नवम्बर का आखरी सप्ताह चल रहा था । मौसम भी अपने ठण्ड के गुलाबी रंग में बदलना शुरू करने लगा था। दिल्ली और बैंगलोर में रहने वाली दोनों बहनों खुशबु और गिन्नी की माँ दिवाली के दस दिन बाद इस दुनिया से विदा हो चुकी थी। इस खबर से दोनों के जीवन का मौसम ही बदल गया था। किसी तरह अपने बच्चों के साथ दोनों बहनें अपने मायके भोपाल पहुंची। घर पर कदम रखते ही कदम लड़खडाने लगे थे ताई, मौसी, चाची के सुबकने की आवाजें तेज हो गई थी। गमगीन मन के साथ कमरे में पहुँची ही थी कि लगा अभी बस कमरे से हँसती हुई माँ निकल कर आती होगी मगर माँ अनन्त यात्रा पर जा चुकी थी। बस छोड़ गई थी बहुत सी यादें और एहसास जो माँ के सशरीर नहीं होते हुए भी माँ कमरे के कण कण में बसी महसूस हो रही थी।
माँ को परलोक सिधारे अभी चार दिन ही हुए थे। रिश्तेदार अब वे ही रुके थे, जो तेरहवीं करके ही जानेवाले थे। कुछ रिश्ते कमरे में बिछी एक सुन्दर सी दरी पर बैठे थे जो माँ की साड़ियों से बनी थी। बेहद सुन्दर रंगों के संयोजन की ये दरी “कथरी’ पर उदासी का कंबल ओढ़ बैठे रिश्ते सभी बेहद करीब के थे। उनमें एक थी विमला जिज्जी जो खुश्बु और गिन्नी की ताई थी, सुमन मौसी और दूसरी थी रमा काकी जाने क्या चुपचाप फुसफुसाकर थोड़ा बतिया भी रही थी। बगल में खशबु और उसकी छोटी बहन गिन्नी रो रोकर सूजी आँखो के साथ अब शान्त थी। मन मानने को तैयार नहीं था कि माँ अब नहीं हैं ।
माँ के जाने से दोनों बेटियों की आंखो में सूनापन गहरा गया था । तभी दोनों के कानों में रिश्तों की फुसफुहाहट की आवाज़ आई
“ जिज्जी के पास तो बहुतेरी साड़ियां हती।” खूब शौक से पहनती थी। एक से बढ़कर एक साड़ियाँ हर बेर देखबे के काजे होती हती।
“हाओ…विमला जिज्जी आंखो में चमकदार याद को ताजा करके बोली । हमें सोई पिछरी बेर दई थी गोटा किनारी की गुराबी रंग की साड़ी लाख की मैचिंग चूड़ियाँ भी राजस्थान से मंगवाई थी उन्ने ।
“हमरे इते सबरी कै रही थी की कित्ती सुन्दर साड़ी दई रामदई।” विमला जिज्जी का आँख मटका कर आश्चर्य से बताना भी माँ के एक खास गुण को समझाना था। विमला जिज्जी ने अपनी साड़ी का पल्ला। सिर पर ढाँक लिया और कुछ सोचने लगी।
माँ सिर्फ रिश्तों को बांधती ही नहीं थी बल्कि उस रिश्ते को सौन्दर्यबोध और सम्मान के साथ दी जाने वाली खुशियों के साथ भी भिगो देती थी ।
गिन्नी फफककर रो पड़ी यूँ भी माँ के अन्तिम दर्शन ही कर पाई थी, दिल्ली से भोपाल आने में उसे पूरा दिन लगा था। उसकी पांच साल की बेटी को भी लेकर आना पड़ा था जो नानी- नानी की रट लगाये थी । गिन्नी को याद आता है माँ ने कैसे अपनी पुरानी सूती नरम साड़ियों से गिन्नी के लिए लंगोट बनाई थी और उसे कितने जतन से सिलवाई थी ।
कि नवजात को कुछ तकलीफ ना हो। कैसे पापा को अकेले छोड़कर अंबाला गई थी कि बेटी की आँठवा माह ख़त्म हो रहा है जाने कब डिलीवरी हो जाये। कैसे सारा सारा दिन काम करती थी यहाँ तक की क्रोशिया से छोटे छोटे स्वेटर बनाकर तैयार कर लिए थे। यह जता जता कर कि एक माह बाद ठंड शुरू हो जायेगी। ख़ुश्बू लाख मना करती रही पर माँ ने कहा सुनना था। खुद के घुटनों में दर्द के बाद भी शहर में घूम- घूम कर अच्छी क़िस्म के सूखे मेवे, घी, गुड़ मसाले सभी को तैयार करके ले आई थी कि डिलीवरी के बाद गिन्नी को पौष्टिक आहार मिल सके।
कानों में भनक पड़ी सुमन मौसी दबी जुबान से कह रही थी अरे…. खुशबु से बोलकर जीजी की एक दो साड़ियां ले लेना जाने के पहले ।
हओ हम सोई लेले …अच्छी होत है सुहागन की साड़ी पहननी चाईए …और का .. साड़ी तो निसानी है जीजी की, हम तो सूती साड़ी ही पहनते हैं तो हम तीन चार माँग लेगें जे मोड़ियाँ ओरे कौन पहनने वारी हैं …विमला जीजी थोड़ा जोर से बोली।
वे तो सिल्क- मिल्क ही पहनेंगी। कॉटन साड़ी तो बूढ़ी हड्डियों के लाने सई होउत हेंगी।
माँ को जाकर पाचवां दिन था । सुबह हो चुकी थी पर पूरे घर में नितांत शान्ति पसरी थी।
कमरे में मौसी, काकी के साथ दोनों बहनें भी लेटी हुई थी। घर का मुख्य दरवाज़ा खुला था। खुश्बु में सुबह सुबह ही उठकर दरवाज़ा खोल दिया था, जैसे माँ सुबह उठकर सबसे पहले दरवाज़ा खोल देती थी।
तभी पड़ोसन हाथ में जग भरकर चाय और कुछ बिस्किट लेकर आई ।
नमस्कार बहनजी …
गर्दन हिलाकर गिन्नी ने नमस्कार किया
आइये आंटी …खुशबु बोली
पड़ोस की शर्मा आंटी थोड़ा मुश्किल से आँख में आंसू रोककर कहने लगी चाय लाई हूँ ..
आपलोग ..घर पर कितने लोग हैं ?
मैं खाना भेजूँगी ..
खुशबू गिन्नी एक दूसरे को देखते हैं।
नहीं – नही आंटी भइया कह रहे थे कि होटल से खाना आयेगा …आप परेशान मत हो बस चाय ठीक है। खुशबु ने साफ साफ कहा।
अरे नहीं बेटा ,,,,,…भाभी का मुझपर बड़ा एहसान रहा है मेरी हर तकलीफ में सहारा थी। इतना ही नहीं मेरी बेटी के ससुराल वाले आये और तभी मेरा पैर टूटा था। तो भाभी जी ने पूरा स्वागत घर के सदस्य जैसा उनका किया और बेटी की सास को अपनी और से विदाई ..एक सुन्दर कॉटन की साड़ी पहनाई हमने मना किया तो बोली बेटियों की माँ मैं भी हूँ, रिश्ता निभाना जानती हूँ … तो मैं आज इतना भी ना करूँ उनके सम्मान में ….खाना तो मैं ही भेजूंगी । हाथ जोड़कर बोली सादा खाना ही भेजूँगी मना मत करो ।
तभी भाई के आफिस का सहायक हाथ में कुछ नाश्ते से भरे पैकेट उठाये कमरे में प्रवेश करता है
दीदी ..यह जलेबी पोहा है .. नाश्ता… मैं घर से बनवाकर लाया हूँ ।
अरे ..भईया आप क्यों परेशान …इतना ही कहा था गिन्नी ने कि वो बोला अरे दीदी ..अब आपको को क्या बताये माता जी का हमसे बहुत स्नेह और लगाव था। हम शादी होकर जब ग्वालियर से भोपाल आये तो सबसे पहले हम पति पत्नी ने उनसे आशीर्वाद लिया था। माता जी हमें भी बेटे जैसा चाहती थी, जब पहली बार माता जी को मिलने आया था तो माता जी ने हमारा कितना स्वागत किया था। पत्नी के पास आज भी आठ साल पुरानी मुँह दिखाई की उनकी दी साड़ी है । हर तीज त्यौहार पर पत्नी को सुहाग का सामान और हमें घर की जरूरी सामान भेंट करतीं रहती थी। अब क्या मैं इतना भी ना करूँ …
बरबस दोनों लड़कियों की आंखो से आँसू बह निकले फिर सुबकते हुए कहा …ठीक है भइया वहाँ सामने टेबल पर रख दीजिए और वो साफ पतला साड़ी का कपड़ा है उससे ढाँक दीजिए तो ठण्डा नही होगा । सब सोकर उठ जाये बस …
अभी सुबह के आठ ही बजे थे। सड़क पर आवाजाही शुरू ही हुई थी। तभी सड़क पर एक तेज आवाज़ सन्नाटे को तोड़ती है ।
सब्जी ले लो ….सब्जी …..टमाटर भिण्डी करेला सब्ज़ी लेलो सब्ज़ी ….बाहर भाजी का ठेला जा रहा था कुछ दो तीन लोगों की भीड़ को बाहर खड़ा देख समझा कोई कार्यक्रम है तो ठेला वहीं रोककर जोर जोर से आवाज़े लगाने लगा । तभी घर की उपरी मंजिल से किसी ने कहा भइया इधर आगे आओ तो नीचे खड़े दो तीन पड़ोसी उसे बोले जरा… धीमे …माताजी गुजर गई है उधर .. ज़रा धीमें बोलो ।
सब्जी वाला सात दिन बाद इस मोहल्ले आया था और माता जी ही थी जो घर के हर त्यौहार पर उसे चाय नाश्ता करवाती थी। सब्जियां तो वो हाट से ज्यादा लाती थी, मगर थोड़ी बहुत इस सब्जी वाले से भी नियमित सब्जियां लेती थी ।
माताजी चली गई …सुनकर सब्जी वाला सन्न रह गया ..उसका मुँह खुला रह गया..
बोला कौन सी माता जी? नीचे घर वाली? कब कैसे …
अभी पिछले सप्ताह तक तो सब ठीक था.. किसी ने कहा
अरे .. बहुत भली महिला थी … पिछले दस सालों से जानता हूँ उनको, मुझसे एक दिन कहा था बेटे की शादी कब कर रहे हो मैंने कहा बस देव उठ जाये तो कहती थी मुझे बुलाना फिर शादी में मैंने बुलाया मगर वो आ ना सकी थी अभी पिछले महीने ही मुझे बुलाकर कहा तुम्हारी बहू को अपने हाथ से देना चाहती थी मगर तबीयत ठीक नही फिर एक लिफाफे में पांच सौ रुपये और बहु के लिए एक नई साड़ी दी थी । यह कहकर तुरंत ही सब्जी वाले ने अपना ठेला घुमा लिया और गर्दन झुकाकर अपने घर लौट गया ।
आज शनिवार था और शनिमहाराज का दिन याने वो पंडित जी जो घर- घर जाकर शनिदेव के नाम की भिक्षा माँगते थे । अपने कमंडल में तेल से तरबतर शनि महाराज को लिए वो ग़र के परी मंज़िल पर जा रहे थे ।
“जय शनि महाराज जय जय शनि महाराज की तान लगाते लगाते। वो दरवाज़े के बाहर ठिठक गये। गिन्नी की बेटी उनींदी सी उठ खड़ी हुई और दौड़ते हुए दरवाज़े पर पहुँची । मौसी जी ने उसे पाँच रू का सिक्का दिया और बोली लो बेटा इसे महाराज को चढ़ा दो।
शनि महाराज हाथ जोड़ कर खड़े रहे बोले बिटिया माँ तो स्वर्ग चली गई है आप क्यों उदास हो। ऐसी माता थी जो मुझ जैसे अन्जान की भूख प्यास को समझ लेती थी। कभी कभी सुबह की चाय बिस्कुट मेरे दिन भर का भोजन होता था। कुछ साल पहले मेरे घर एक भैंस हुआ करती थी दान में ही मिली थी । ठंड के दिनों में भी बाहर खुले में बँधी रहती थी । माता जी को जब पता चला तो माता ने एक पुराना कंबल और दो सूती साड़ियाँ उसके लिए दी थी । और हिदायत भी दी थी कि मच्छरों से सावधान रहना दान में मिली भैंस का ख़ूब ख़्याल करना । बताइए आजकल के समय कौन किसी की मदद बिन माँगे करता है भला। माता तो अन्नपूर्णा थी इतना कहकर हाथ जोड़कर चला गया।
भारती मामी भी कोने में मुँह लटकाये उदास सी बैठी थी खुशबु को देखते ही कहने लगी बेटा अब तुमसे का बताये बिटिया जे तुमाई मम्मी का हती ।
हर राखी पर हमारे लिए नई से नई डिजाइन की साड़ी लाती हती चाहे जो हो हमाये मना करवे से भी वे मानती ना थी । कहती हती की बड़ी दीदी का फर्ज है राखी पर अपने भ्ईया भौजी के लाने खुशियाँ भरने का। हमें तो अब हर बरस यही याद आयेगा हमारी दीदी होती तो वो ये करती वो करती अब से हमारी राखी सूनी हो गई। गिन्नी की आखों में फिर आंसुओं का सैलाब भर गया था।
आज से घर में झाडू पोछा होना था 20 साल की कामवाली सुनिता आ कर खड़ी थी। तभी रमा काकी जी
बोली अरे ..चलो झाडू पोछे के बाद ही नाश्ता करेंगे सब लोग उठ जाये तो सफाई हो जाये ।
सुनिता अपनी साड़ी के पल्लू को समेट कर झाडू लगाने लगती है।
रमा काकी सुन्दर सलीकेदार कामवाली को देखकर थोड़ा हँसते हुए अचानक बोलती है अरे सुनिता इतने सलीके से साड़ी पहनना किससे सीखा तुमने ..
सुनिता तापक से बोली माँ की तस्वीर की ओर इशारा करते हुए अरे ..काकी जी इन्हीं माता जी की साड़ी है यह भी और इनको देख देखकर की सीखी थी कॉटन साड़ी पहनना वर्ना हम काम वाले तो सिंथेटिक ही पहनती ।
सबके मुँह खुले रहे थे। सभी की आँखों में खुशी के आँसू बह उठे थे।
तभी एक कुत्ते का पिल्ला कूं कूं करता दरवाज़े से सटकर खड़ा हो गया। जिसे सुनिता कामवाली अपनी झाड़ू से दूर भगाने लगती है ।
याद आया चार साल पहले घर के बाहर चौकीदार की तरह हरदम बैठा रहता था सातवीं मंजिल के शर्मा जी का काला भूरा कुत्ता जिसे वो टाइगर कहते थे। मोहल्ले के सभी बच्चे भी टाइगर कहने लगे थे। सारा दिन वो सातवीं मंजिल से रास्ते पर आने जाने वालों को देखकर भौंकता रहता और फिर शक होने या किसी नापसंद को देख इतना भौंकता की पडौसी सभी परेशान हो जाते । उसे लेह से उनका बेटा लेकर आया था। कहते थे यह जर्मन शेफर्ड प्रजाति है बड़ा मंहगा कुत्ता होता है। मगर शर्मा जी जैसे ही बड़ा ओहदे पर बड़े बंगले में गये अपने बूढे टाइगर कुते को यहीं बांध गये । मौहल्ले का चौकीदार बनाकर । तबसे बिल्डिंग का सच्चा चौकीदार बनाया था टाइगर। बच्चे उसके साथ खेलते सारा दिन घूम-फिर कर वापस किसी के दरवाजे पर आकर बैठ जाता और उस घर से कुछ ना कुछ खाना उसे मिल जाता। यूँ तो माँ को कुत्ते पसंद नही थे पर टाइगर पर थोड़ी से ज्यादा दया दृष्टि रखती थी। जाने कैसे संबंध बन गया था कि जब भी माँ कहीं बाहर जाती तो कालोनी के गेट तक पीछे पीछे आता और फिर जब लौटकर आती तो पूंछ हिलाते हिलाते घर के दरवाजे की चौखट पर आ बैठता । कूं कूं आवाज़ करता बैठता तब तक जब तक माँ उसके लिए रखे बाहर एक प्लास्टिक के कटोरे में खाने के लिए कुछ डाल देती और उसे डॉटते हुए उससे बतिया लेती यह कुछ दो साल चला फर अचानक आँगन में सीताफल के पेड़ के नीचे बैठकर टाइगर सुस्त रहने लगा था और एक सुबह वो इस आँगन मोहल्ले की चौकीदार के साथ दुनिया से ही चला गया। तब माँ ने ही अपनी पुरानी साड़ी के पल्लू से उसका शव ढका था। जब तक कुछ लोगों ने उसकी अन्तिम यात्रा का प्रबंध किया था। तब कोई भी आगे नहीं आया था मगर उस दिन माँ की साड़ी का पल्लू उसके साथ था । आज दरवाज़े पर आया यह पिल्ला भी उसी के बच्चों के बच्चा था।
अपने हाथ में माँ की एक साड़ी की तह बनाते बनाते गिन्नी और खुशबु फफक फफक कर रो पड़ी थी ।
दोनों गले लगकर अपनी मां की साड़ी हाथ में थामें थी माँ के शरीर की महक में समाई थी। माँ तो इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी मगर कपड़े के घागे कढाई प्रकार रंग डिजाइन स्थान सभी पर माँ उतर चुकी थी। पिता जाग चुके थे और बाहर आराम कुर्सी पर जाकर शान्तचित बैठे थे। बग़ल की साइड टैबल पर माँ के हाथ का बना क्रोशिया के टैबल क्लाथ को ठीक करते हुए सहला रहे थे। बेटियों को देखकर बात से इशारा किया बगीचे में पपीते के पेड़ पर फलों का गुच्छा था जो मां की साड़ी के आँचल से बंधा था। कुछ पपीते पक कर गिरने ही वाले थे। नीचे गेन्दें के पौधों में बड़े -बड़े नारंगी रंग के फूल
गिन्नी और खुशबु अपने आँसू पोंछकर खड़ी हो जाती हैं। दोनों के चेहरे पर खुशी की लकीर उभर कर आजाती है। पिता के गले में दोनों हाथ डालकर कहती है माँ कहीं नहीं गई पापा माँ यहीं हैं।
घर के किचिन में पोछा साड़ी से, बर्तन पोछने के लिए भी ,घर की डस्टिंग के लिए भी बाथरूम की छोटी सी खिड़की पर परदा भी ,अलमारी के उपर बिछा कपड़ा भी ,पुराने सन्दूकों पर भी ढका , कार और स्कूटर की धूल पोछने के लिए भी साड़ी के कपड़े , सब्जी, राशन का थैला भी खुलासामान ढांकने भी और जमीन पर बिछी दरी भी सब जगह माँ थी। माँ मौजूद है पड़ोसी कामवालों सब्ज़ी वालों, पंडित, साधू, पालतू जानवरों, दुकानदारों, पेड़ पौधों में सभी के रिश्तों में ।
तभी हाथ में गुड़िया उठाये गिन्नी की बेटी कुहू उसके पास आती है मम्मा मेरी गुड़िया के लिए भी चाहिए नानी की साड़ी…
अच्छी रचना, माँ कैसे समायी रहती है घर के हर कोनों में.. बहुत खूब