चलते हुए उसने फिर से बहुत ध्यान से सुना। वही विलाप भरा, आर्तनाद करता हुआ स्वर। विकट किंतु अस्पष्ट और करुण स्वर जैसे नेजे की नोक पर रखे हृदयस्थल से निकली कोई कराह। कुछ और बढ़ने पर यह अस्पष्टता कमतर होती गई। एक बार फिर उसने उस पुकार को सुना हालाँकि उसे इस बार ध्यान में श्रम का किंचित भी अंश शामिल नहीं करना पड़ा था क्योंकि स्वर इस बार बहुत स्पष्ट था। संभवतः बहुत नज़दीक भी था।
वैदेही ने सूंघ लिया था उस स्वर का स्रोत। यह सामने एक छोटा घर था। अंधकार के दुशाले में टँके किसी सितारे से टिमटिमाते, उस घर के बाहर आले में रखे एक छोटे से दिये ने राह दिखाई जिसे किसी सद्गृहिणी ने अनजान राहगीरों के लिये रखा होगा। अंधेरे में सधे हुए कदम रखते हुए शुभांग का हाथ थामे हुए वह उसी दिशा में बढ़ने लगी।
अभी पिछली शाम ही तो वे दोनों अपनी बेटियों के साथ यहाँ पहुँचे थे। शहर से दूर यहाँ इस पिछड़े हुए गाँव में उनका आना उसी संयोग की एक कड़ी थी जो पिछले कुछ समय से शुभांग के जीवन में घट रहे थे। शुभांग का एक वैवाहिक आयोजन में संजय से मिलना और उसके जीवन के उस श्यामल घटाघोप के छंट जाने का प्रारंभ होना भी अनायास हुआ था जो शुभांग को अकेलेपन की शक्ल में विरासत में मिला था।
“एकलखुंडा है, जे काय को बाटैगो!” भले ही लाड़ में भरकर कहतीं अम्मा जब वो दोनों बहनों से छिपकर ताक पर रखी मिठाई अकेले ही चट जाता। पर उसके कलेजे पर तो ठक्क से चोट लगती।
“एकलखुंडा?”
“तो और का? तेरे परबाबा भी एकले हतै, बाबा भी, बाबू भी और तू भी। दादी ने बहुतेरी कोसिस करी कि तेरौ एक जोड़ीदार है जाय पर लल्ला, दो छोरी आय गईं पर तू अकेलो ही रह्यो।” आवाज़ को यथासंभव गम्भीर बनाते हुए अम्मा कहतीं तो उनकी छोटी आँखें कुछ और सिकुड़ जातीं, उनके चेहरे की सलवटें कुछ गहरी हो जातीं और उनके चेहरे पर एक नामालूम सी पीड़ा का लेप लग जाता।
‘अकेला!!!’ अम्मा के लेखे तो दो बहनों के होते हुए भी शुभांग अकेला ही रहा, जैसे बुआ और दादी बुआ के रहते बाबू और बाबा अकेले कहलाए गए होंगे। दरअसल यह वैचारिक पिछड़ेपन का विकट नमूना था कि बेटियों को संतति में नहीं गिना जाता था। दादी ने बहुतेरे पाँव पीटे कि उनके बेटे की तरह पोता भी अकेला न रह जाए पर जाने ये संयोग था या परिवार की विचित्र सी परंपरा थी जो पुनः इस पीढ़ी में भी कोई ‘जोड़ीदार’ न मिला और  बेटा अकेला ही रह गया। इस खानदान में घर, कुनबा, वंशबेल के नाम पर हर पीढ़ी में एक अकेला बेटा वंशबेल को आगे बढ़ाने का दायित्व भी ढोता रहा और एकलखुंडा भी कहलाता रहा।
“एकलखुंडा मतलब?” विस्मय में भरकर पूछती है वैदेही।
अम्मा की बोली के बहुत से शब्द उसे ठिठकाते हैं। उसकी भाषा में इन देशज शब्दों से पहचान नहीं अपितु ढेर सारा कौतूहल है जो कभी हँसाते हैं तो कभी विस्मित करते हैं। ठेठ गाँव में पैदा हुईं अँगूठाटेक अम्मा के पास भी दिल्ली में पली-बढ़ी-पढ़ी शहराती बहू वैदेही की भाषा के प्रति भरपूर जिज्ञासा है और कुछ बरस बीत जाने के बाद दोनों ने मिलकर एक नई भाषा को जन्म दिया जिसमें विस्मय या कौतूहल के स्थान पर अपनापा और नया सीखने की ललक शामिल थी और शामिल हुए कुछ नये मिले-जुले शब्द भी।
“एकलखुंडा वही जो अकेला रहना पसंद करे।” वह वैदेही की जिज्ञासा को पहचान का लिबास पहनने में मदद करता है।
“लेकिन यह तुम्हारा चयन तो नहीं था, शुभ। इसमें चाहना कहाँ शामिल है?” पूछना तो वह भी यही चाहता था अम्मा से किंतु उसका सवाल उसकी अप्रसन्नता पर हावी न हो सका। उसकी आत्मा पर यह शब्द कुछ यूँ खुद गया था जैसे अम्मा के दाएँ हाथ पर गुदा हुआ बाबू का नाम। जिसे सहला तो सकता है पर अपनी आत्मा से अलग नहीं कर सकता।
उसका भी एक ही सही पर बेटा हो जाए ये आस लेकर अम्मा इस दुनिया से चली गईं पर वह अपनी दो बेटियों अधुना और पाखी के साथ खुश था। पहली बार ये हुआ कि उस परिवार में न कोई एकलखुंडा कहलाएगा और न ही जोड़ीदार की चाह में कोई अपनी नींदें हराम करेगा। लेकिन एकलखुंडे के इस टैग को चाहकर भी अपनी आत्मा से खुरचकर फेंक नहीं पाया शुभांग। दादी और अम्मा भी कहाँ जानती थीं कि घुट्टी में उसे कैसा दंश सौंप गईं दोनों। रिश्तेदारी के नाम पर ननिहाल भर था उसके पास या दूर उत्तरप्रदेश में ब्याही गईं बहनें और बुआ जहाँ वह सदा बाहर का बना रहा। घर-गाँव के नाम पर यही एक शहर रहा।
संजय से अनायास हुई मुलाकात ने उसके इस दर्द को एक नई बेचैनी से भर दिया। जिस खानदान के हर वारिस को अकेला होने को शापित घोषित कर चुकी थीं दादी और उनकी ही जबान बोलती रही थीं अम्मा, उसी शज़रे की गुप्त शाखाओं के बारे में मालूम चला शुभांग को, तो वह उत्सुकता से भर उठा। ये जानकर तो और भी कि संजय भी उसी शज़रे का एक हिस्सा है।
संजय से ही मालूम चला कि कैसे तीन पीढ़ी पहले शुभांग के परबाबा अपने पिता के साथ अलग गाँव में आ बसे थे। उनकी और उनकी पत्नी की जल्दी मृत्यु हो जाने से उनका परिवार कभी अपने भाई बंधुओं के पास नहीं लौट पाया। जबकि दूसरे गाँव में आधा गाँव उनके ही कुनबे का है। इस रहस्योद्घाटन ने अद्भुत सी उत्कंठा से भर दिया था शुभांग को। वह आँखें बंद करता तो अंतर्मन के चित्रपट पर बियाबान में अकेला खड़ा ऊँघता कोई ठूंठ नहीं अपितु लहलहाकर झूमता एक विशाल दरख़्त दिखाई पड़ता जिसकी सैंकड़ों शंखाएँ अपने होने की मुनादी कर रही होतीं।
अगले कुछ माह संजय से फोन पर बतियाते बीते। वह सपरिवार चंडीगढ़ आने के का न्यौता देता पर शुभांग की इच्छाओं के सिरे तो जाकर बस उस गाँव में जा अटके थे जहाँ उसकी जड़ें नामालूम शक्ल में छुपी थीं। फिर वह दिन भी आया जब शुभांग की दिली ख़्वाहिश शक्ल अख़्तियार करने को बेताब थी। गाँव में एक वैवाहिक आयोजन में बुलावा मिला तो शुभांग का दिल किया उड़कर गाँव पहुँच जाए और ऐसा ही हुआ भी।
जानती हो वैदेही… उस दिन संजय को गले लगाकर रो पड़ा था मैं। कोई मेरा भी है इस विचारमात्र ने मेरी दुनिया बदल दी। मेरी अकेली दुनिया जो मुझसे शुरू होकर मुझ ही पर खत्म हो जाती थी। अपने कुल खानदान की नामालूम जड़ों के सिरे मुझे दिखाई पड़ रहे थे। जाने क्यों मुझे महसूस हो रहा था कि अपने अबूझ अकेलेपन के दंश से मुक्त होने की प्रबल उत्कंठा ने ही मुझे संजय से मिलाया। और आज जब उसने  बहन की शादी के लिये इनवाइट किया तो मैंने कहा ये मौका तो छोड़ना नहीं है।”
“हाँजी, आप शिद्द्त ने  किसी को चाहो तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने में लग जाती है।” हँसते हुए कहा वैदेही ने।
“शाहरुख़ खान?”
“न न पाउलो काल्हो!”
और दोनों ठठाकर हँस दिए।
यहाँ आने और सबसे मिलने में कल शाम वह समय कैसे पँख लगाकर उड़ गया जिसकी कामना की थी शुभांग और वैदेही ने कि वह जैसे वहीं थम जाए। तीन पीढ़ियों पहले परिवार का एक हिस्सा दूसरे गाँव में बसने और फिर गाँव छोड़कर शहर बसने ने शुभांग के परिवार को अपने परिवार के शज़रे से यूँ अलग कर दिया जैसे आंधी में कोई पत्ता उड़कर अपनी शाख से दूर जा गिरता है।
अगला दिन विवाह का दिन था। संजय की छोटी बहन सुमन का विवाह। अधुना और पाखी गाँव की शादी देखने की उत्सुकता से भरी हुई थीं और बच्चों से कहीं अधिक उत्सुक थे वे दोनों।
“गाँव में दिन में ही होते हैं अधिकांश विवाह। सादगी और परम्परागत तरीके से। सुबह से शुरू होता है यहाँ विवाह और सूरज डूबने से पहले लड़की विदा भी हो जाती है।” विवाह की दौड़भाग में मुब्तिला संजय ने रुककर बताया। सचमुच बहुत सादगी से भरा रहा पूरा आयोजन। अभिभूत थे वे दोनों देखकर। ढेर सारी पारंपरिक रस्में, बहन बेटियों की चुहल और सादगी किंतु गहन आत्मीयता से ओतप्रोत पूरा वातावरण। संजय की बहन पूरे गाँव की बेटी थी तो पूरा गाँव इस विवाह में मेजबान बना हुआ था। परंपरा में गुंथे रिश्तों और अपनेपन में पगे उन सादादिल लोगों से भरपूर प्रेम मिला था शुभांग, वैदेही और बच्चों को। शहर में अकेले जी रहे इस परिवार को गले लगाने वाली आज अनगिनत बाहें थीं। उनकी ऑंखें हर आलिंगन पर भीग जाती थीं।
आज पहली बार वैदेही को अहसास हुआ कि एक धारा थी जो नदी से बिछड़कर कहीं रास्ता खो बैठी थी आज वापिस अपने उद्गम में आ मिली थी। उधर शुभांग बैठक में पुरुषों की भीड़ में घिरा हुआ था तो इधर आंगन में स्त्रियों ने वैदेही को घेरा हुआ था। वर्षों के बाद लौटे इस बिछड़े परिवार को सबकी खुली बाहों ने स्नेह की वर्षा में आपादमस्तक भिगो दिया था।
शुभांग की दुल्हन के रूप में मुँहदिखाई में मिले दस, बीस, पचास के नोटों से झोली भर गई थी वैदेही की। बार-बार सिर पर रखा आँचल संभालती वह उम्र के अनुसार कभी हाथ जोड़कर तो कभी पाँव छूकर उन स्त्रियों का अभिवादन कर रही थीं जो कभी गले लगाती थीं तो कभी सिर पर आशीष का वरदहस्त रख ‘सौभाग्यवती भव’ उच्चारते हुए उसके भैया-भतीजों के भी मंगल की कामना करती थीं। आज तक वह शुभांग के सो कॉल्ड अकेलेपन से उबारने के लिये उसे वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाती आयी थी पर आज पहली बार उसे अहसास हुआ कि उनके जीवन में कौन सी कमी थी। अभी तक सुना था आज महसूस भी किया कि किस्से-कहानियों की तरह बिछड़े हुए लोग जब मिलते हैं तो आत्मीयता की ऐसी बारिश होती है।
रात जब अपने प्रेमी से छुपकर मिलने जाती किसी प्रेमिका की भाँति दबे पाँव गाँव में दाख़िल नही तो विवाह के बाद के सत्तर कामों को निपटाने के बाद पूरा परिवार गहरी नींद में सोया हुआ था। थकान इस कदर तारी थी सब पर कि बेटी को विदा करने के दुःख को एक ओट मिल गई और जिसे जहाँ जगह मिली वह वहीं सो गया। अंधेरे की चादर ने पूरे गाँव को अपने आगोश में यूँ ले लिया था मानो वह सबकी थकान उतारने को ख्वाहिशमंद है। छत पर बने एक बड़े से हालनुमा कमरे में बिछे गद्दों पर महिलाओं, बच्चों के सोने का प्रबंध था। साथ के दो अन्य कमरों में पुरुषों के सोने का प्रबंध था। कुछ लोग आंगन में और कुछ छत पर बिछी चारपाइयों पर सोए हुए थे। संजय ने बताया था शाम को कि गाँवों के आयोजनों में सामूहिकता के कारण मौलिक संसाधनों की कभी कोई कमी नहीं महसूस नहीं होती।
वैदेही को लेटते ही नींद यूँ भी नहीं आती, फिर ये तो अनजान जगह थी तो तय था कि वह लगभग आधी रात जाग में बिताएगी। घर पर होती तो कोई किताब पढ़ लेती पर यहाँ कुछ देर कमरे के आगे टहलने के बाद वह लेटकर नींद की मनुहार करना चाहती थी। उसकी आँखों के कालीन पर नींद की चहलकदमी अभी शुरू ही हुई थी कि एक विचित्र से स्वर ने उसे बाधित कर दिया। वह चौंककर उठ बैठी। बच्चे बहुत गहरी नींद में थे। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई तो बल्ब की मरियल सी रोशनी में देखा कि बाकी सब लोग भी उसी तरह गहरी नींद में डूबे थे। कुछ क्षण बाद उसने फिर सोने की कोशिश की पर इस बार प्रलाप भरे उस करुण स्वर ने दबे पाँव आती नींद को फिर ठिठका दिया।
 इस बार स्वर में अनवरता भी शामिल रही। अब वैदेही से रुका न गया। जाने क्यों पर विलाप भरी यह क्षीण पुकार उसके कदम खींचती महसूस हुई किंतु इस अनजान गाँव में वह कैसे उस स्वर को तलाश सकती थी। वह कमरे से बाहर खड़ी हुई तो देखा साथ वाले कमरे से निकलकर शुभांग और संजय भी उसकी ही भाँति उस स्वर की दिशा तलाश रहे थे। संजय को शायद सिगरेट की तलब खींच लाई थी और शुभांग को वह आवाज़।
“ये आवाज़…ये पीड़ा भरी आवाज़…जैसे कोई अपने ही ज़ख्मों को खरोच रहा हो….ये कौन हैं भैया?” उसकी प्रश्नाकुलता व्यग्र थी। नींद तो उड़ ही चुकी थी तो तीनों टहलते हुए सीढ़ियों की ओर बढ़ चले।
“ये चंद्रकांत बाबा हैं। बाबा के चचेरे भाई हैं। उम्र में उनसे कुछ बरस बड़े ही होंगे पर आज इनकी पीढ़ी का कोई मनुख बाकी नहीं। बाबा भी नहीं रहे। वे एक दुर्भाग्य के अभिशाप को ढोने के लिये अकेले बच गए अपनी मृत्यु को पुकारते हैं जो जाने कहाँ रास्ता भूल गई है। “
“क्या हुआ है उन्हें? उनकी चीखें गूंज रही हैं पर कोई कुछ क्यों नहीं करता?”
“क्योंकि कोई कुछ कर सकता तो जरूर करता और अपना सलीब तो स्वयं ही उठाना पड़ता हैं न भाभी!”
संजय की इस संजीदा आवाज़ में किसी रहस्य के बीज छिपे थे। बन्द कमलिनी से उस रहस्य की तह में जाने को शुभांग और वैदेही दोनों ही किसी शिशु की भांति अधीर हो उठे थे। अपने हाथ की सिगरेट को पाँव के नीचे कुचलकर आगे बढ़ता संजय बिना पीछे मुड़े ही चलता रहा और वे दोनों उसका अनुसरण करते रहे। एक बार रुककर उसने पीछे देखा और कुछ कदम चलकर एक पेड़ के नीचे बने बड़े से चबूतरे पर जाकर ठहर गया। वे दोनों भी उसके पास आ बैठे। उसकी निगाहें आकाश में चमकते उस तारे पर थी जो इस काली अँधेरी रात में आसमान की कालिमा में एक जुगनू की तरह टिमटिमाते हुए सुबह की उम्मीद से भरा था। संजय का गम्भीर स्वर उस अंधेरी रात में करीब से आते हुए भी ऐसा आभास देता था मानो कोई पिछली सदी में किसी गुप्त रहस्य की खोज में निकला कोई यायावर आज की दुनिया में भटक रहा हो।
“कैसा काला समय था वह। उस शाम आसमान में सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था पर लोगों के दिलों में मानवता का सूरज तो कब का डूब गया था। बाबा बताते थे कि देश के बंटवारे के ग्रहण ने डस लिया था उसे। चारों ओर तबाही का आलम था। कल तक उनमें से कोई वहशी या जानवर नहीं था पर आज इस समय उनके चेहरे खो चुके थे। हाल तक एक दूसरे के सुख-दुःख में साझीदार लोग आज खूंखार दरिंदों में बदल चुके थे। वे रोटियाँ लहू में डूब चुकी थीं जिन्हें उन्होंने सदा बाँटकर खाया था। अब केवल उनके उदर में एक ही भूख बची थी, एक दूसरे को कच्चा निगल जाने की दरिंदगी भरी भूख। सभ्यता का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण काल जिसने दो भाइयों को एक दूसरे के लहू का प्यासा बना दिया था हर लम्हे अपने इतिहास में क्रूरता के नए कलुषित प्रकरण जोड़ रहा था।
लोगों के हृदय से करुणा, प्रेम, अहिंसा और भाईचारे जैसे भाव विलुप्त हो चुके थे। उनकी संवेदनायें उन लाशों से ढक चुकी थीं जिनसे पाकिस्तान से लौटती रेलगाड़ियाँ भरी होती थीं। उन लाशों से बहता खून का दरिया उन लोगों की आँखों में उतर आया था और अब वे अपने हिस्से की मानवता की बलि चढ़ाने के लिये सड़कों पर उतर चुके थे।
ऐसे ही समय में कुछ नवयुवकों का एक झुण्ड भी अपने ठिकाने से दूर उस मोहल्ले में घुसा जहाँ मुसलमानों के घर एक कतार में सहमे खड़े थे। मार काट और बदले की आग से दूषित हवा ने उनके साँसों में भी अपना ज़हर घोल दिया था। वे जाने किसका बदला किससे लेना चाहते थे। बाड़ा हिंदूराव में भी ये कुछ घर थे जिनके बदकिस्मत बाशिंदों ने इस पार को चुन लिया था। कहाँ जानते थे वे कि कल तक दोस्त, पड़ोसी, सहचर, साथी रहे लोगों की अब केवल एक ही पहचान बची थी, हिन्दू या मुसलमान।
दौड़ते हुए वे युवक जिस घर में घुसे शायद वहाँ पहले ही मौत नग्न नृत्य करके सब लील चुकी थी। तबाही के निशान चतुर्दिश दृश्यमान थे लेकिन उनकी मंशा पूरी न हुई। उनके हाथ की तलवार की पिपासा अधूरी रह गई। बदले की नारकीय अग्नि में उबलता रक्त और उबलने लगा। किसी के सीने में तलवार न उतार पाने के मायूसी, खीज़ और क्रोध उन्होंने उस मकान पर उतारनी चाही जो कभी किसी का आशियाना था। जहाँ कुछ देर पहले जीवन की किलकारियों के स्वर गूंजते होंगे अब मौत का सन्नाटा था और सामने थीं जमीन पर बिछी हुई लाशें। उनसे बहता रक्त इस बात की तस्दीक कर रहा था कि अभी कुछ समय पहले तक वे जीवन से भरपूर, जीते जागते मनुष्य रहे होंगे। कहावत है कि साँप का काटा पानी भी नहीं मांगता लेकिन जिन्हें धर्म ने काटा था, वे केवल लहू मांग रहे थे।
युवकों में से कुछ अपनी तलवार, किरपाणों की प्यास बुझाने अगले घर की ओर बढ़ गए और वे चार पूरे घर को लूट खसोटकर अपनी क्रोधाग्नि में आहूति डाल रहे थे कि एक की नज़र वहाँ एक ओर रखे पालने की ओर गई। शीशम की लकड़ी से बने और हाथीदांत के काम से सजे उस नक्काशीदार पालने में टँगी छोटी घण्टियों की रुनझुन समय के विनाशकारी हाहाकार से पूरी तरह अनजान थी।
वह बेहद खूबसूरत पालना उस लम्बे-चौड़े कद्दावर बीस वर्षीय युवक की नज़रों में ठहर सा गया। वह ऐसे ठिठक गया जैसे तेज़ दौड़ता कोई धावक किसी मोड़ पर ठिठककर रह जाए। उसके मन में किसी अनदेखे शिशु की किलकारी के स्वर हिलकोरे लेने लगे। गाँव में रह रही अपने प्रथम शिशु के जन्म के लिये प्रतीक्षारत सुंदर युवा पत्नी का गर्भभार से तनिक क्लांत चेहरा उसके स्मृतिपटल पर जगह बनाने लगा। उसने अपनी गोद में एक सुंदर, स्वस्थ, सलोने शिशु की हलचल को महसूस किया जो अपनी पगथलियों को चलाते हुए उसकी छाती पर प्रहार करते हुए किलक रहा था। उसके मन के विषाद पर क्षणभर को आह्लाद का रंग चढ़ गया और वह पालने की ओर झुक गया।
किंतु ये क्या! जैसे ही उसने झुककर पालने पर ढके जालीदार दुपट्टे को हटाया उसने देखा वहाँ एक नन्हा शिशु सोया हुआ था, काल के उन क्रूर पंजों से अनभिज्ञ, जो कुछ समय पहले उससे उसकी सद्यप्रसूता जननी को सदा के लिये छीन चुके थे। युवक एक क्षण को रुका फिर जैसे किसी शैतान के टहोके से उसकी तन्द्रा भंग हुई। प्रेम और करुणा पर काला अंधेरा छा गया। आँखों में पुनः वहशत का रंग उतर आया। उसकी इंसानियत ने चेहरे के घृणा भरे भावों से डरकर अपना मुँह ढक लिया और किसी कोने में जा छुपी। उसने शिशु को उठाकर वहीं ज़मीन पर लिटाया और पालने को कंधे पर उठाकर चलने को उद्धत हुआ।
चेहरे के भाव एक बार फिर बदले जब उसके साथ आ खड़े हुए किशोर चचेरे भाई ने उसे ऐसा करने से रोका पर उसकी आँखों में अब सुंदर से पालने में झूलते अपने शिशु का सपना था, जिसे उसकी पत्नी धीरे धीरे झोटे झुला रही थी। उसके मन में शिशु की बलैयां लेती पत्नी की तृप्तिभरी मुस्कान थी। कानों में अपने शिशु की किलकारियाँ गूंज रही थीं जो जल्द ही दुनिया में आनेवाला था। बिल्कुल ऐसा ही पालना लाने का वायदा करके वह अपने गाँव से शहर की ओर निकला था जहाँ उसकी नौकरी थी।
जागे हुए उस यवन शिशु का आसमान छूता रुदन उसका पीछा कर रहा था जो शायद भूख से तड़प उठा था और जागते ही माँ की गोद तलाश रहा था। पर वह अब जल्दी वहाँ से निकल जाना चाहता था। कंधे पर पालना उठाए वह उस किशोर भाई का हाथ पकड़े हुए लगभग घसीटते हुए वहाँ से भाग चला।”
“फिर क्या हुआ संजय?” अधीरता भरे स्वर में शुभांग ने पूछा तो उसका हाथ कसकर पकड़े हुए वैदेही कुछ और आगे सरक आयी। उसकी उत्सुकता को संजय का बोलते-बोलते रुक जाना अखर रहा था।
“हाँ बताइये न भैया! फिर क्या हुआ?”
“और क्या होता भाभी! इंसान पाताल में भी चला जाए तो अपने दुष्कर्म की काली छाया से मुक्ति नहीं पा सकता। चंद्रकांत बाबा मेरे बाबा को संग लिये गाँव लौटे तो पालना उनके साथ था। इधर उन्होंने गाँव की सीमा में कदम रखा, उधर उनकी पत्नी की चीखें आकाश का सीना चीरने लगीं। मृत शिशु को जन्म देते हुए वे भी उसके साथ चिरनिद्रा की गोद में समा गईं। चंद्रकांत बाबा इस दोहरे सदमे को बर्दाश्त न कर सके और मानसिक संतुलन खो बैठे। उनका अपराधबोध समय के साथ बढ़ता चला गया। हमेशा मौन रहने वाले बाबा पर जब कभी दौरा पड़ता है अपने कानों को बंदकर चीखते हैं। वे जितना चीखते हैं, कानों में किसी शिशु का रुदन उतना ही बढ़ता चला जाता है। वे माथा रगड़ते हैं, माफियाँ मांगते हैं पर उनका दुर्भाग्य उनकी देह से चमड़ी भी भांति चिपट गया है। किसी डॉक्टर, हकीम या ओझा के पास उनका इलाज नहीं मिला।
लंबा जीवन बड़े कुनबे के सहारे बीत चुका है। पिछले दस बरस से उनकी लगभग पिच्यानवे साला देह मात्र उस कमरे में सिमटकर रह गई है। अपने ही सलीब के भार को ढोते हुए वे प्रतीक्षारत हैं पर न मुक्ति मिलती है न मृत्यु जिसकी भीख वे दिनरात मांगा करते हैं।”
संजय ने गाँव की सरहद पर बने उस कमरे की ओर इशारा किया जो वहाँ से कुछ दूर था।
“उस पालने का क्या हुआ संजय?” अनवरत उसी दिशा में ताकते हुए शुभांग के प्रश्न के पैरों से बंधी जिज्ञासा जाने क्यों बहुत प्रबल न थी।
“क्या होना था उसे भी शायद दादी की चिता के साथ फूंक दिया गया। पर जानती हैं भाभी, जाने यह उस अजनबी शिशु के प्रति हमारी श्रद्धांजलि है या अनिष्ट की आशंका कि हमारे पूरे परिवार में तीन पीढ़ियों से कोई अपने शिशु के लिये पालना नहीं लाता। हम सब इस अभिशाप में बराबर के साझीदार हैं।”
संजय के बात ख़त्म करते ही एक बार फिर कमरे से मुक्ति और माफ़ी की कामना भरी भरा वह करुण स्वर गूंजने लगा।
वैदेही ने विवशता से कमरे की ओर देखा और संजय और शुभांग के पीछे चलने लगी जो वापिस घर लौट रहे थे। अपना परिवार ढूँढने निकले शुभांग के साथ अब अपनी जड़ों का पता ही नहीं, अपने एक पुरखे के पाप बोध की अभिशप्त छाया भी थी। उसने दुआ में दोनों हाथ उठा दिये।

6 टिप्पणी

  1. कहानी में उत्सुकता बनी रही। अच्छी लगी। लेकिन भाषा काफ़ी बोझल लगी। कहानी के प्रवाह को बाधित करती सी।

  2. कहानी “पालना” गए समय की चीत्कार के साथ जीवन धारा में विचारों का लेन-देन, मानता-जानता, विश्वास अविश्वास के सहारे जीवित रहते लोगों की कथा कहती है। ये कहानी बताती है कि जीवन गए वक्त को कितनी मजबूती के साथ पकड़े रहता है। परिवार के गठन में पुरखों की मान्यताएं कैसे क्रियान्वित होती हैं, का परिचय भी देती है। शुभांग और वैदेही के माध्यम से थोड़ी देर के लिए हम गुजरे वक्त की गूंजों अनुगूंजों में लौट जाते हैं। न जाने कितने पालने सूने रहने की कथाएं याद आईं। वहीं न जानें कितने वे प्रकरण याद आए जिन्हें व्यक्ति अपने जीवन में अभिशाप की तरह चिपकाए हुए जीता है। सास बहू का भाषा सीखने के प्रति लगाव अच्छा लगा। लेखिका को खूब बधाई!

  3. धीरे -धीरे गंभीर होती कहानी ना जाने कितने उजड़े पालनों का दर्द दिल में जगा गई l अच्छी कहानी के लिए बधाई अंजू जी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.