Tuesday, October 8, 2024
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प्रबोध कुमार गोविल की कहानी – प्रेम कहानी

ये कहानी जयपुर की है।
– कहां की?
– जयपुर की। किशनपोल बाज़ार की। रास्ते का नाम भी बताऊं? खूंटेंटों का…
– अरे अरे आप तो नाराज़ हो गए। मेरा तो बस इतना निवेदन था कि कहानी सच्ची हो तो अच्छा है। वो क्या है ना, कि पाठक पसंद करते हैं सच्ची बात।
– झूठ मत बोलो। कोई नहीं पसंद करता। पढ़ता ही कौन है आजकल?
– अरे आप तो फिर गुस्सा हो गए…
– नहीं- नहीं गुस्सा क्यों होऊंगा? गुस्सा तो गुरुजी हो गए थे।
– गुरुजी? कौन गुरुजी? किसके…
– जानना चाहते हो तो सुनो – मैं अपने कमरे में था और कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद ही करने जा रहा था कि किवाड़ पर “खट – खट” की आवाज़ हुई। ऐसा लगा जैसे कोई दस्तक दे रहा हो। मैंने बेमन से दरवाज़ा खोला और किवाड़ के दोनों पल्लों के बीच ख़ुद को फंसाए हुए खड़े- खड़े पूछा- क्या काम है?
पर तभी मुझे अपनी ज़बान को लगाम देनी पड़ी क्योंकि सामने गुरूजी खड़े थे। सकपका कर कहा – नमस्ते गुरुजी।
गुरूजी एक पल को ठिठके। शायद दरवाज़े से मेरे हट कर उन्हें भीतर आमंत्रित करने की प्रतीक्षा करते रहे। किंतु मुझे दरवाज़े से हटता न पा कर वहीं खड़े- खड़े बोले – बेटा तुम्हें अभी मेरे साथ चलना है, झटपट तैयार हो जाओ।
– कहां? मैंने लगभग रूआंसा होते हुए कहा।
– राशन कार्ड के दफ़्तर में! वो रौब से बोले।
उन्होंने उसी बुलंद आवाज़ और दबंगई की अपनी शैली में मुझे बताया कि उन्होंने अपने राशन कार्ड में अपनी पत्नी और ख़ुद के अलावा एक एक्स्ट्रा नाम और जुड़वा दिया है। अब लड़का तो यहां रहता नहीं है तो उसका नाम जुड़वाने के लिए मुझे अपना बेटा बना कर वहां ले जाना चाहते हैं।
– पर ये तो फर्जी नाम जुड़वाना हुआ न! मैं कैसे…
ये सुनते ही गुरूजी पैर पटकते हुए क्रोधित दुर्वासा ऋषि की भांति पलट कर चले गए। जाते- जाते मुझे ऊंची आवाज़ में सुना गए – अच्छा बेटा, हमने तुम्हें पढ़ा लिखा कर आदमी बनाया और आज तुम हमारे ही गुरू बन गए। देख लेंगे…
और कोई समय होता तो मैं गुरुजी के पांव पकड़ कर फ़ौरन उन्हें मना लेता और उनके साथ उनका नकली बेटा बन कर चल देता। पर इस समय तो मुझे ऐसा ही लगा कि चलो जान छूटी। गए तो गए।
मैं फिर से दरवाज़े को भेड़ कर भीतर से कुंडी लगाने लगा। लेकिन अभी मैंने कुंडी को हाथ लगाया ही था कि सांकल फिर बजी।
– ओहो, कौन है अब, सोचते हुए मैंने किवाड़ के पीछे से झांका।
– बेटा, ज़रा नीचे से दौड़ कर एक किलो शक्कर तो ला दे, चाय के लिए भी नहीं है। बुआजी चाय का इंतज़ार…
– अभी कैसे जा सकता हूं मां। बुआजी कहीं नहीं जाने वाली शाम तक, बना देना चाय बाद में। मैंने झुंझला कर कहा।
अनमनी सी मां चली गई। ये मां भी ना, अब तक मुझे बारह साल का बच्चा ही समझती है। कभी भी, किसी भी काम के लिए दौड़ा दो बस।
मैंने दरवाज़ा धड़ाक से ऐसे बंद किया कि किवाड़ में अंगुली आती- आती बची।
लेकिन नहीं, ये मेरी गलतफहमी ही थी कि मैंने दरवाज़ा बंद कर लिया है। दरवाज़ा फ़िर खुल गया। बिल्कुल मेरे मुंह पर।
इस बार रोहन था। आते ही ज़ोर से हंसा। ऐसे, जैसे उसे कोई गुदगुदा रहा हो।
– अबे पागल हो गया क्या? बिना बात दांत फाड़ रहा है। मैंने कहा।
वह उसी तरह पेट पकड़े हंसता रहा और बोलते- बोलते दोहरा हो गया। मैंने उसका हाथ पकड़ कर झिंझोड़ा तब जाकर उसकी आवाज़ सुनाई दी, बोला – बड़ी मुश्किल से मिले जाकर यार।
मैंने कहा – कौन मिले, कहां मिले? और आसानी से क्यों मिलते? कुछ बता तो सही।
वह कुछ हैरान सा होता हुआ बोला – ऑफ़ है क्या तू?
– मैं क्यों ऑफ़ होने लगा। पर आदमियों की तरह कुछ बता तो सही कि क्या बात है? किससे मिलने गया था?
वह हंसी रोकते हुए एकाएक गंभीर हो गया। बोला – तू शायद भूल गया, तूने कहा था न रविवार को पिक्चर देखने चलेंगे। उसी के टिकिट तो लाया हूं। हाउसफुल था। बड़ी मुश्किल से मिले। चल फटाफट तैयार हो जा।
उसने उत्साहित होते हुए कहा। काफ़ी जोश में था वो।
मैं तो ये बिलकुल भूल ही चुका था कि मैंने ऐसा कुछ उसे कहा था। कहा भी हो तो कम से कम इस समय तो मैं फ़िल्म देखने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था।
मैंने दरवाज़े पर खड़े- खड़े ही कहा – नहीं यार, आज नहीं!
– अबे आज नहीं का क्या मतलब? मैं मुश्किल से धक्के खाकर टिकिट लाया हूं, और तू कह रहा है आज नहीं! जा फटाफट, कपड़े बदल कर आ।
– नहीं, जा यार तू। आर्यन को ले जा।
रोहन ने आंखें तरेरते हुए मेरी ओर देखा और पैर पटकते हुए चला गया। वह बोला तो कुछ नहीं, पर उसके चेहरे की भंगिमा बोल रही थी कि अच्छा, अब कभी कहना फ़िल्म के लिए। चलेगा मेरा ये! कहते हुए वो गैलरी से निकल कर सीढ़ियां उतर गया।
मुझे थोड़ी सी बेचैनी तो हुई पर मैंने किवाड़ को टटोलते हुए अपना वो पैर पीछे खींचा जिसे मैं दरवाज़े में अड़ाए हुए था।
लो, बस अब इसकी कसर ही बाकी थी। धड़धड़ाती हुई मेरी छोटी बहन चली आई, बोली – हटो, रास्ता दो भैया।
– अरे पर क्यों?
उसे मेरे स्वर की ऊंचाई पर हैरानी हुई। बोली – “क्यों” का क्या मतलब? मैं किताब नहीं लूंगी अंदर से? कॉलेज जाना है।
– अरे पर आज कौन सा कॉलेज? रविवार नहीं है क्या आज! मैंने चिल्ला कर कहा।
– जाना है, कोचिंग में।
– ओहो, रुक मैं देता हूं। मैंने वहीं खड़े – खड़े साइड की अलमारी तक हाथ बढ़ा कर उसकी जीके गाइड उठाई और उसे पकड़ाते हुए कहा – संडे को हम भी जाते थे कॉलेज, पर किताब लेके कोई नहीं जाता था।
बहन किताब हाथ में लेकर मेरी ओर घूरती हुई वापस लौट गई।
… मैं वापस दरवाज़े को देख ही रहा था कि कहीं से आवाज़ आई – “पर आप तो प्रेम कहानी कहने वाले थे न”..
– जी, आई एम सॉरी.. बट.. ये प्रेम कहानी ही… दरअसल क्या है कि पिछले महीने हमने प्रेम विवाह ही किया है। लव मैरिज! पर मेरी पत्नी की पोस्टिंग सरकारी नौकरी में दूसरे शहर में है। ये रविवार को ही मुश्किल से आ पाती है। पिछले हफ़्ते तो आ भी नहीं पाई थी। इस बार भी कल इसके यहां कलेक्टर साहिबा का इंस्पेक्शन है तो बोलती है आज ही वापस जायेगी।
– ओह, अच्छा। पर ऐसे में आप क्यों नहीं चले जाते इनके साथ?
– मैं? मैं कैसे जा सकता हूं। ये तो खाना ऑफिस में खा लेती है। मैं जाऊंगा तो इसे बनाना पड़ेगा न। थक जाती है मेरी खर्चना!
– खर्चना?? खर्चना नाम है इनका?
– जी नहीं, नाम तो अर्चना ही है। पर वो क्या है कि जब हम पढ़ते थे न, तो मुझ पर सारा खर्च यही करती थी। इसी से मैं इसे खर्चना कहता हूं।
– ग्रेट! अमर प्रेम है आपका! कहां हैं वो अभी?
– यहीं, कमरे के भीतर…
– अच्छा अच्छा, चलिए तो आप दोनों की एक पिक साथ में ले लें।
– जी। कहते ही अब मुझे दरवाज़ा भी पूरा खोलना पड़ा और कपड़े बदलने के लिए हम दोनों को उठना भी पड़ा।
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