रघुआ को ये बातें उसके पिता जागू टाना भगत ने सुनाई थीं। जब से रघु के पिता जागू टाना भगत ने गाँधी बाबा के रामगढ़ में आने की खबर सुनी थी, तभी से पगलाए-से घूमते थे। उसने जिद ठान ली कि वह उस महाधिवेशन में भाग लेकर रहेंगे। जब गाँधी बाबा से मिले थे, उनका भाषण सुना था, भक्ति की ऐसी लहर उठी कि उनके सपनों को साकार करने का संकल्प ले बैठे।
उनके जैसी वेशभूषा तो पहले ही धारण कर ली थी। एक धोती, खाली पैर और एक लाठी। एक चीज अतिरिक्त गाँधी टोपी। खद्दर की झक सफेद टोपी।
उसके पिता की स्थाई वेशभूषा यही हो गई थी। गाँधी जी से प्रेरित अन्य टाना भगतों की तरह उन्होंने उनके आदर्श पर चलने का दृढ़-संकल्प ले लिया था। उन्होंने सदा खादी धारण करने के प्रण को ताउम्र निभाया।
सोराज के लिए शांतिप्रिय ढंग से लड़नेवाले इन अहिंसक टाना भगतों के बाद उसके पिता का नाम भी बड़े इज्जत से लिया जाता था। उसके सपनों का स्वाधीन भारत उसमें एक उमंग जगाता था। वह भी अन्य भगतों के साथ चौगुने उत्साह से असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने लगता।
    ‘अहिंसा परमो धरम!’ पर उसका विश्वास और बढ़ गया।
   ‘‘मैं पहले भटक गया था। हिंसा की राह पर चलना चाहता था। अंगरेज लोग से बहुत नफरत। इतना कि काट डालना चाहता था एक-एक को।’’
  ‘‘छोटा था, तो क्या हुआ। जतरा टाना भगत की बात भी भूल जाना चाहता था।’’ रघुआ का पिता जागू कभी-कभी कहता।
  ‘‘लेकिन बापू से मिलने के बाद…खुद अपनी आँख से उन्हें देखा। अपने कान से उनकी बात सुनी। फिर तो…’’
  ‘‘अहिंसा परमो धरम!’’
जागू भगत खूब मौज में रहने पर हाथ नचाते हुए यह सब सुनाता। बापू की बात कहते हुए उस जागू की आँखों से आँसू बहने लगते। भावुकता हावी हो जाती। कैसे साबरमती के उस सामान्य व्यक्ति ने पूरे देश को एक सूत्र में बाँधा था, यह किशोर-युवाओं को बताते हुए जागू अक्सर उनकी अकाल मृत्यु को यादकर रो पड़ता।
   ‘‘अहिंसा कर पुजारी का हतया! वह भी सोराज मिलने पर?’’
वह घंटों चिंतन-मनन में उलझा रहता। गाँधी का युग उसने देखा था। उनके किस्सों से वह पूर्णत: परिचित था। उन किस्सों की वादी में विचरते हुए उसका मन कभी नहीं भरा।
   ‘‘करो या मरो!’’ गाँधी जी द्वारा दिए गए नारे की लहर के बारे में भी रघुआ सहित अन्य बच्चों को बताता रहता। यह भी कि कैसे सारे टाना भगत पहले ही गाँधीवादी हो चुके थे।
बापू के किस्से के साथ-साथ जतरा टाना भगत के किस्से की धारा भी बहने लगती।
   जतरा उराँव का कायाकल्प
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   ‘‘जतरा को ओझाई का काम करना अच्छा नहीं लगता था। जानता है, जतरा भगत टाना भगत कइसे कहलाया था?’’
   ‘‘कइसे बाबा?’’
   अक्सर जागू भगत उसे घेरकर बैठे, किस्से के रस में पूरी तरह से डूब-चुभ करते किशोरों-बच्चों से पूछता। सब न में सर हिलाते तो उसकी बातों की पिटारी खुल जाती। वह अपने घर से खटिया मँगवाकर उस पर जम जाता। सारे लोग पास खिसक आते। कान आत्मा बन जाती।
   ‘‘हमको जतरा उराँव के बारे में बताओ।’’
   ‘‘उराँव लोग का वह सपूत था तो पतला-दुबला, छोटा। लेकिन इरादा फौलादी। जतरा भगत ने सबको नई राह दिखाई थी। अहिंसा की राह। गान्ही बाबा से मिलने के पहले से ही हिंसा से कितना कोस दूर थे टाना भगत।’’
   ‘‘जतरा को बचपन से ही एकांत पसंद था। उसका मन बस देवता-पितर की बात में रमा रहता था। वह देवता का अदमीन था।’’
   ‘‘पर बहुत जल्दी सहीद हो गया। जनम लिया 1888 में और 1916 में जेहल मिला। दो साल जेहल काटकर निकलने के बाइद दो ही महीरा में खतम!’’
   ‘‘कहाँ जनम हुआ था? उसका माय-बाबा?’’ रघु अपने बाबा से पूछ बैठता।
   ‘‘गुमला के विशुनपुर के चिंगरी गाँव में। उसके बाबा का नाम कोडल था। आउर लिबरी उसकी माय।’’
   ‘‘गाँववालों के कहने पर तंत्र-मंत्र सीखने के लिए जतरा को छुटपन में ही हेसराग भेज दिया गया। मंत्र बिदिया आउर झाड़-फूँक सीखकर वह भगत बन गया, जतरा भगत।’’
   ‘‘पूरे इलाके में उसका बराबरी कोय नय कर पाता। ओझाई में वह पारंगत होता गया। वह झाड़-फूँक करने में इतना माहिर कि सब उसका मुँह जोहते। उसके पास दौड़े चले आते। धीरे-धीरे वह जड़ी-बूटी से इलाज करने में भी माहिर!’’
   जागू बताता रहता। सब हुँकारी भरते रहते।
   ‘‘पइर जतरा को भूइत भगाने के काम में एकदम मन नहीं लगता था। भूइत के नाम पर मुर्गा को बलि देने का काम उके नहीं भाता था। वह कहता, मुर्गा के लालच में भूइत और जोर से आपन शिकार को पकड़ेगा। भूत को मुर्गा-पानी देना बंद करो।’’
   ‘‘फिर?’’ नए-नवेले पूछ बैठते।
   ‘‘एक बेर उसके दिमाग में घुस गया कि भूत से डरने के बदले भूते को डरा दे। ऊ भूइते को टानने (खींचने) की बात करने लगा।’’
   ‘‘भूत डरा?’’
   ‘‘हाँ डरा।’’
   ‘‘कइसे?’’
   ‘‘ऊ एक साथ सब आदमी को लाईन से एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़ा कर देता था। फिर ढोल-नगाड़ा, माँदर, बरतन बजाकर भूत को टानते हुए गाँव से खदेड़कर दम लेता था।’’
   जागू सबको बताता तो सब उसकी समझदारी की चर्चा में लीन हो जाते।
   ‘‘भूत टानते-टानते जतरा उराँव टाना भगत कहलाने लगा। टाना भगत कह सब उसकी पूजा करते नहीं अघाते।’’
रघु का पिता सबको सच्चाई बताता। सब सुनते दम साधकर। किस्से का रस बढ़ जाता।
   ‘‘पहले उराँव दकखिन के जंगल में रहते थे। द्रविड़ सब पहले काफी विकसित था। कुड़ुख भाषा द्रविड़ से ही सीखा सब उराँव लोग। फिर विंघ्याचल में जो पहाड़ी सब है, उसको पार कर शाहाबाद में उसका पुरखा लोग आकर बस
गया।’’
   ‘‘कुडुष देश में?’’ ऊँघनेवाले भी जग जाते।
   ‘‘हाँ, टोली का मुखिया था-करष। वही वहाँ बसने का सबको सलाह दिया।
   तभी उस देस का नाम पड़ गया कुडुष।’’
   ‘‘सब इधर आने पर आर्य लोग का कुछ-कुछ नियम-कानून सीख लिया।…आर्य लोग के साथ रहते हुए उराँव भी उन्हीं के जैसा माथे पर चंदन का टीका लगाता। जनेऊ पहनता।’’
   बच्चे हाथों पर गाल धरे चौंकते हुए समझने की कोशिश करते।
   ‘‘लेकिन छोटानागपुर आने पर धीरे-धीरे उसका गौरब खतम होता गया। उनका मान-सम्मान भी घटता गया। जतरा सबको उनके अतीत के बारे बताकर फिर से पूरा ताकतबर बनने के लिए सिखाता।’’
   ‘‘फिन?’’ उसको घेर कर बैठे लोग पूरी बात जानने के लिए उस पर दबाव बनाते।
   ‘‘जतरा के मरने के बाद भी आंदोलन कमजोर कहाँ पड़ा? उसके चेला लोग उसके आंदोलन को कितना दिन चलाया। ऊ जेल गया था तो देवमुनिया जइसनजनी सब संभाल ली थी। केतना दिइन देवमुनिया काम करती रही। जनी थी तो
का हुआ। थी जबरजंग!’’
   जागू का चेहरा गर्व से दिपदिपाने लगता। काले चेहरे की चमक देखते बनती। कहनी और धार पकड़ती।
   ‘‘लगभग दो लाख, साठ हजार टाना भगत ई लड़ाई में लगा रहा।’’
   ‘‘सबसे लंबा लड़ाई हाम टाना भगत लोग ही लड़े थे।’’
००००
   ‘‘गान्ही बाबा से मिलने के बाइद सब टाना भगत लोग ऐसा उनका भगत बना कि जब-जब गान्ही बाबा इधर आए, सब लोग सभा में जरूर जुटता था।’’ कहते नहीं थकता वह।
   ‘‘कम लोग जेल गए थे? केतना दरद। केतना जोर-जुलुम। केतना मारपीट। पर जतरा आउर गान्ही बाबा का चेला सब उफ् तक नहीं किया था।’’
   आगे भी जोड़ता, ‘’ 1942 में टाना भगत लोग रिंचि बुरू ( राँची पहाड़ी ) पर झंडा फहरा दिया था। अब तक ऊ मंदिर में 15 अगस्त आउर 26 जनवरी को झण्डा फहराया जाता है।’’
   रघुआ भी अपने पिता जागू और सब टाना भगतों की तरह केवल खादी की धोती-कुर्ता पहनता है। सर पर गाँधी टोपी धारण करता है। वह भी अपने साथियों के साथ बापू के पदचिन्हों पर चलने का प्रण अब तक निभाए जा रहा है। रघु छुटपन में अक्सर सोचता, गान्ही बाबा ने कभी टोपी नहीं पहनी, फिर इसे गाँधी टोपी ही काहे कहते हैं?
   ‘‘देश-दुनिया कहाँ चला गया। पर टाना भगत अपने उसी लीक पर अब तक चल रहे हैं। इसका संतोष है हमको। माँस-मदिरा को हम हाथ भी नहीं लगाते हैं।’’
अपने पिता के गुजरने के बाद से रघु भी सबको पुराना किस्सा बताकर इतिहास से जोड़े रखने की कोशिश हमेशा करता रहा। वह जब-जब एकांत में बिस्तर में लेटता, उसे जतरा की जि़ंंदगी पुकारने लगती। जतरा टाना भगत को 1916 में ही अंग्रेजों ने पकड़कर जेल में इतना सताया, इतना सताया कि छोटी उमिर में ही वह मर गया। कोई उमर थी मरने की। जेल से बाहर आने पर दो महीना, बस्स!
रघु टाना भगत की आँखें छलछला आईं। जतरा का जीवन मूर्तिमान हो उठा। पुरखों के प्रति मन श्रद्धा से भर गया। पहले जमींदार, फिर ठेकेदार, फिर अंग्रेज। किस-किस का जुलुम सहते रहे उराँव।
जतरा भगत बनने के बाद पुरखैती विधि से भूत भगाने की प्रणाली छोड़ नई विधि अपनाने के कारण लोगों का दिल जीत ही चुका था। उसके एक इशारे की देर थी। उसके कहने पर हजारों उराँवों ने क्रूर जमींदारों को लगान देना बंद कर दिया। ना अपने बैल-हल देते। ” क्यों दें ?” ऊ सबका दर्द समझता था। जतरा के धार्मिक आंदोलन के साथ सामाजिक-राजनैतिक अहिंसात्मक आंदोलन ने भी लोगों को प्रेरित किया।
जब-तब रघु के सामने उसकी आवाज गूँजने लगती है,
   ‘‘जमीन हमारी, मेहनत हमारा, फसल को तैयार करने में हम सब अपना रात-दिन लगा दें और फसल जमींदार ले जाए, यह अनियाय है। जुलुम है।’’
   ‘‘हमारा बच्चा भूख से बिलबिलाए और जमींदार हमारे सवांग पर राज करे। अब हम किसी जमींदार के लिए काम नहीं करेंगे।’’
   ‘‘जमींदार हमारा खेइत हड़प कर हमीं से मजूरी कराता है। हमारे हिस्से का फसल भी अपने भंडार में दबा लेता है। आदिवासियों को सीधा बनने से काम नहीं चलेगा।’’
   ‘‘अब हम अपना मेहनत बेचकर भूखों नहीं मरेंगे। हम बस अपने खेत में काम कर आपस में बाँट-बूँटकर खा लेंगे।’’
   ‘‘लेकिन हम कोई हड़वे-हथियार से नहीं लड़ेंगे। सब विरोध सांति से होगा। हिंसा से कुछ बात नहीं बनता है।’’
   ‘‘डोको टोली में एक सरकारी भवन बन रहा है। कोई उराँव उसमें नहीं खटेंगे, बस!’’
जतरा की बात पत्थर की लकीर। किसी ने सरकारी भवन की ओर रुख नहीं किया। अंग्रेज को पहले ही लगान नहीं मिल पा रहा था। अब सरकारी काम भी रुक गया था।
   ‘‘जतरा भगत न कभी खुद हथियार उठाया, और ना ही भक्तों को कभी उठाने दिया। लेकिन जमींदार और अंगरेज सबको नचाकर रख दिया था।’’
   ‘‘माँस-मदिरा में कोय नय डूबेगा, समझा?’’
जतरा की गूँजती आवाज जैसे रघुआ के कानों से होते हुए जबान में उतर आती है जब-तब।
रघुआ ने दूसरी आजादी का स्वप्न देखा था। देश की हालत उसे बहुत तकलीफ़ देती है। पतला-दुबला, दरमियाने कद का गौरवर्णी रघुआ, अपने साथियों की बदहाली से परेशान है। कहाँ उसने सब देशवासियों की खुशहाली की
कामना की थी, कहाँ?… कब तक?
   ‘‘हम टाना भगतों को अइब हर कीमत पर तब की हमारी छिनी गई जमीन वापस चाहिए।’’
वह कई बेर सरकार के नुमाईंदों से मिल चुका है। कई बेर आश्वासनों की कश्ती पर सवार हो चहकते हुए घर पहुँचा है। साथ में गए साथियों की चहक भी उसकी चहक में शामिल रहती। अब काम नहीं बनता देख, उनलोगों ने भारी आंदोलन का मन बना लिया है। उँगली टेढ़ी करने का समय आ गया है। फिर से भेरी बजाने का समय।
वह दिनभर पिलान बनाने में लगा रहने लगा। कभी पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर, कभी कुएँ की जगत पर। कभी खेत के मेड़ों पर, कभी घर के बाहर रखे पटरे पर। कभी नीम, आम की छाँव तले उनकी जड़ों पर।
उसे एक और जतरा बनने का कोई शौक नहीं। पर वह टाना भगतों को हक दिलाने के लिए कृत-संकल्पित है। अब इसके लिए जो भी कुर्बानी देनी पड़े, वह तैयार है। नहीं तो एक और अहिंसक आंदोलन!
०००००
शहीद जतरा भगत के गाँव के रहवासी रघु टाना भगत के उस नए बसेरे के कच्चे-पक्के मकान में एक अँधियारी रात को कुछ फुसफुसाहटें जवान हो रहीं थीं।
उधर जागू की बूढ़ी लाठी एक कोने से रघुआ को ताके जा रही थी। वह उधर नहीं देख रहा था। फिर भी अपने बाबा को महसूस कर रहा था। फुफुसाहटों ने उसके कान भरने शुरु कर दिए-
   ‘‘सरकार की नीति और नीयत देख लिया न। अब?’’
   ‘‘अब?’’
एक कद्दावर प्रश्न! पर इस ‘अब’ से कब डरा रघु।
उसने फिर इंकार में सर हिलाया।
   ‘‘नहीं, अभी भी नहीं।’’ रघु के स्वर में कठोर दृढ़ता। हमेशा की तरह।
   ‘‘हम जतरा भगत और गाँधी बाबा के सच्चे चेले हैं। हमारा इरादा बदल नहीं सकता। हम अहिंसा का रस्ता नय छोड़ सकते हैं।’’
  ‘‘सोच लो रघुआ, कमांडर ने खुद परसताव भेजा है। फायदे का सौदा है। जो आदर-सम्मान, तुम सब टाना भगतों को मिलना चाहिए था, जरा भी मिला?’’
   ‘‘मइत मिलने दो। हम एक और अहिंसात्मक आंदोलन चलाएँगे। हम जतरा और बापू की राह पर चलना नय छोड़ेंगे। अपने आजा-बाबा का सपना नय तोड़ेंगे हाम।’’
   ‘‘थू! थू है तुम्हारी मर्दांनगी पर। अंग्रेजों के जमाने से अब तक वहीफाकामस्ती। जब्त की गई जमीन अब तक वापस नहीं मिली। इतने साल कम हैं? और किस आजादी का इंतजार है?’’
   उस फुसफुसाहट में जान आई।
   ‘‘सोच लो फिर से। कमांडर टाइम देने को तैयार हैं। तुम और तुम्हारे सारे साथी मिल जाएँ तो…।’’
रघु के एक इशारे की देर है। कमांडर के साथ कितने सर चल पड़ेंगे, उसे भी उसका एहसास है।
   ‘‘उस समय हथियार नहीं उठाया, अब क्या उठाएँगे। टाना के दो लाख साठ हजार भक्त अंगरेज के विरूद्ध हड़वे-हथियार उठा लेते, तो क्या नहीं कर सकते थे। जाओ, हमें और नहीं बरगलाओ। हम दोनों का रस्ता अलग है।’’
रघु के इंकार में हठ छिपा था। उसने एक निगाह नकाबपोशों पर डाली और मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया।
   फुसफुसाहट ने जोरदार धमकी दी और कंधे पर बंदूक थामे कच्ची मिट्टी पर चलता हुआ घर से बाहर। अँधेरे में कई रेंगते सायों ने उसका अनुसरण किया।
   हर तरफ एक ख़ामोशी थी। रघु के मन में भी देर तक ख़ामोशी रही। रात के क्षण-क्षण में खामोशी घुलती रही। फिर भिनसरे की ख़ामोश किरण फूटी। लेकिन रघु के मुँह से बकार न फूटा।
   एक तरफ लहलहाती धरती, एक तरफ दरार पड़ी जमीन। भूखों मरने की नौबत। उसका मन डाँवाडोल! आजादी मिले साठ बरस से भी ज्यादा हो गया। अब तक ब्रिटिश सरकार द्वारा नीलाम कर दी गई जमीन उन्हें वापस नहीं मिली है।
   कब बापू के सच्चे चेलों को उनका हक मिलेगा?
उसने उजली धोती-कुर्ते की धुँधली होती चमक को देखते हुए सोचा। धूसर रंग में बदलती जाती जिंदगी की तरह कुर्ता-धोती भी धूसर हो चली थी। गाँधी टोपी की चमक भी धुँधलाने लगी थी। हर दिन माथे पर सजते चंदन के टीके की चमक भी फीकी हो चली थी। जनेऊ अलग बेजाऱ! वह उठकर बाहर आया। एक अज़ीब उदास दिन। उसके बालों में कब की सफेदी आ गई थी। भवों, मूँछों में भी। चेहरे पर झुर्रियों का आक्रमण!
   फुसफुसाहटें देर तक उसके मन-आँगन में लोटतीं रहीं।
रघु का मन…मन तो मन ही है।
   एक बेर कहे- ‘‘ चल दे ई टाना भगत का चोला त्याग कर उनके साथ।’’
   दूसर मन कहे ‘‘ जीते जी ई काम कभी नय होगा। चाहे जितना तपना पड़े, तपेंगे हम। लेकिन जतरा टाना भगत का बलिदान व्यर्थ न जाने देंगे।’’
   उराँव लोक कथा के अनुसार तो ‘ लनडिर गे मनडी कमियर गे अमडी!’
   अर्थात आलसी के लिए भरपेट भात आउर मेहनती के लिए केवल माँड़।
   ‘‘हमारी मेहनत को कोय काहे नय समझता है। जो लोग मुफ्ती में कुर्सी चइढक़र बैइठ गया, वो तो माल उड़ाए जा रहा है।’’ वह सोचता जियादा है, कहता कम है।
ई तो वही बड़ा आउर छोटा भाई का किस्सा हो गया। बड़ा भाई पेड़ पर चढक़र मेहनत से लकड़ी काटे, आउर छोटा केवल गट्ठर बाँधकर आपन माय के सामने लाकर माय का दिल जीत ले। भरपेट भात खा ले। बड़ा भाय जंगल से लौटकर आए तो हिस्से में केवल माँड़!
संतोखी बड़ा भाय वही पीकर संतोख कर ले। यही तो हो रहा है। ‘ लनडिर गे मनडी कमियर गे अमडी!’
रघु का मन डगमग-डगमग! फिर उसने मन के अश्व को संकल्प के लगाम से साधा। बड़ी कठिनाई से। पर अंतत: वह सध तो गया। माय अक्सर इस खिस्से को सुनाती थी।
सवेरे उठ कर सब टाना भगतों के साथ रोज की तरह तिरंगे की पूजा करते समय उसने अपने मन में आई गंदगी के लिए भी क्षमा माँगी। वह इतना कमजोर कैसे पड़ गया, खुद उसे आश्चर्य है।
तब कितने दिन भूखे सोए थे उराँव। लेकिन जतरा के एक इशारे पर सबने हाथ रोक लिया था, वे आदमी नय थे का। संतोख का फल अच्छा होता है।
रघु के कानों में जतरा की आवाज गूँजने लगी- ‘‘हिंसा नय करना है। लेकिन जमीन हमारी, मेहनत हमारी, फसल हम तैयार करें और उसे जमींदार उठा ले जाएँ यह अन्याय है, अत्याचार है।… वे बिना मेहनत के ऐशो-आराम करें और
हमारे बच्चे भूख से तड़पें।… अब से उराँव लोग किसी जमींदार के घर के लिए काम नहीं करेंगे।’’
   ‘‘पत्थर की लकीर मान चल पड़ा था सब उसकी बात पर। बीर-बुरू, पठार-टुँगरी, दोन-टाँड़ सब जैसे उसका साथ देता रहा।… फिर हम?’’
रघुआ पछताने लगा- ‘‘मेरे मन में यह ख्याल आया कैसे?’’
जतरा ने कहा था- ‘‘ जब तक उराँव अपना मेहनत बेचते रहेंगे, तब तक वे भूखों मरते रहेंगे।’’
उराँवों ने श्रम बेचना बंद कर दिया। जमींदारों के अन्न भंडार उपासे रहने लगे। अंग्रेजों को भी भारी लगान से वंचित रहना पड़ा। दमन का चक्का चल पड़ा। फिर भी टाना भगत के अनुयायियों ने भूख की मार सहकर भी जतरा का कहा माना।… बिना किसी हथियार के। उनके सामने हिंसक गोरे पस्त हो गए थे।
ऐसे में रघु कैसे गलत काम करे। केवल अपने छोटे-छोटे खेतों में खटकर कम अनाज उपजाकर तब के लोग मिल-बाँट कर गुजर-बसर कर सकते हैं, तो अब क्यों नहीं। वह भटक कैसे सकता है! उसने अपने-आपको भरपूर कोसा।
सामने खूँटी पर टँगी टोपी को उठाकर पहन ली और आईने के सामने खड़ा हो गया। हमको किसी भी कीमत पर हार नय मानना है। न डर से, न अभाव से, न लालच से। हमें भी सही रणनीति बनानी होगी।
००००
अँधेरे में जब-तब साए रेंग आते। दो-तीन मीटिंग और। धमकी, लालच या कोई चारा काम नहीं आ रहा था। रघु अपनी जान को हथेली पर लेकर चलता।
कभी भी उसका सर छह ईंच कम किया जा सकता था। हाथ-पैर काटकर जंगल के अँधेरे में फेंक दिया जा सकता था वह।
   ‘ उस बखत जतरा भगत का सर भी तो कभी भी कलम किया जा सकता था। अकेले जतरा की नीति अंग्रेजों, जमींदारों को पानी पिला सकती है तो अपने गाँव के टाना भगतों के हक की लिए लड़ाई में क्यों हम शामिल नहीं रह सकते। कब से जीवन की बुनियादी सुविधाओं की माँग कर रहे हैं हम। कब मिलेंगी?’ – रघु मन-ही-मन सोच रहा है।
   वह अकासर रात-रात भर जाग जाता। अपने आप से बातें करता। उन दिनों को जीता, जब भेर बाजा बजाकर सारे टाना भगत एक-दूसरे का उत्साहवर्धन किया करते थे। लंबी तुरही बाजा की तान से सबको उतेजित कर दिया करते थे। एक सुर में ‘वंदेमातरम्’ का उद्घोष किया करते। सरकार द्वारा दिए गए आश्वासनों पर विश्वास किया करते।
वापस जमीन पाने, गुरबत के दिन फिरने के इंतजार में कितने स्वतंत्रता सेनानी काल कवलित हो गए। पर किसी ने हार कहाँ मानी। अपने आदर्श का कहाँ त्याग किया था।    वही गाँधी टोपी, सादी धोती, उच्च विचार, माँस-मंदिरा से दूरी और अहिंसात्मक सत्याग्रह!
  अब आशीर्वाद टाना भगत जैसे कुछेक लोग ही बचे रह गए हैं। वे भी विचलित कहाँ हैं। नब्बे साल से ऊपर के आशीर्वाद टाना भगत में भी इतना धैर्य और विश्वास है। उनके जेहन से अपने पुराने दिन निकाले नहीं निकलते।
   ‘‘टाना भगतों का आंदोलन सुनहरा हरफ में दर्ज करने लायक है। है कोई आंदोलन इतना लंबा?’’ रघु अपने बाबा की बात याद करता। जागू कहते-इतराते नहीं अघाता था।
जतरा ने उराँवों को जमींदारों के खेत में मजूरी करने नहीं दिया, तो नहीं दिया। अब इन कमांडरों की मजदूरी? उनकी आज्ञा का पालन? नहीं! एकदम नहीं।
   कुछ नौजवान सुगबुगाते हैं पर बड़ी सावधानी आउर जुगत से रघु उन्हें लालच से परे रखने में कामयाब हो जाता है।
   उसने खरहरी खटिया पर हाथ के तकिए को बदलकर करवट बदली। सामने तारे टिमटिमा रहे थे। उसका संकल्प गहराया। वह अपना जनेऊ दाहिने हाथ में लेकर बुदबुदाने लगा।
   ‘‘एक लंबी लड़ाई उनके विरुद्ध सब लड़े थे। एक अपने लोगों के विरुद्ध हाय लड़ेंगे। एक दिन हमारी जीत होगी। जरूर होगी।’’
   ‘‘सोराज का सपना जरूर पूरा होगा। हमारा जमीन वापस मिलेगा।’’
   नई पीढ़ी का नया खून मुश्किल से काबू में आता है। कई युवा प्रतीक्षा करने की बजाय सरकार से हिंसात्मक प्रतिशोध चाहते हैं। हक की लड़ाई बंदूक के बल पर भी लड़ना चाहते हैं। रघु जैसे लोग न हों, तो पता नहीं क्या हो। हिंसात्मक संगठनों में कितनी मजबूती आ जाए। नए खून को समझाना, रोक पाना आसान है?
   उस दिन तिरंगे की पूजा अक्षत, फूल, रोली से करने के बाद सब अपने काम में लग गए। कुछ घंटे बाद रघु भी दूर खेतों की ओर निकल गया। रस्ते में पगडंडियों पर कोई नहीं मिला। न सर पर छोटी पोटली रखे लोग, न सब्जियों को
हाथों में भरे लोग। न ही अपनी बारी में झुक कर काम करती कोई महिला, न ही सधे कदमों से अपने बच्चे का हाथ थाम पगडंडी पर जाती कोई स्त्री। चारों ओर न आदमी, न आदमजात।
   रघु बढ़ता गया। खेत नजर आने लगे।
   उसने दूर से ही देख लिया, सब अपने-अपने खेतों में घुसे हुए हैं। सारी औरतें, सारे मर्द, बच्चे बेहद व्यस्त हैं। वे न अपनी बदतर स्थिति के बारे में सोच रहे हैं, न ही अठारहवीं शताब्दी के टाना भगतों के विद्रोह के बारे में। यहाँ तक कि सरकार से की गई माँगों का भी होश नहीं है उन्हें अभी। भादों की झरी लगी है और खेत उन्हें पुकार चुका है।
   ‘‘एक दिन सरकार की नींद टूटेगी। एक न एक दिन जरूर ये सारे लोग खुशहाली का जीवन बिताएँगे। आखिऱ अपना राज है। झारखण्ड बने भी तो दस साल से ज्यादा बीत गए। अपने लोग हैं गद्दी पर।सरकार की पहले नींद नहीं टूटी लेकिन अब तो जरूर…।’’
   वह दूर टीले की ओर बढ़ता गया। टीले के पास जाकर एक छोटे पत्थर पर बैठ गया। सामने के गाछ पर पतली-पतली कई डालों पर दो-दो सुग्गे आकर जम गए। एक साथ बैठे कई सुग्गों की पंचैती! रघु कल्पना में खो गया।
   लहलहाती खेती। सबकी अपनी जमीनें वापस मिलीं। हँसता पूरा गाँव। बापू और जतरा के चेलों की जिनगी खुशहाल!
   कार्तिक-अगहन मास में धान खलिहानों में बोझाएल।
सब लोग अंधविश्वास से दूर एक सुंदर दुनिया रच रहे हैं। फिर से खिस्सा-कहनी में रम रहे हैं। उसके होठों पर अबूझ मुस्कुराहट आ गई है। उसका सपना अवश्य साकार होगा।
   धीरे-धीरे करियाए बादलों ने अँधेरे से दोस्ती कर ली। अचानक गर्भभार से दुहरे होते बादलों को देख टीले से उठने की सोचने लगा कि हल्की-हल्की बूँदें!
   पानी की बूँदों से उसके माथे का चंदन तिलक धुलकर नाक पर बह आया। उसने नाक पोछी, तो हाथ भी लाल! ऐसे ही लालम-लाल धरती हो उठी थी गोरा लोग के समय। अब खुद अपने लोग अपने देश को लालम-लाल किए दे रहे हैं।… सब तरफ कैसे एतना हिंसा!
   वह सोचने-विचारने में निमग्न कि पीछे बढ़ते सायों का एहसास! फिर आ धमके ससुर। आज दो टुक बात हो ही जाए। जल्दी से पलटा। हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। सर पर सात-आठ राइफल एकदम उसकी ओर तनी हुईं।
   ‘‘यू आर अंडर अरेस्ट।’’
   ‘‘लेकिन क्यों?’’
   ‘‘तुम्हारे घर पिछले कई महीनों से नक्सलियों का आना-जाना है।’’
   ‘‘….’’
   ‘‘ तुम उनसे मिले हुए हो।’’
   वह हतप्रभ! एकटक उन्हें देखता रह गया। उसे लगा, उसके अंदर छनाक् से कुछ टूटा है जैसे घर की कच्ची दीवार पर टँगी तुरही बाजे की मिठास या बाबा जागू की दी हुई बूढ़ी लाठी अब उसके बूढ़े हाथों से छिटककर गिर गई।
   ‘‘असली गुनहगार को तो पकडऩे से डरते हैं और निर्दोष लोग के कंधा पर बंदूक तानकर बहादुर बनते हैं? पुरस्कारों की झड़ी लगाते है? इतने ही सजग रहते, यह रोग इतना फैलता?’’
   ‘‘एई, चोप्प!’’
   बंदूक का कुंदा सर पर। माथे से खून की धार फूट पड़ी। चंदन का फैलता टीका खून के साथ मिल गया। गले से होता हुआ जनेऊ तक बह आया। जनेउ और सफेद खादी का कुर्ता लाल होने लगा।
   ‘‘हैंड्स अप!’’
   रघु ने दोनों हाथ उठा दिए। झट उसके दोनों हाथों में लोहे का गहना सज गया।

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