिर होश में आया तो जैसे आश्चर्य से उसका मुंह खुला का खुला ही रह गया। गोया अविश्वास से पूछ रहा हो, “कौन हो भाई, यहां तो बरसों से कोई आया नहीं।”
“तो क्या ओमी भी कभी आया नहीं, मेरे पीछे?” वह हल्के से बुदबुदाया था।
“कौन, ओमी?” दरवाजा भी अब तक बुढ़ा चुका था और उसकी याददाश्त पहले जैसी नहीं रह गई थी कि अरसे बाद कोई आए और अपना परिचय तो देना दूर, लगे किसी-किसी के बारे में दरियाफ्त करने।
उसने दरवाजे को जोर से धकेला तो बरसों की जमी धूल उस पर छिटक कर पड़ी। चलो, किसी ने गले लगाकर स्वागत तो किया। वह भीतर चला आया। लंबे अरसे से एक ही स्थान पर रखी चीजें, पड़ी-पड़ी जम चुकी थीं। कुछ साफ-साफ दिख नहीं रहा था। हर तरफ पड़ी धूल की मोटी परत से उसका रंग-रूप ही बदल चुका था। क्या यह उसीका घर है ? स्मृतियों में कुछ कौंधा तो जरूर मगर ठीक से आकार न ले सका। किसके सहारे वह छोड़ गया था अपना घर? माथे पर सोच की सलवटें गहरा गईं। 
‘ओमी!’ उसने पुकारना चाहा मगर गहरे निःश्वास के साथ आंख, नाक और मुंह में धूल भर गई। जोर से खांसता हुआ वह बाथरूम की तरफ दौड़ा। हां, ये उसी का घर है, उसे भरोसा हुआ। उसे बाथरूम का सही अंदाजा था। ऐसे ही और चीजें भी स्पष्ट हो जाएंगी। उसने खुद को आश्वस्त किया और कमरे की सफाई करने में मसरूफ हो गया। उम्र का तकाज़ा है, वह अब दिमाग पर बहुत जोर नहीं डाल पाता है। हां, काम चाहे कितना ही करा लो, वह थकता नहीं। जेल में बहुत डट कर काम किया है। बस, सोचने की आदत नहीं रही। उसने रसोई के दरवाजे के पीछे पड़ी झाड़ू निकाल ली। कमाल है, झाड़ू भी वहीं थी। यानी घर तो उसका ही है। ऐसा तय कर आखिर वह उसकी साफ-सफाई में जुट गया। रात होते तक उसने घर को काफी हद तक ठीक-ठाक कर लिया था। बहुत मिट्टी निकली, धूल की चद्दर जैसे। 
‘यानी ओमी कभी आया नहीं, मेरे जाने के बाद’, वह आहत स्वर में बुदबुदाया, ‘मगर मैं तो ओमी के भरोसे ही छोड़ गया था सब कुछ। ऐसा नहीं हो सकता। वह जरूर यहीं कहीं छुपा बैठा होगा।‘ पलंग के नीचे, परदे के पीछे, खिड़की के बाहर, बगीचे में, हर तरफ देख लिया मगर ओमी कहीं दिखाई न दिया। अंधेरा गहराने लगा था। बत्ती जलानी चाही तो तारें कटी हुई मिलीं। किसी तरह तारें जोड़ीं और स्विच दबाया तो बल्ब चनक् कर टूट गया। खाने को कुछ था नहीं और खाने का मन भी नहीं था। वह वैसे ही अंधेरे में पड़ कर सो रहा।
ऐसा नहीं था कि वह बरसों बाद सो रहा था। जेल में भी उसे पूरी नींद मिलती थी पर जाने क्यों आज वह देर तक सोता रहा। आंख खुली तो दिन चढ़ आया था। औचक वह उठा, कोई आया नहीं उठाने? फिर याद आया, वह रिहा हो चुका है और अब वह अपनी मर्जी का मालिक है। जब तक चाहे सोए। हाथों को खींच कर एक भरपूर अंगड़ाई भर वह बाजार की तरफ निकल पड़ा। सोचा, कुछ सब्जी-भाजी ले आऊं, घीया, कद्दू खा-खाकर दूसरी सब्जियों का स्वाद ही भूल गया है। पसंद की सब्जियां लेनी चाहीं तो कुछ याद ही न आया। आखिर घीया, कद्दू समेटे ही लौट गया। हां, लौटते हुए नया बल्ब लेना नहीं भूला। उसे उम्मीद थी कि जलती बत्ती देख ओमी जरूर वहां आएगा। आखिर उसी की खातिर तो वह जेल से निकला है वरना वह तो जेल में ही रम गया था। बल्कि सच कबूले तो वह जेल के वातावरण में इतना घुलमिल गया था कि वह इस घर को, ओमी को बिलकुल ही भूल चुका था। जेलर साहब की कोशिशों ने जेल को आश्रम में बदल दिया था। उसके पास काम भी था और कमाई भी। बाहर की दुनिया से बेहतर ही थी जेल की दुनिया। फिर भी, पता नहीं क्यों सब छटपटाते रहते थे, घर लौट आने को। उसकी सजा उम्र भर लंबी थी, इसलिए उसने औरों की तरह दिन नहीं गिने। दीवार पार की दुनिया के प्रति उसका मोह मर चुका था। मगर फिर एक सुबह अचानक ही जेलर साहब ने बताया कि उसकी सजा माफ हो गई है। वह कुछ समझ नहीं पाया।
“देखो, तुम्हारे अच्छे बरताव और चाल-चलन के कारण तुम्हारी सजा यहीं खत्म कर दी गई है! तुम इसी महीने रिहा कर दिए जाओगे!!” जेलर साहब ने खुशी से उसकी पीठ थपथपाई थी।
सजा… उसे कुछ याद आया, कॉलेज में झगड़ा हुआ था। लड़के एक-दूसरे पर टूट पड़े थे। वह भी कूदा था किसी पर, पूरी ताकत के साथ। बस, इसके बाद कुछ याद नहीं। कितनी ही बार वह कोर्ट में पेश हुआ है। वकील ही उसे बताते हैं कि कैसे-कैसे क्या हुआ था। 
खैर, रिहाई की खबर पर बाकी कैदियों ने उसे बधाई दी तो उसे लगा कि यह खुशी की बात है। पर खुशी की बात कैसी होती है, इतने सालों में वह यह भी भूल चुका था। फिर भी, वह कुछ हल्का-हल्का महसूस करने लगा था। 
“यहां की सिखाई बातें भूलना नहीं,” चलते-चलते जेलर साहब ने आखरी सीख दी थी। 
“यहां के अलावा और भी कुछ है क्या?” उसे कुछ ध्यान नहीं आया। 
रिहाई के वक्त जेलर साहब ने उसका झोला उसके हवाले किया तो पूरे बदन में झुरझुरी उतर आई। दिमाग में कुछ कौंध-सा गया। ओमी से मिलने की छटपटाहट तभी से जोर मारने लगी। 
घर पहुंच कर उसने बड़े चाव से सब्जी बनाई, गोल-गोल, नरम-नरम रोटियां सेंकते हुए भीतर ही भीतर ओमी को पुकारता रहा। सोचा, पास-पड़ोस में पूछूं कि पिछली बार ओमी कब आया था यहां? मगर हिम्मत न हुई। बाहर की दुनिया पराई हो गई थी। एक सजा-ए-आफ्ता से कौन बात करना चाहेगा? लोग उसे नहीं पहचानते, यह भी अच्छा ही है। उसने राहत की सांस ली और खा-पीकर सो गया। बत्ती जली ही छोड़ दी। उसे भरोसा था कि कहीं न कहीं से जरुर ओमी घर पर निगाह रखता होगा और बत्ती जलती देख दौड़ता हुआ यहां आएगा। 
नींद में भी वह हर खटके से जागता रहा पर सुबह हो गई और ओमी नहीं आया। 
अगला दिन भी बीत गया, ओमी नहीं आया। 
उसकी छटपटाहट अब नागवार गुजरने लगी। अगर ओमी ही न मिला तो जेल से छूटने का क्या फायदा? वह क्या करे? कहां तलाशे? किससे पूछे? कई बार ख्याल आया कि जेलर साहब से मिले। वे बहुत काबिल ऑफिसर हैं। कहीं से भी खोज निकालेंगे उसके ओमी को। मगर फिर ठिठक गया। कोई पता नहीं, क्या समझ बैठें। पूछेंगे, क्यों ढूंढ़ रहा हूं इसे तो क्या जवाब दूंगा। फिर जेल वालों का क्या भरोसा, कहीं कुछ शक-वक कर बैठें और पकड़ कर उसे जेल में डाल दें, तो? नहीं, नहीं। ओमी खुद ही आएगा यहां। उसे पूरा भरोसा था कि उसके लौटने की खबर मिलते ही ओमी दौड़ता हुआ यहां आएगा। इन्हीं उम्मीदों में वह रोज बत्ती जलती छोड़कर सो जाता। दिन बीतते जा रहे थे और ओमी का कोई पता नहीं मिल रहा था। 
एक रात कानों में पड़ी किसी आवाज ने उसे झकझोर कर जगा दिया। ये तो ओमी की आवाज थी। हां, ओमी गा रहा था। बिलकुल वैसे ही सप्तम सुर में, जैसे वह गाया करता था। वह झटके से उठ बैठा। उचक कर खिड़की से बाहर देखा। बगीचे में खड़े पेड़ के पीछे कोई साया छिपा-सा लगा। वह जल्दी से बगीचे की तरफ लपका। जंगल-झाड़ से उग आए बगीचे में हर साया किसी के होने का भ्रम पैदा करता था। 
‘ओमी… ओमी…’ उसने धीरे से पुकारा मगर कोई जवाब न मिला।  
वह पूरे बगीचे का चक्कर लगा आया पर कहीं कोई नहीं था। दरवाजा खोल वह सड़क पर निकल आया। उजाला होने में अभी देर थी। हर ओर सन्नाटा था। पंछी भी अभी सो रहे थे। वह समझ न पाया, आवाज कहां से आई थी और कहां को चली गई। अपनी शून्यता के साथ वह बैरंग वापस लौट आया। भीतर का खालीपन और भी गहरा गया था। 
आखिर, उसने जेलर साहब से ही मदद लेने का फैसला किया और दिन निकलने पर तैयार-वैयार हो कर जेल जा पहुंचा। 
“क्या हुआ, घर में मन नहीं लगा?” जेलर साहब उसे देख कर मुस्कराए। 
ऐसा कई बार होता था कि कैदी रिहा हो जाने के बाद भी जेल के दोस्तों से मिलने चले आते थे। बाहर की दुनिया के लिए वे चाहे कितना ही अधीर रहे हों पर बाहर की दुनिया उन्हें उस शिद्दत से नहीं स्वीकारती।
“साब, ओमी से मिलवा दो,” वह सीधा मुद्दे की बात पर आ गया। 
“ठीक है, पर ये ओमी है कौन?” जेलर साहब ने जानना चाहा।
 “साब जी, वह मेरे साथ ही रहता था। बहुत अच्छा गाता था। अरसा हो गया उसकी आवाज सुने।” एक लंबी सांस भर उसने बताया, “वह मेरे साथ यहां भी आया था, मुझे जेल तक छोड़ने। फिर अचानक मेरी उंगली झटक कर वह पता नहीं कहां चला गया।” उसकी आंखों में सूनापन उतर आया था। 
“वह मुझसे नाराज हो गया था। मेरी हरकतों से परेशान…” उसने एक सिसकी भरी। “साब जी, किसी तरह उसे ढूंढ़ दो, उसके बिना मेरी रिहाई का कोई मतलब नहीं।” 
कोई बाढ़ बांध तोड़ने को आतुर थी मगर वह उसे आंखों की कटोरियों में समेटे बैठा था।
जेलर साहब सोच में पड़ गए। कौन था जो उसे जेल तक छोड़ने आया था? रिहाई के समय तो कोई उसे लेने नहीं आया। जिस समय वह जेल में आया था उस समय तो यहां कोई और ही जेलर था। वही कुछ बता सकता है। मगर वह भी इतनी पुरानी बात क्या याद रखेगा। यहां तो हर रोज ही कोई न कोई आता रहता है। और यह तो जब से यहां आया है, कभी कोई इससे मिलने नहीं आया है, न ही इसने कभी किसी का जिक्र ही किया है। यह तो कभी कुछ बोला ही नहीं। यहां तक कि सुनवाई के समय भी उसकी तरफ से उसका वकील ही जो कुछ बोलता। वह न उसे काटता, न हामी भरता। उसकी चुप्पी को हामी के तौर पर लिया जाता रहा और फिर उसे उम्रकैद हो गई। ये जेलर साहब तो दो साल पहले ही यहां की जेल में आए थे। इसकी खामोशी और इसका शांत स्वभाव जेलर साहब के भीतर उसके प्रति सहानुभूति भरता रहा और उन्हीं की पैरवी पर उसकी रिहाई हुई थी। 
जेलर साहब ने उसकी फाइल मंगा ली। क्या पता, इसमें कहीं ओमी का कोई सुराग मिल जाए। 
फाइल खोली ही थी कि खट् से एक फोटो नीचे गिरी। जब तक जेलर साहब फोटो उठाते तब तक उसने लपक कर वह फोटो उठा ली और खुशी से चहक पड़ा, “साब जी, यही तो है ओमी। इसी को तो ढूंढ़ रहा हूं।”
जेलर साहब ने फोटो हाथ में ले ली। वह बीस-बाइस साल के सुदर्शन युवक की तस्वीर थी। मूंछों की हल्की धारी और चमकदार आंखों के बीच दमकता कमसिन चेहरा। आखिर फोटो फाइल से निकली है तो जरूर ही इसके बारे में फाइल में कुछ मिलेगा। जेलर साहब ध्यान से फाइल पढ़ने लगे। 
“शिवेन्द्र कुमार उर्फ ‘ओमी’ को दफा 302 के जुर्म में आज तारीख….” जैसे–जैसे वे फाइल पढ़ते जा रहे थे, सारा रहस्य खुलता जा रहा था। जब उसे यहां लाया गया था और रिकार्ड के लिए जो तस्वीर खींची गई थी, यह वही तस्वीर थी।
जेलर साहब समझ चुके थे कि एक लंबे समय तक जेल की जिंदगी जीते-जीते वह खुद को ही पहचान नहीं पा रहा था। अपने कॉलेज के ‘उमंग-बैंड’ का वह सिंगर, हिंदुस्तानी और पाश्चात्य संगीत का फ्यूज़न जिसके गाने की खासियत थी… जिसकी ऊंची तान और दिलकश आवाज के कितने ही दीवाने थे…
जेलर साहब फाइल पलट रहे थे और महसूस कर रहे थे कि एक समय में वह कितना हंसमुख और हाजिरजवाब हुआ करता था। संगीत के साथ-साथ, जिंदगी को भी बेहद संजीदगी से जीने वाला। इसीलिए तो किसी लड़की को बेतहाशा चाहने के बाद वह उसे किसी दूसरे के साथ बरदाश्त नहीं कर पाया और उस पर टूट पड़ा था। उसे उम्रकैद की सज़ा हुई। मगर जिसकी रिहाई हुई वह तो कोई दूसरा ही शख्स था। यह शख्स हंसना-गाना भूल चुका था। उसकी कोई पसंद-नापसंद नहीं रह गई थी। किसी बात पर उत्तेजित होने के बदले वह तटस्थ हो चला था। एकदम शांत और निर्विकार। 
उन दोनों के न चेहरे मिलते थे न प्रकृति। वह खुद से ही अपरिचित हो गया था और खुद को ही तलाश रहा था। 
“ये तुम्हारी ही तस्वीर है। तुम ही ओमी हो।”
जेलर साहब ने उसे समझाना चाहा तो वह उस फोटो को लेकर कमरे में लगे आइने के सामने खड़ा हो गया। वह कभी आइने में खुद को देखता तो कभी उस तस्वीर को। 
दोनों में कहीं भी, कुछ भी तो एक-सा नहीं था।
‘काल की कोख से’, ‘मैं ही तो हूँ ये’, ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’ (कविता-संग्रह); ‘सुरक्षित पंखों की उड़ान’, ‘मुझसे कैसा नेह’ (कहानी-संग्रह); खाली कुरसी (नेशनल बुक ट्रस्‍ट की नवसाक्षर साहित्‍यमाला के अंतर्गत प्रकाशित कहानी पुस्तक); जी-मेल एक्‍सप्रेस (उपन्‍यास) प्रकाशित. संपर्क - alkasays@gmail.com

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