वह आज भी खड़ी है….. वक्त जैसे थम गया है…. दस साल कैसे बीत जाते हैं…. इतने वर्ष…… वही गाँव. वही नगर….. वही लोग…. यहाँ तक कि फूल और पत्तियां तक नहीं बदले। टूलिप्स सफेद डेज़ी लाल और पीला गुलाब वापिस उसकी तरफ ठीक वैसे ही देखते हैं जैसे उसकी निगाह को पहचानते हों ।
चशैयर काऊंटी के एक गाँव तक सिमट कर रह गई है उसकी जिन्दगी। अपनी आराम कुर्सी पर बैठ वह उन फूलों का पूरा जीवन अपनी आँखों से जी लेती है। बसन्त से पतझड़ तक पूरी यात्रा…. हर ऋतु के साथ उसके चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं…. कभी मुस्कुराहट तो कभी उदासी। अचानक घंटी की आवाज़ सुनते ही वह उचक कर दरवाजे़ की ओर भागती है। सामने नीली आँखों तथा भूरे घुंघराले बालों वाला बालक खड़ा है…. एक देसी चेहरा देख कर वह घबराया फिर हाथ आगे बढ़ाता बोला, “आई एम शॉन….. आपके गार्डन में मेरी गेंद गिरी है। क्या मैं ले सकता हूं…. ?’’
“ऑफ़कोर्स…. अन्दर आओ….’’ गार्डन में एक नहीं छः गेंदे पड़ी थीं। वह थैंक्स कह कर जाने ही वाला था कि विधि की ममता ने उसे रोक कर पूछ ही लिया… ’’कोक पियोगे…?’
एकाएक उसकी आँखें डबडबा जाती हैं। वर्षों का जमा दर्द उसकी आँखों से बहने लगता है। वह खिड़की से टकटकी लगाये उसे देखती रही। उसके आँसुओं की धारा चेहरे से होते हुए उसके आँचल को भिगाने लगी। सोचते-सोचते वह अपने जीवन के विकृत पन्नों के अंधेरों में डूब गई…. जब उसकी सास ने शरद जैसे बेटे को जन्म देने के अहम् की जय और कैंसर से जूझती उसकी पत्नी की पराजय का उत्सव मना रही थी। जिसने अभी-अभी पैदा होते ही अपना बेटा खोया था। उसके राम जैसे बेटे शरद ने अपनी कैंसर से लड़ती पत्नी को प्यार और सहानुभूति के दो शब्दों के स्थान पर अपमान मे ही उसका निजी समान सौंपते हुए कहा था… ’’अब तुम मेरे लिये। व्यर्थ हो…….. ’’
’’व्यर्थ….’’ भला एक इन्सान व्यर्थ कैसे हो सकता है ? पत्थरों की भाँति लगे थे वे कठोर शब्द उसे दिल पर… तिलमिला उठी थी वह…. इस गहरी चोट पर… एक चिंगारी लग गईथी उसके तन-मन पर। यह घात उसके शरीर पर नहीं उसकी आत्मा पर लगा था। वही पत्नी जो कैंसर होने से पहले उनके मन में लालसा और आकर्षन के ज्वार पैदा करती थी, जिसका रुतबा था, पढ़ी-लिखी थी, आज उसे ही एक छाती न होने पर व्यर्थ कह कर कूड़े में फेंक दिया गया है।
उसे शरद के इस व्यवहार पर विश्वास नहीं हुआ। सोचने लगी ऐसा तो वह कभी न था। उसे शरद के व्यक्तित्व में से कोई शख्स अन्दर-बाहर होता नज़र आ रहा था। उसकी “ माँ ’’ जिसका आतंक, होल्ड और कंट्रोल घर के सभी सदस्यों पर था। विशेष रुप से शरद पर। उसकी माँ जितनी भी गलत बात करे वह चुप ही रहता और उसकी माँ उसकी चुप्पी का अर्थ अपने ही हक में ले लेती। शरद यह नहीं जानता कि मौखिक शब्दों की भी जिम्मेदारी होती है। उस दिन भी वही हुआ… वही चुप्पी….. अपमान बोध की चुभन… विधि के मन…. आत्मा को बंधे जा रही थी। अपने जीवन साथी के प्रति उसके मन में विरक्ति पैदा हो गई थी… घृणा जम गई थी, किंतु यही सोच कर उसके मन को संयमित रखा और समझाया कि जीवन समय से आगे निकलने का नाम है न कि ठहरी पहाड़ी। बेशक विधि का जीवन की सुन्दरता और अच्छाई से भरोसा उठ गया था, फिर भी वह न रोई… न गिड़गिड़ाई…. न ही टूटी। सभी संभावनाओं के बावजूद उसकी चेतना, आत्मस्वाभिमान धीरे-धीरे अपना स्थान ग्रहण करने लगे, जो अस्वीकरण की भावना से कहीं दब सा गया था। घर वाले उस पर तलाक लेने का दबाव डालने लगे। पल भर को उसके मन में आया भी कि वह तलाक न दे कर उम्र भर उसे लटकाती रहे….. फिर सोचा- ’ऐसा करने से उसमें और मुझमें अन्तर ही क्या रह जायेगा। बदले की भावना से ठहरा पानी बन कर रह जाऊँ। जिन्दगी आगे बढ़ने का नाम है…. और उसे तो आगे बढ़ना है नदी की भाँति।’’
बेटे का शौक मनाने के बाद वह बाहर आने-जाने लगी। अपने जीवन को समेटने का प्रयास करने लगी। प्रयास कभी खाली नहीं जाता, शीघ्र ही उसे दिल्ली के नामी कालेज में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। अपने क्षेत्र में पारंगत होने के कारण सभी सहकर्मियों में वह बहुत लोकप्रिय हो गई।
जवान, लम्बी पताली खूबसूरत विधि जहाँ से गुजरती लोगों की गंदी नज़रों से न बच पाती। औरत जब सुन्दर ……..प्रतिभाशाली और अकेली हो तो हर पुरुष उसे अपनी धरोहर समझने लगता है। लोगों की ऐसी सोच से वह तंग आ चुकी थी। एक दिन उसके भीतर से आवाज़ आई- ’विधि…. तुम अगर अपनी ढ़ाल नहीं बनोगी तो समाज के भेड़िये तुम्हारा दिल और शरीर दोनों नोच डालेंगे। अकेलेपन की लम्बी गुफा का कोई छोर नहीं है। और देर मत करो।’’ इस बात को ध्यान में रखते हुए वह अपने भाइयों की बात मानने को तैयार हो गई, जो उस पर कई वर्षों से दूसरी शादी का दबाव डाल रहे थे। एक दो जगह रिश्ते की बात भी चलाई उसके भाइयो ने, किंतु कहीं बड़े बच्चों के स्वार्थ के कारण या फिर एक छाती न होने के कारण बात कहीं बन न पाई। लोगों की ऐसी मनोवृति को देख कर उसकी बड़ी बहन ने कुछ समय के लिए उसे लन्दन बुला लिया। लन्दन से लौटते वक्त उसकी मुलाकत उसके साथ बैठे जॉन से हुई। बातों-बातों में उसने बताया कि रिटायरमैन्ट के बाद वह भारत घूमने जा रहा है जहां उसका बालपन गुज़रा था। उसके पिता ब्रिटिश आर्मी में थे। दस वर्ष पहले उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था। तीनों बच्चे शादी-शुदा हैं । अब उनके पास समय ही समय है। भारत से उसका आत्मीय संबंध है। मरने से पहले वह अपना जन्म स्थान देखना चाहते है, वह उनकी हार्दिक इच्छा है। बातों-बातों में आठ घंटे का सफर न जाने कैसे बीत गया। एक दूसरे से विदा लेते लेने से पहले दोनों ने अपना-अपना पता और टेलीफोन नम्बर का आदान-प्रदान किया।
“विधि, मैं भारत घूमना चाहता हूँ, अगर किसी गाईड का प्रबन्ध हो जाये तो आभारी होऊँगा।’’ जॉन ने निवेदन से कहा।
“भाइयों से पूछ कर फोन कर दूँगी।’’ विधि से आश्वासन देते हुए कहा। दूसरे दिन अचानक जॉन सीधे विधि के घर पहुँच गये। छः फुट लम्बी देह, कायदे से पहनी गई विदेशी वेशभूषा, काला ब्लेज़र विधि ने भाइयों से उसका परिचय कराते हुए कहा…..
“भैया… यह है जॉन, जिन्हें गाईड की ज़रुरत है।’’
“गाईड….? नहीं…. गाईड तो कोई नहीं है ध्यान में….’’
“विधि…. तुम क्यों नहीं चल पड़ती….?’’ जाॅन ने मुश्टाव देते हुए कहा। प्रश्न सोचने वाला था, विधि सोच में पड़ गई। इतने में छोटा भाई नवीन बोला, “हाँ….हाँ…. हर्ज़ ही क्या है… वैसे भी रिटायर्ड है। बूढ़ा है… क्या कर लेगा, ….?’’
“थैंक्स सन्नौ…. यस…. यस… यस वंडरफुल आईडिया…. विधि से बुद्धिमान गाईड कहाँ मिल सकता है।’’ जाॅन ने उचक कर कहा।
छह सप्ताह दक्षिण के सभी मंदिरोन के दर्शनों के पश्चात दोनों दिल्ली पहुँचे। एक सप्ताह पश्चात जाॅन की वापिसी थी। दोनों की अक्सर फोन या टैक्ट्स पर बात हो जाती। अगर किसी कारणवश विधि जाॅन को फोन न कर पाती, तो वह अधीर हो उठता। वह विधि को चाहने लगा था। उसकी बहुमुखी प्रतिभा पर जाॅन मर मिटा था। विधि गुणवान, स्वाभिमानी, साहसी और खरा सोना थी।
इधर विधि जाॅन के रंगीले, सजौले, ज़िन्दादिल व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई पर उसकी उम्र का सोच कर चुप जाती। जाॅन पैसठ पार कर चुका था और विधि से अभी ठोस ही पूरे किये थे। लन्दन लौटने से पहले एक दिन अचानक जाॅन ने खाने के प्श्चात् सैर करते वक्त पूरे बाजर में विधि को रोक कर अपने मन की बात कह डाली- ’’विधि, जब से तुम्हें मिला हूं मेरा यौन खो गया है, न जाने तुम में ऐसी कौन सी मोहिनी शाक्ति है कि मैं इस उम्र में बरबरा तुम्हारी और खिंचा आया हूं….’’ उसने वहीं घुटनों के बल बैठ कर प्रस्ताव रखते हुए कहा- “ विधि…. क्या तुम मुझसे शादी करोगी…?’’
विधि स्तब्ध निःशब्द सी रह गई। वह तो उसने पहले सोचा भी न था। उसने एक ही साँस में कह दिया, ’’नहीं….नहीं…. वह नहीं हो सकता। हम दोनों एक दूसरे के बारे में जानते ही कितना…..? तुम जानते भी हो…. क्या कह रहे हो…? मैं… मैं किसी को भी संपूर्ण वैवाहिक सुख नहीं दे सकती।’’ इतना कह क रवह चुप हो गई, उसकी आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे।
जाॅन कहां पीछे हटने वाला था। बार-बार पूछता ही रहा, ’’क्या बात है?’’ हारकर विधि ने एक ही सांस में कह दिया- ’’कैंसर के कारण मेरा एक वक्ष स्थल नहीं है… और तुम उम्र में मेरे पिता के बराबर हो…’’
“ब…स… इतनी सी बात है मेरी जान। मैं तुम्हें प्यार करता हूं। तुम्हारे संग जीवन बिताना चाहता हूं… मैंने अपनी प्यासी पानी को तो कैंसर के कारण छोड़ा नहीं। अगर आज वह मेरे साथ नहीं है…. वह भगवान की मर्ज़ी है….’’
विधि चुप थी। सोच में थी कि- “जो ख्याल हमे छू कर भी नहीं गुज़रता, जो पल में सामने आ जाता है।’’
“कोई जल्दी नहीं है…. यू टेक यो टाईम…’’ जाॅन ने परिस्थित को भाँपते हुए कहा।
एक सप्ताह पश्चात जाॅन तो चला गया किंतु उसके दुर्लभ प्रश्न ने विधि को दुविधा में डाल दिया। मन में उठते भांति-भांति के प्रश्नों से पूछती रही, जिनका उसके पास उत्तर न था। कभी कागज़ पर लकीरे खींच कर काटने लगती… कभी गुलदस्ते से फूल ले कर उसी पंखुडियों को तोड़-तोड़े सवालों के उत्तर ढूंढती तो … और कभी खुद से प्रश्न करने लगती- ’कब तक रहोगी भाई- भाभियों की छत्र छाया में….? क्या समाज तुम्हें चैन से जीने देगा तलाकशुदा की तख्ती के स्टय…? कौन होता तेरे दुख सुख का साथी…? क्या होगा तेरा अस्तित्व…? अगर मान भी जाती है तो क्या उत्तर देगी, जब लोग पूछेगे…. इतने बूढ़े से शादी की है कोई और नहीं मिला क्या…?’ इन्हीं उलझनों में समय निकलता गया। समय थोड़े ही ठहर पाया है किसी के लिये…?
जाॅन को गये करीब एक वर्ष बीत गया। दोनों की अक्सर फोन पर स्काईप पर बात हो जाती थी एक दोस्त की तरह।
काॅलेज में थी विधि सदा खोई-खोई रहती। एक दिन उसने अपनी सहेली रेणु से जाॅन की बात की.. “ विधि, बात तो गंभीर हैकिंतु गौर करने को है। भारतीय पुरुषों की प्रवृति तो तू जान हो चुकी है। अगर यहां कोई शादी को तैयार भी हो गया तो उम्र भर उसके एहसाने के नीचे दबी रहेगी… जाॅन तुझे मन से चाहता है। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया है… अपना ले उसे… हटा दे यह जीवन से यह तलाक शुदा को तख्ती और आगे बढ़… खुशियों ने तुझे आमंत्रण दिया है… ठुकरा मत… औरत को भी तो हक है तकदीर बदलने का। बदल दे अपने जीवन को दिशा और दशा…’’ रेणु ने उसे समझाते हुए कहो। “ धर्म, सोच… संस्कार… सभ्यता कुछ भी तो नहीं है एक जैसा हमारा…. ऊपर से उसकी उम्र…. फिर इतनी दूर….?’’
“ प्रेम…. उम्र धर्म, भाषा, रंग और जाति सभी दीवारों को लांघने की शक्ति रखता है मेरी जान…. प्यार में दूरियां भी नज़दीकियां बन जाती है। देर मत कर….’’
“ किंतु मैंने तो उसे ’ना’ कर दी थी… अब किस मुंह से….?’’
“ वह तू मुझ पर छोड़ दे…. उसका ई-मेल का पता दे मुझे ’’ रेणु ने शरारत से कहा।
रेणु से मन की बात करके विधि की शंकाओं और द्वन्द्वों की पुष्टि हो गई। उसे भविष्य झिलमिलाता हुआ दिखाई देने लगा। उसका मन इच्छाओं को उड़न खटोले बैठ कर बादलों के संग उड़ने लगा।
“ चल उठ… लेक्चर का समय हो गया है। बड़ी जल्दी खो गई जॉन के ख्यालों में……..’’ रेणु ने छेड़ते हुए कहा।
अगले ही दिन रेणु ने जॉन को ई-मेल डाला।
’’डियर जॉन
“ विधि का दोस्त हूँ । विधि ने आपके शादी के प्रताव के बारे में बताया। क्या वह प्रस्ताव अभी तक मान्य है कि नहीं…? अगर मान्य है तो आप उस प्रस्ताव को विधि के बड़े भाई के सामने रखिये तो ठीक रहेगा। मैं, विधि की ही इजाज़त से यह पत्र लिख रही हूं।
धन्यवाद
विधि की सहेली
रेणु चोपड़ा
ई- मेल देखते ही जॉन खुशी से पागल हो गया। तुरन्त ही उड़ान ले कर वह दिल्ली पहुंचा। उसने विधि के बड़े भाई को होटल में बुलाकर वह ई-मेल दिखाते हुए विधि का हाथ माँगा।
“ मैं तुम्हें घर में सबसे बात करके फोन करुंगा।’’ विधि के भाई … ने कहा।
शाम को विधि जब घर पहुंची बैठक में सारा परिवार उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। अजय ने जॉन द्वारा भेजा प्रस्ताव सामने रखा। सभी हैरान थे… छोटा भाई सन्नी तैश में आकर बोला, ’’इतने बड़े से… दिमाग खराब हो गया है तथा जाहिर है विधि की उम्र के तो उसके बच्चे होगे… अंग्रेज़ों का कोई भरोसा नहीं….’’ सभी घर वाले इस बात से हक्का-बक्का थे।
“ तुमने क्या सोचा है विधि?’’ बड़े भाई ने पूछा।
“ मुझे कोई एतराज नहीं…’’ विधि ने शरमाते कहा।
“ होश में तो है दीदी… क्या सचमुच सठिये से शादी करेगी…?’’ सनी भुनभुनाते हुए बोला।
अजय ने जॉन को घर बुलाया और कहा… “ शादी तय करने से पहले हमारी कुछ शर्त है… शादी हिन्दू रीति रिवाजों से होगी… उसके लिये तुम्हें हिन्दू बनना होगा…. हिन्दू नाम रखना होगा… विवाह के तुरंत बाद विधि को साथ ले जाना होगा।’’
उसे सब शर्त मंजूर थी। वह उत्तेजना में… “ आई विल….. आई विल कहता नाचने लगा।’’ पुरुष चहेती स्त्री को पाने का हर संभव प्रयास करता है, उसमें साम, दण्ड, भेद, भाव सब जायज़ है।
अच्छा सा मुहूर्त निकाल कर दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। किशोरावस्था की तरह विधि के हृदय की डाली पर उमंगों के फूल अंकुरित होने लगे।
विवाह के एक महीने पश्चात् दोनों अपने घर लन्दन पहुंचे। अंग्रेज़ी रिवाज के अनुसार जॉन ने विधि को गोद में उठा कर घर की दहलीज पार की और बड़े प्यार से बोला- ’’विधि, मैं तुम्हारा तुम्हारे घर में स्वागत करता हूं….’’ उसकी आत्मीयता देख विधि की आंखों से आंसू बहने लगे। अंदर घुसते ही उसने देखा अकेले रहते हुए भी जॉन ने घर बड़ी तरतीब और अच्छे से सजा रखा था। घर में सभी सुविधायें थी…. जैसे कपड़े धोने की मशीन, ड्रायर…. डिश काशर (बर्तन धोने की मशीन) स्टोव और आंवन। कांटेज के पीछे एक छोटा सा गार्डन था जो जॉन का प्राइड एण्ड जॉए था।
पहली ही रात को जॉन ने विधि को अपने प्यार का अनमोल उपहार देते हुए कहा- “ विधि, मैं तुम्हें क्रूर संसार की कोलाहल से दूर, दुनिया के कटाक्षों से हटा कर अपने हृदय में रखने के लिए हूँ । तुमको मिलने के बाद तुम्हारी मुस्कान और चिपरिचित अदा ही तो मुझे चुम्बक की तरह बार-बार खींचती रही है और मारते दम तक खींचती रहेगी। मैं तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि तुम अपने अतीत को भूल जाओगी ।’’ और जॉन ने उसे भीग कर गले से लगा लिया। ऐसे प्रेम का एहसास उसे आज पहली बार हुआ था। धीरे-धीरे वह जान पाई कि जॉन केवल गोरा चिट्ठा ऊँचे कद का ही नहीं, वह रोमांटिक , ज़िन्दादिल और मस्त इंसान भी है जो बात-बात में किसी भी अपना बनाने का हुआ जानता है। उसका हृदय जीवन की आकांक्षाओं से धड़क उठा। जॉन ने उसे इतना मान और प्यार दिया कि उसकी सभी शंकाओं की पुष्टि हो गई। वह उसे मन से चाहने लगी थी। दोनों बेहद खुश थे। वीक एंड में जॉन के तीनों बच्चों ने खुली बाँहों से विधि का स्वागत किया और अपने पिता के विवाह पर एक भव्य पार्टी दी।
विधि अपने फैसाले से प्रसन्न थी। अब उसका घर परिवार था। असीम प्यार करने वाला पति। जॉन ने घर की बागडोर उसी के हाथ में थमा दी। उसे प्यार करना सिखाया। उसका आत्माविश्वास जगाया। उसे कालेज में पोस्ट ग्रेजुएट भी करवा दिया क्योंकि भीतर से वह जानता था कि उसके जाने के बाद विधि अपने समय का सदुपयोग कर सकेगी। क्योंकि बिना इंगलिश ट्रेनिंग के उसे कोई नौकरी नहीं मिलने वाली थी।
गर्मियों का मौसम था। चारों ओर सतरंगी फूल लहलहा रहे थे। बाहर बच्चे खेल रहे थे। दोपहर के खाने के पश्चात् दोनों कुर्सी बाहर डाल कर धूप का आनन्द लेने लगे। बच्चों को देखते ही विधि की ममता उमड़ने लगी। जॉन की पैनी नज़रों से यह बात छिपी नहीं। उसने पूछ ही लिया, ’’ विधि हमारा बच्चा निगरानी में रह कर। मैं तैयार हूं, हमारे पूर्व पश्चिम के इन्फूज़न के लिये।’’
“नहीं… नहीं… हमारे है तो सही ….. वो तीन और उनके बच्चे। मैंने तो जीवन के सभी अनुभवों को भोगा है। माँ बन कर भी अब नानी-दादी होने का सुख भोग रही हूं।’’ विधि ने हँसते हुए कहा।
“मैं तो समझता था तुम्हें मेरी निशानी चाहिए…” उसने मुस्कराते हुए कहा।
“ ठीक है, अगर बच्चा नहीं तो एक सुझाव दे सकता हूँ । बच्चों से कहेंगे हमारे बाद मेरे नाम का एक इंगलिश रोज़ (लाल गुलाब) का फूल और तुम्हारे नाम का (पीला गुलाब) इंडियन समा लगा दे। ताकि मरने के बाद भी हम एक दूसरे को देखते रहे।’’ इतना कह कर जॉन ने प्यार से उसके गालों पर एक चुम्बन रख दिया।
विधि के होठों पर मुस्कुराहट, आंखों से खुशी के आंसू बह निकले और वह प्यार की पूरी कोशिशें सिखे जॉन के आगोश में लिपट गई। जॉन उसकी छोटी से छोटी हर जरुरत कर ध्यान रखता। धीरे-धीरे उसने विधि के पूरे जीवन को अपने प्यार के आँचल से ढक लिया। जहां उस पर कठोर धूप चमकती कहां वह नीले आकाश की परछाई बन कर छा जाता। सामाजिक बैठकों में इसे अदब और श्ष्टिाचार से संबोधित करता। उसे जो…. जी करते उसकी जुबान न थकती। कुछ ही वर्षों में जॉन ने उसे आधी दुनिया की सैर करा दी थी। यहाँ तक कि मन्दिर, गुरुद्वारे, आर्य समाज सभी धार्मिक स्थानों पर भी वह उसे खुशी-खुशी ले जाता। अब विधि के जीवन में सुख ही सुख थे।
समय हंसी खुशी बीतता गया। इधर कई महीनों से जॉन थोड़ा सुस्त था। विधि चिन्तित थी कि कहां गई इसकी चंचलता, चपलता, यह कभी टिक कर न बैठने वाला चुपचाप कैसे बैठा रह सकता है ? डाक्टर के पास जाने को कहो तो कह देता…’’ मेरा शरीर है…. मैं जानता हूँ क्या करना है। ’’ भीतर से खुद भी चिन्तित था। हार कर विधि से चोरी डॉक्टर के पास गया। अनेको टेस्ट हुए। डॉक्टर ने जो बताया उसका मन उसे मानने को तैयार न था। वह जीना चाहता था। उसे विधि की चिन्ता होने लगी। उसने डॉक्टर से निवेदन किया कि वह नहीं चाहता कि उसकी यह बीमारी उसकी और उसकी पत्नी की खुशी के आड़े आये। जानता हूँ समय कम है। अब पत्नी के लिए वह सब कुछ करना चाहता है जो अभी तक नहीं कर पाया। समय आने पर वह खुद उसे बड़ा देगा, हमारी एक दिन अचानक वर्ल्डक्रूज़ के टिकट विधि के हाथ में थमाते हुए बोला- “ यह लो हमारी शादी की दसवीं साल-गिरह का तोहफा। ’’ उसकी जी हुजूरी ही नहीं खत्म होती थी।
वर्ल्डक्रूज से लौटने के पश्चात् दोनों ने शादी की दसवीं वर्ष-गाँठ बड़ी धूम-धाम से मनाई। घर के रजिस्ट्री के कागज़ और सभी एफडीज़ उसने विधि के नाम कर उसे तोहफे में दी। उस रात वह बहुत अशांत था। उसे बार-बार उल्टियां और चक्कर आते रहे। उसे अस्पताल ले जाया गया। जॉन की दशा दिन व दिन बिगड़ती गई। कैंसर पूरे शरीर में फैल चुका था अब कुछ ही समय की बात थी। कैंसर शब्द सुन कर सभी भौंचक्के से रह गये। डाक्टर ने बताया- “ तुम्हारे डैड जाने से पहले तुम्हारी माँ को उम्र भर की खुशियां देना चाहते थे। ’’
बच्चे तो घर आ गए पर विधि नाराज़ सी बैठी रही। जॉन ने उसका हाथ पकड़ कर उसे प्यार से समझाया- “ जो समय मेरे पास रह गया था मैं उसे बरबाद नही करना चाहता था। भोगना चाहता था तुम्हारे साथ। तुमने ही तो मुझे जीना सिखाया है। अब से जीवन से रिश्ता तोड़ सकता हूँ । जाना तो एक दिन सभी को है।’’
कुछ ही दिनों पश्चात् अपनी शादी की ग्यारहवीं वर्ष- गाँठ से पहले ही वह चल बसा।
फ्यूनरल के बाद जॉन की इच्छा के अनुसार उसकी अस्थियाँ उसके गार्डन में बिखरे दी गई। उसके बेटे ने एक इंगलिश रोज़ और एक इंडियन … साथ-साथ गार्डन में लगा दिए , इस सदमे को सहना कठिन था .विधि को लगा मानो किसी ने उसके शरीर के टुकडे के टुकड़े कर दिये हों । वह फिर अकेली रह गई।
एक दिन उसके भीतर से एक आवाज़ सिहर उठी- “ उठ विधि…. संभाल खुद को, तेरे पास उसका प्यार है, स्मृतियां हैं । वह तुझे क्वांलिटी में सही क्वालिटी ऑफ़ लाईफ तो दे कर गया है।’’
धीरे-धीरे वह संभलने लगी। जॉन के बच्चों के सहयोग और प्यार ने इसे फिर खड़ा कर दिया। कॉलेज में उसे नौकरी मिल गई। बाकी समय गार्डन की देख-भाल करती। इंगलिश रोज़ और इडियन समर की छटाई करने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती। उसके लिये वह माली को बुला लेती। गार्डन जॉन की उन थी। प्यार था। निशानी थी। एक दिन भी न ऐसा जाता ज बवह अपने पौधे को न सहलाती। अक्सर उनसे बातें करती। बर्फ हो या कोहरा पड़, कड़कई सर्दी में वह अपने फ्रेंच डोर के भीतर से ही पौधों को निहराती जो जॉन ने लगाये थे। उदासी में इंगलिश रोज़ से शिकवे और शिकायतें भी करती… ’’देखो तो अपने लगाये परिवार में लहलहा रहे हो और मैं….? नहीं नहीं शिकायत नहीं कर रही…. मुझे याद है जिस दिन आप मुझे घर लाये थे आपने कहा था वह मेरा परिवार है, मरने के बाद भी इससे मुझे अलग मत करना। मेरी राख मेरे पौधों में बिखेर देना।’’
यही सोचते-सोचते अंधेरा छाने लगा। उसने घड़ी देखी, अभी शाम के पाँच ही बजे थे। मरियल सी धूप भी चोरी-चोरी दीवारों में खिसकती जा रही थी। वह जानती थी यह गर्मियों के जाने और पतझड़ के आने का संदेसा था। वह आँख मूँद कर बिछे रंग-बिरंगे पत्तों की मुरमुराहट का आनन्द ले रही थी।
अचानक तेज हवा के वेग से पत्ते उड़ने लगे। हवा के झोके में एक सूखा पत्ता हलटता-पलटता उसके आंचल में आ अटका। पल भर को उसे लगा कोई छू कर कह रहा हो…. ’’उदास क्यो होती हो… मैं यही हूं….. तुमने चारों ओर,….. देखो वही हूं जहां फूल खिलते है….. क्यों खिलते है, यह मैं यही जानता…. बस इतना ज़रुर जानता हूं…. फूल खिलता है, झर जाता है क्यों? यह कोई नहीं जानता। बस इतना जानता हूं इंगलिश रोज़ जिसके लिये खिलता है इसी के लिये झर जाता है। खिले फूल की सार्थकता और झरे फूल की व्यथा एक को ही अर्पित है…’’
उस दिन वह झरते फूलों को तब तक निहारती रही, जब तक अंधेरे के कारण उसे दिखाई देना बंद नहीं हो गया। पल भर को उसे लगा मानो जॉन पल्लू पकड़ कर कह रहा हो…..
“ मी टू…. तुम्हारी शरारत की आदत अभी गई नहीं इंगलिश रोज़….’’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।
अरुणा जी एक सशक्त कहानीकार है ‘ इंग्लिश रोज़ ‘ एक स्त्री की हिम्मत उसकी जिजीविषा की कथा है।विधि कैंसर से पीड़ित हैं।जिसकी छाती निकाल दी गई है उसका पति उसे हिकारत से बाहर निकाल देता है कि ‘तुम अब मेरे लिए व्यर्थ हो … विधि साहस,सौंदर्य,बुद्धि की प्रतिमूर्ति संघर्ष करती, अपने को संभालती स्वयं को खड़ा करती है।कालांतर में जॉन से उसकी मित्रता रिश्ते में परिवर्तित हो जाती है।वो एक खुशहाल दंपत्ति बन जाते है। वक्त के बीतने के साथ जॉन ने बच्चों से वादा किया कि उसके जाने के बाद उसके नाम का इंग्लिश रोज़ लगाएं। बच्चों ने वादा पूरा किया। विधि गार्डन में लगे इंग्लिश रोज़ को देख,उसके स्पर्श से जॉन के आस पास होने का एहसास करती। एक पठनीय कहानी ।बहुत बहुत शुभकामनाएं लेखिका को।
अरुणा जी स्थापित कहानीकार हैं । इंग्लिश रोज़ कहानी अच्छी लगी।आपको पढ़ते ही रहे हैं पुरवाई में।
यह भी अच्छी कहानी है।
सास के व्यवहार ने साबित किया कि कई जगह स्त्रियाँ ही स्त्रियों की दुश्मन होती हैं।
कोई भी बीमारी, कभी भी, किसी को भी हो सकती है पर कई सासूजी वाकई ऐसी होती हैं और बेटे बोल नहीं पाते। अपने ही बेटे का घर उजाड़ के न जाने उन्हें क्या मिलता है।
पर उतरार्द्ध प्रेम से भरा रहा यह भी कम नहीं।
जॉन के बच्चों ने उसके पिता की कामना पूर्ण की यह भी बड़ी बात है।
कहानी में वर्तनी की गलतियाँ रहीं जो खटकीं
जैसे शोक को शौक।
और भी बहुत सी ऐसी गलतियाँ हैं। हो सकता है टंकण त्रुटि हो। पर पढ़ने का रस कम हो जाता है।
बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।
प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का शुक्रिया।
पुरवाई का आभार।
अरुणा जी को बराबर पढ़ रही हूँ और एक से बढ़कर एक विषयों को उठाया है। दो देशों के परिप्रेक्ष्य में एक रोग के कारण परित्याग और तिरस्कार और दूसरे में अंतिम समय तक समर्पण ने सोचने पर मजबूर कर दिया। हमारे यहाँ संस्कार और संस्कृति की दुहाई जहाँ पूरे विश्व में एक अलग गरिमा रखते है , ऐसी घटनाएं ही हमें शर्मिंदा ही करती हैं।
. तब जॉन का चरित्र हमें एक विदेशी होकर प्रेम और समर्पण की मिसाल बन जाता है। गयनी अच्छी कहानी के लिए बधाई।
शानदार कहानी अरुणा जी।