वह मार्च की एक उदास शाम थी।  स्टेशन के बाहर गुलमोहर  के पीले सूखे पत्ते पसरे हुए थे, जो हवा के धीमे थपेड़ों से उड़कर इधर-उधर हो रहे थे।  पतझड़ के मौसम में शामें अक्सर बहुत उदास हुआ करती हैं।  पेड़ों से झड़ते पत्ते मानो जीवन की नश्वरता को प्रत्यक्षतः प्रतिपादित करते हुए प्रतीत होते हैं।  
स्टेशन पहुँचने के बाद उन्हीं पत्तों के बीच से होकर रेणू प्लेटफार्म के अन्दर आ चुकी थी।  वह धीमे-धीमे कदमों से प्लेटफार्म के एक किनारे पर स्थित महिला वेटिंग रूम की ओर जा रही थी।   सात बजे की ट्रेन थी और अभी छह ही बजे थे।  ट्रेन के आने में देर थी। 
शहर में उसकी माँ का घर स्टेशन से दूर है और ट्रांसपोर्टेशन की भी बहुत अच्छी सुविधा नहीं है।  इसलिए वहां से थोड़ा समय हाथ में रख कर ही चलना पड़ता है।  लेकिन आज संयोग से तुरंत ही एक खाली ऑटो मिल गया, जिसके कारण रेणू स्टेशन जल्दी पहुँच गयी थी।  
पिताजी की मृत्यु के बाद माँ घर में अकेली ही रह गयी थी।  उनका घर शहर के एक किनारे में था। जब उसके पिताजी ने वह घर बनाया था तब शहर का वह इलाका बसना शुरू ही हुआ था। घर के सामने सड़क के दूसरी ओर एक पीपल का पेड़ था और उसके बाद थोड़ी दूर पर एक बड़ा सा तालाब।  पीपल उनके घर का प्रहरी था।
जब दोपहर की कड़ी धूप आती तो पीपल अपनी छाया घर के आंगन में पसार देता था।  दोपहर के समय सड़क एक दम सुनसान हो जाती थी।  कम आबादी होने के कारण इधर कम ही लोग आते-जाते थे।  सुबह में तो थोड़ी चहल- पहल रहती भी थी पर दोपहर होते होते, जिन्हें काम पर जाना होता वे काम पर चले जाते बाकी अपने  घरों में दुबक जाते।   दूर तक सन्नाटा पसरा रहता ।  यह सूनापन माँ के घर के आँगन में भी उतर आता था।  घर के आँगन में स्थित हरसिंगार की छाया तब छोटी हो जाती।  
माँ कितनी अकेली हो गयी थी।  वह सोचने लगी। आज जब वह घर से निकल रही थी तो माँ उसका हाथ पकड़ कर रोने लगी।  इतनी  लाचार और उदास उसने माँ को कभी नहीं देखा था।  उसकी आखों में अजीब से बेचैनी और बेचारगी झलक रही थी ।  
“एक कमज़ोर और बूढ़ी औरत को अगर घर में अकेले रहना पड़े  तो उदासी स्वाभाविक ही है।  अकेले रहने पर तो पेड़ पौधे भी मुरझा जाते हैं।  उसकी माँ तो एक जीती जागती औरत थी। ” उसने सोचा।  सोचते सोचते वह पुरानी यादों में खो गयी।  
जब वह छोटी थी तो घर की सारी जिम्मेवारियाँ माँ ही उठाती थी।  वह मानसिक रूप से कितनी मजबूत थी!  पिताजी तो अपने काम से अक्सर बाहर ही रहते थे।  बस वे महीने के आखिर में अपनी सारी कमाई माँ के हाथ में रख देते थे और घर बाहर का सारा काम माँ ही किया करती थी।  उसे स्कूल, ट्यूशन छोड़ना और लाना सब वही करती थी।  उस समय तो वह इलाका जहां आज उनका घर है और भी उजाड़ था।  स्कूल बस के आने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था।  
उसे याद है जब एक बार वह बीमार पड़ गयी थी और कोई रिक्शा नहीं मिल रहा था तो माँ उसे अपने गोद में लेकर उस सड़क तक ले गयी थी जहाँ ऑटो रिक्शा मिलता था।  उसके बाद वहां से शहर के नामी अस्पताल में ले गयी थी और उसका इलाज कराया था।  तब उसे डाक्टरों ने तीन दिन तक अस्पताल में भर्ती रखा था।   माँ बहुत मुस्तैदी से अकेले ही अस्पताल में रह कर उसकी देखभाल करती रही थी।  पिताजी तो उसके एक सप्ताह बाद ही आ पाए थे ।  
इस बार माँ बता रही थी कि जब वह बीमार हुई तो तीन दिनों तक बुखार से घर में अकेले तड़पती रही।  कोई उसे डॉक्टर के पास ले जाने वाला नहीं था।   वो तो भला हो दूध वाले भोला का जिसने दया करके एक दिन उसे एक डॉक्टर के यहाँ पहुँचा दिया था।  
यह सब बताते हुए माँ कितनी बेबस और कमजोर दिख रही थी ।  उम्र के इस पड़ाव में अकेले रह जाना एक अभिशाप ही तो है ।  रेणू सोच रही थी।  
रेणू अपने माँ बाप की इकलौती संतान थी।  उसके माता पिता ने कभी दूसरे संतान की चाहत नहीं की।  वे कहते थे कि एक ही बच्चे को अगर अच्छे से पढ़ाया लिखाया जाये तो वे दस के बराबर होते हैं।  रेणू को याद है कि उसकी बड़ी चाची ने जब उसकी माँ को कहा था कि अनुराधा तुम्हें एक बेटा होता तो अच्छा रहता तो कैसे उसकी माँ उनपर झुंझला गयी थी। 
“आज के जमाने में बेटी और बेटा में भी भला कोई अंतर रह गया है।  बेटियां आजकल बेटों से बढ़ कर काम कर रही है।  हम तो अपनी बेटी को बेटे से बढ़कर परवरिश देंगे।“ माँ ने गर्व से कहा था। 
प्लेटफार्म पर कोई ट्रेन आकर रुकी थी, जिसके यात्री गाड़ी से उतर रहे थे।  अचानक प्लेटफार्म पर भीड़ हो गयी थी ।  लाउडस्पीकर पर ट्रेन के आने और उसके गंतव्य के सम्बन्ध में घोषणा हो रही थी।  रेणू ने तय किया कि वेटिंग हॉल में जाने से पूर्व एक कप चाय पी ली जाये और तब फिर आराम से वेटिंग हॉल में कोई पत्रिका पढ़ते हुए समय आसानी से गुजर जायेगा।  यही सोचकर वह एक टी स्टाल पर रुक गयी।  
उसके माँ, पिताजी ने उसे पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।  इंजीनियरिंग और एमबीए  करने के बाद रेणू आज बंगलुरु में एक अच्छे कम्पनी में कार्य कर रही थी।  उसके पति भी वहीँ एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे।  दोनों की मासिक आय भी अच्छी खासी थी।  किसी चीज की कोई कमी नहीं थी।  
अब तक प्लेटफार्म पर भीड़ छंट चुकी थी।  प्लेटफार्म पर आई हुई गाड़ी निकल चुकी थी।  रेणू ने  वेटिंग हॉल की ओर जाने का निश्चय किया।  बगल के बुक स्टाल से उसने एक अंग्रेजी पत्रिका खरीद ली थी।  रेणू धीरे- धीरे वेटिंग हॉल की ओर  बढ़ रही थी पर उसका मन पुनः उड़कर माँ के उदास आंगन की ओर चला गया था ।  
क्या माँ ने चाय पी होगी? वह सोचने लगी ।  माँ बता रही थी कि अब वह एक वक्त ही खाना बनाती है ।  एक बार सुबह कुछ बना लिया उसे ही रात में भी गरम करके खा लेती है।  जितनी बार खाना बनाओ उतनी बार बर्तन धोने का झन्झट।  जबकि उसे याद है कि पहले माँ ताज़ा एवं गर्म खाने की कितनी हिदायतें दिया करती थी।  वह तो फ्रीज़ में रखा खाना भी कभी गर्म करके खाने की पक्षधर नहीं थी।  वह कहती थी कि यह सब आलसियों के काम है।  
इस बार रेणू ने अपनी माँ को ज्यादा ही उदास महसूस किया था।  इस बार वह आई भी तो पूरे एक साल के बाद थी ।  प्राइवेट कम्पनी में वेतन भले ही ज्यादा मिलता हो पर जीने की आजादी ख़तम हो जाती है और अभी तो उसका तरक्की करने का समय है।  अभी तो जितनी  मेहनत करेगी उतनी  ही तरक्की करेगी।   इतनी दूर बंगलुरु से बार बार आना संभव भी तो नहीं था।   जब तक पिताजी थे माँ अक्सर फ़ोन करके भी उसका हाल चाल लेती रहती थी पर अब वह इस बात से भी उदासीन हो गयी थी।  
पहले बगल में मेहरा आंटी रहती थी तो माँ को कुछ सहारा था ।  उससे बोल बतिया लेती थी और एक दूसरे को मदद भी करती रहती थी।  इस बार जब रेणू आयी और उसने मेहरा आंटी के बारे में पूछा तो माँ ने बताया कि उसका बेटा विनीत उसे मुंबई लेकर चला गया है अपने पास।   हालाँकि रेणू ने यह महसूस किया था कि जैसे माँ कह रही हो कि उसका तो बेटा था उसे अपने साथ ले गया ।  
अपने इन्हीं विचारों में डूबी रेणू अचानक से किसी चीज से टकरायी , नीचे देखा तो वह एक आदमी था, जिसके दोनों पैर कटे थे।  वह हाथ फैलाकर उससे भीख मांग रहा था।  वह आदमी बार-बार अपने दोनों पैर दिखा कर उससे कुछ पैसे देने का अनुरोध कर रहा था।  उसके चेहरे पर जो भाव थे, उसे देखकर रेणू चौंक गयी।  उसे लगा वह  मानो गहरे पानी में डूबती जा रही है और सांस नहीं ले पा रही है।  ऐसे ही भाव तो उसकी माँ के चेहरे पर भी थे जब वह अपनी माँ से विदा ले रही थी।   उसे लगा वह चक्कर खाकर गिर जाएगी।  वह बगल में ही पड़ी एक बेंच पर धम्म से बैठ गयी।  वह आदमी  अब भी उसके पैरों के पास उसे आशा भरी नज़रों से देख रहा था।   उसे उस आदमी की आँखों में अपनी माँ की आँखें दिखाई दे रही थी ।  उफ्फ ऐसी बेचारगी भरी ऑंखें।  ऐसी ही आँखें । । । । । ।  बिलकुल ऐसी ही आँखें तो थी उसकी माँ की जब वह घर से स्टेशन के लिए निकल रही थी।  
वृद्धावस्था में पति या पत्नी के नहीं रह जाने पर व्यक्ति कितना अकेला हो जाता है।  रेणू अपने बुढापे की कल्पना करके काँप गयी।  कल उसे भी तो वृद्ध होना है।  समय के  क्रूर पहिये ने किसे छोड़ा है।  
रेणू ने अपनी आँखे बंद कर ली और वहीँ बैठी रही ।  सात बज गए थे।  बंगलुरु जाने वाली ट्रेन का जोर जोर से अनाउंसमेंट हो रहा था ।  ट्रेन निकल जाने के बाद प्लेटफार्म पर शांति छा गयी और रेणू के मन में भी।   रेणू थोड़ी देर वहीँ बैठी रही ।   उसने मन ही मन एक निश्चय कर लिया था।  उसने बंगलुरु में अपने पति से बात की एवं आश्वस्त हो गयी।  
 अब उसका मन बहुत हल्का लग रहा था।   ऑटो में बैठे हुए उसके मोबाइल में मेसेज प्राप्त होने का रिंग टोन बजा ।  उसने देखा कि बंगलुरु जाने वाली अगले दिन की ट्रेन में दो लोगों के टिकट कन्फर्म हो गए हैं।   उसने अपने पति को एक थैंक्स का मेसेज भेज दिया ।  उसके पति ने उधर से एक थम्बस अप का ।  
“माँ आज क्या खाना बना रही हो ? बहुत जोरो की भूख लगी है। ” माँ ने जैसे ही दरवाजा खोला रेणू ने माँ से कहा।  
“अरे! गयी नहीं तुम? क्या हुआ, तबियत तो ठीक है? ट्रेन तो नहीं छूट गयी?” माँ  के स्वर में बेटी की खैरियत के लिए स्वाभाविक उद्विग्नता थी ।  
“हाँ माँ सब ठीक है। ” रेणू सोफे पर बैठ गयी एवं माँ को भी खिंच कर वहीँ बिठा लिया एवं उसके गोद में अपना सर रख दिया।  
ऐसी शांति और ऐसा सुख, माँ की गोद के अलावे कहाँ मिल सकता है!  रेणू सोच रही थी ।  
उसके  गाल पर दो गर्म बूंदे गिर पड़ी।  यह शायद माँ की ख़ुशी के आंसू थे।  अगले दिन बंगलुरु जाने वाली ट्रेन में दो औरतें सवार हुई थी।   

2 टिप्पणी

  1. अच्छी कहानी, आज भी लड़कियाँ जो भी कर लें, बेटे की जगह नहीं ले सकतीं, शादी के बाद पति की सहमति ज़रूरी होती है। सुखांत कहानी आशा जगाती है… विश्वास अभी बाकी है

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