चलतेचलते उसके पैर दुख गये। उसके कानों में रुलाई की तीखी और दर्दनाक आवाजें अब तक सुनाई दे रही थीं, जिससे उसका दिल दहला जा रहा था। लेकिन दर्द और करुणा के इस कोलाहल के बीच एक सन्नाटा व्याप्त था। रास्ते में कहीं किसी का अतापता नहीं था। घरों के अंदर से आवाज रही थी। लेकिन वह आवाज सुबकने की थी। चिड़ियां भी आकाश में उड़ना भूल कर बचे हुए घोंसलों में दुबकी हुई थीं। हां, पत्तों की खड़ड़ाहट के बीच रहरह कर चील की कड़कदार मनहूस आवाज वातावरण में विष घोलतीसी जरूर सुनाई दे रही थी। रहरह कर कुत्तों के रोने की आवाज भी रही थी।
स्टेशन से उसका घर दो किलो मीटर दूर था। मगर वह दूरी बहुत बढ़ गयीसी लग रही थी। रास्ता बहुत लंबा हो गया था। रातदो रात में पीढ़ीदरपीढ़ी जिस रास्ते से परलोक गुजर गयी हो, उस रास्ते से गुजरना सचमुच आसान काम नहीं था। सौ वर्षों की दुनिया देख चुका बूढ़ा उस रास्ते से गया ही था, नवजातअबोध बच्चे, जिनके लिये दुनिया देखना तो दूर की बात, जिसने अपनी मां को भी ठीक से नहीं पहचाना था, दरींदों की हवस का शिकार होकर उसी रास्ते से चले गये थे।
गांव में पहुंचते सुबह का नौ बज गया था। मगर लग रहा था कि गांव में अभी भोर तक नहीं हुआ है। दरवाजेखिड़की या तो बंद थे या सूने। उसके घर के आगे रहमत काका का घर था और पिछवारे हरिहर चाचा का। मगर दोनों में से कोई नहीं बच पाया था। किस हवस के ये शिकार हुए ? क्या रहमत काका ने हरिहर चाचा को मार दिया या हरिहर चाचा ही रहमत काका को मार दिया ? दोनों में से कोई बात उसे सही नहीं लग रही थी।
एकदूसरे के लिये जान देने वाले के लिये एकदूसरे की जान लेना तो बहुत दूर की बात रही, उनके लिये ऐसा सोच पाना भी संभव नहीं था। आखिर दोनों को मारने वाला कौन होगा ? समझ गया ! ऐसा उसी ने किया होगा जिसका कोई धर्म नहीं होगा, रहमत काका का धर्म और हरिहर चाचा का धर्म। लेकिन सुना है, बिना धर्म का कोई नहीं हो सकता। तब निश्चित रूप से उस हत्यारे का धर्म होगाहत्या। सांप्रदायिक दंगे फैलाना, उसके बाद हत्याएं करनाकराना और बचे हुए भयातुर लोगों को डराधमका कर उनके सामानों को लूटनाखसोटना और बहूबेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करना ही उसका धर्म होगा। उसके गांव में ही क्यों ? ऐसे दरिन्दों से पूरी धरती पटी हुई है। धरती का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है, जहां ऐसे दरिन्दें नहीं रहते हों। हां, उनकी संख्या कमबेश हो सकती है।
पिता की मौत के समय वह इतना अबोध था कि उनका चेहरा तक उसे याद नहीं है। हरिहर चाचा और रहमत काका ने ही पालपोस कर उसे बड़ा किया था। पिताजी की अचानक हुई मृत्यु से घर में मां अकेली बच गयी थी। लेकिन हरिहर चाचा और रहमत काका ने उसकी मां को एवं बड़ा होने पर उसे पिता की कमी कभी महसूस नहीं होने दी।
उसे याद है कि गांव में उसने कभी किसी को अपने से अलग महसूस नहीं किया। महसूस भी कैसे करता ? कोई अलग रहा ही नहीं। गांव में जातियों और धर्मों की विभिन्नता अवश्य थी, मगर उनमें किसी तरह का जातिगत या धर्मगत बंटवारा नहीं था। समूचा गांव एक था। सभी उस गांव वाले के रूप में जाने जाते थे कि किसी जाति या धर्म वाले के रूप में।
क्या हुआ ? कैसे हुआ ? यही देखने वह गांव आया था। गांव में तो वह गया। घर के नज़दीक भी पहुंच गया। मगर अपने घर में घुसने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। दीवारों से घीरे और दरवाजों से मढ़ी संरचना घर नहीं होता। घर तो एक खूबसूरती होता है। मगर अब उसके घर में ऐसी कोई विशेषता नहीं बच पायी है, जिसके आधार पर वह अपने घर को घर कह सके।
उसके होश संभालते मां गुजर गयी थी। मगर देहाती माहौल में लोगों के कहने पर उसने एक घरनी ला दिया था जिससे उसका घर घर बना रह गया था। जल्दी ही पत्नी शांति ने एकएक कर दो बच्चे भी आंगन में खेलने के लिये डाल दिये थे, जिनसे घरआंगन कोलाहित रहने लगा। जब वह शहर में नौकरी करने लगा था और वहां से महीने में एक बार अपने घर आता था, तब उसकी बीबीबच्चे उसकी प्रतीक्षा में आंखें बिछाये मिलते थे। दरवाजे की ओट लिये पत्नी निहारती मिल जाती थी कि उसने उसे देख लिया है। दोनों बच्चे प्रेम और वैभव दौड़ कर रास्ते में ही उसके पैरों से लिपट जाते थे। बच्चों को देख कर उसे एक ओर खुशी होती थी तो दूसरी ओर पैरों से लिपट जाने से परेशानी भी। मगर उस खुशी और परेशानी के बीच उसे बड़ा आनन्द आता था। इस बार तो दरवाजे की ओट में दो आंखें दिखायी दी थीं और रास्ते में दौड़ कर अगवानी करते बच्चे ही मिले।
गांव में कर्फ्यू खत्म होने की सूचना पाते वह वहां के लिये चल पड़ा था। गांव से भाग कर आये कुछ लोगों से उसे पहले ही पता चल चुका था कि उसका घर गांव में था, सो दंगा के समय भी गांव में ही था और परिणामतः उसके घर को भी गांव के बाकी घरों की तरह सांप्रदायिक नाटक का मूक दर्शक बनना पड़ा था और क्षतिग्रस्त होना पड़ा था।
उसे पता नहीं था कि पत्नी और बच्चे बचे भी हैं अथवा दंगे की वेदी पर बली हो चुके हैं। राहत शिविरों में उसने पता कर लिया था। उसकी पत्नी का चेहरा कहीं दिखायी नहीं दिया था, उसके बारे में कोई सूचना ही मिल पायी थी। बच्चों का भी कहीं अतापता नहीं चल पाया था।
अंग्रेजी हुकूमत के समय हुए दंगों के घिनौने खेल की कहानी वह पढ़तासुनता आया था। विदेशी हुकूमत के प्रति उसका मन भर जाता था और खून खौलने लगता था। मगर इस बार ! इस बार तो देशी हुकूमत की राजनीति ने ही इतना बड़ा कहर बरपा दिया था। हर चुनाव में राजनेताओं के पास जनता के बीच जाकर मतों की भीख मांगने का कोई कोई मुद्दा होता है। मगर इस बार उन भिखारियों को आईना में अपना चेहरा साफ दिखायी दे रहा था, जिसे लेकर वे भीख मांगने नहीं जा सकते थे। गलीकूचों, खेतखलिहानों के बीच सड़गलदब रहे मतदाताओं के सामने जाने का कुछ लोगों के पास सिर्फ एक ही विकल्प थासहानुभूति लहर उत्पन्न करके उनके आंसू पोंछना। सत्ता के पास राहत और मुआवजा देने की घोषणा थी तो विपक्ष के पास उचित राहत और मुआवजा दिलवाने का आश्वासन ।
मगर पंचसाला यज्ञ समाप्त होते सब कुछ शांतसा हो गया था। उसकी झोली में सिर्फ अशांति आयी थी; शांति की उसी यज्ञ में आहुति पड़ गयी थी। प्रेम और वैभव को भी उस यज्ञ ने आहुति में ले लिया था। लेकिन ऊपर से वह भी शांत था। ठीक वैसे ही जैसे दंगे के बाद पूरा इलाका शांति का चादर ओढ़ लिया था। बीबी चली गयी थी, बच्चे खप गये थे। परंतु उसे अब किसी से कोई शिकायत नहीं थी। शिकायत भी क्या करे ? सरकार राहत और मुआवजा देने की घोषणा कर चुकी थी, जो सक्षम होगा ले ही लेगा सब कुछ। मगर वह ?
वह क्या करेगा मुआवजा लेकर ? किसके लिये लेगा मुआवजा ? मुआवजे की राशि से घर बनायेगा ? कौनसा घर ? वही दीवारों से घिरी आकृति ? कौन रहेगा उन दीवारों के बीच ? शहर में उसने एक छत लिया हुआ था, जिसके नीचे रहता था। उसकी कीमत भी अधिक थी। फिर भी उसे वह घर नहीं बना पाया था। घर बनाता भी कैसे ? उसकी पत्नी कभी शहर गयी ही नहीं। वह दिन भर बाहर रहता और सिर्फ रात बिताने के लिये वहां आता था। उसका घर तो गांव पर था, जो अब उजड़ गया था और वह अब बेघर हो चुका था।
एक बार उसके मन में आया कि जोरजोर से रोये। मगर यह सोच कर कि रोया जाता है अपनों के लिये, अपनों के बीच में। यहां तो उसका कोई भी अपना नही बचा था, जो उसके आंसू भी पोंछ सके। आंसुओं को आंखों में डबडबाने से पहले ही वह पी गया।
एक सड़ांध उसकी नाक से घुस कर माथे तक पहुंच रही थी। उसे लगा कि सड़ांध धीरेधीरे माथे में जमती जा रही है और अंदर दबे आंसुओं से मिलती जा रही है, जिससे उसका माथा कभी भी फट सकता है। एक क्षण भी वहां रहना अब उसके लिये दुभर हो रहा था। तेज कदमों से वह चल पड़ा था अपनी वापसी दिषा की ओर। पिछली बार जब वह वापस जा रहा था तो पत्नी से वादा किया था कि अगली बार उसे भी साथ ले जायेगा। दोनों पुत्रों ने भी साथ जाने की जिद्द की थी। मगर वह अपना वादा पूरा नहीं करा पाया। वह अकेला ही लौट रहा था। साथ में शांति थी और प्रेम या वैभव ही। वे सभी उससे दूर चले गये थे, बहुत दूर।
वह जल्दी से जल्दी स्टेशन पहुंच जाना चाहता था। मगर मन का सारा भार जैसे उसके पांवों में उतर आया था। पैर इतने भारी हो गये थे, जैसे उनमें जांतें बंध गये हों। वह लगभग घसिटते हुए चल रहा था।
रास्ते में दोनों ओर चीलों और गिद्धों के झुंड इत्मीनान से लाशों से मांस नोच रहे थे। उन्हें यह चिंता नहीं थी कि झुंडों में उनकी संख्या हजारोंहजार है। सभी संतुष्ट थे। उनमें छिनाझपटी तो थी, मगर कोई भेद नहीं था। जिसे जिस लाश से मन करता, मांस नोचनोच कर खा रहा था और अघा रहा था, क्योंकि उनमें किसी को कोई धर्मभेद नहीं था। उन्हें यह पता नहीं था कि जो लाशें पड़ी हुई हैं वे किस धर्म वाले की है या कौन किस धर्म के लिये मरा है। उन्हें तो सिर्फ इतना ही पता था कि भूखे का सिर्फ एक ही धर्म होता हैआहार, जो उनके सामने विपुल था।
वह सब कुछ देख रहा था। मगर लगता था कि उसे कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। गांव आते समय उसके विचार तेजी से दौड़ रहे थे। मगर वापसी के समय उसका दिमाग विचार शून्यसा हो गया था। वह चला जा रहा था, लेकिन एक आदमी की तरह नहीं, जिन्दा लाश की तरह, जिसके गिरते ही कोई गिद्ध या चील नोचखसोट कर खत्म कर देगा। 
सारिका, कादम्बिनी, आजकल, नवनीत, नया ज्ञानोदय, हरिगंधा, अहा! जिन्दगी, हरियाणा संवाद, जागृति, कुरूक्षेत्र, पंजाब सौरभ, समाज कल्याण, योजना, पर्यावरण, गगनांचल आदि तमाम पत्र-पत्रिकाओं में चार हजार से अधिक लघुकथाएं, कहानियां, बालकथाएं, आलेख प्रकाशित. झारखण्ड सरकार द्वारा हिन्दी सेवी सरकारी सेवक सम्मान से 14 सितम्बर, 2013 को सम्मानित. हमारे वन्यप्राणी, हमारे पक्षी, हमसे है पर्यावरण (बालोपयोगी पुस्तकें) एवं सागर के तिनके (लघुकथा संकलन). करीब चार दर्जन सम्पादित संकलनों में लघुकथाएं, बालकथाएं एवं कहानियां प्रकाशित. संपर्क - 8809972549, ankushreehindiwriter@gmail.com

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